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मीरा के देश में अंग्रेजी साहित्य की लफ्फाजी

मीरा के देश में अंग्रेजी साहित्य की लफ्फाजी

क्या साहित्य इस प्रकार की वस्तु है जिसका उत्सव मनाया जा सकता है? इस पर बात तो गंभीरता से की जा सकती है लेकिन जिस प्रकार से उत्सव मनाया  जा रहा है वह कतई गंभीरता के लायक नहीं है। क्योंकि वे जिस साहित्य पर चर्चा कर रहे हैं यह उस देश या प्रदेश के लिए नहीं है जहां 2.5 करोड़ से अधिक लोग भूखे पेट सोते है। और जिस देश में 78 प्रतिशत बच्चे भूख और कुपोषण के शिकार है और अंतराराष्ट्रीय देशों में हमें हिकारत से देखा जाता है। और जहां 66 प्रतिशत गर्भवती माताओं के प्रसव के लिए एक अस्पताल तक उपलब्ध नहीं है। इसलिए जब साहित्य की बात करते हैं तो साहित्य बालीवुड और हालीवुड के अंडकोष के नीचे ही नहीं है साहित्य जयपुर से दूर राज्यों के ग्रामीण अंचलों में भी है जिसे प्रायोजक की संपन्नता के चश्में से नहीं देखा जा सकता।

यह भी एक अजीब सा संयोग है कि भारतीय प्रवासी सम्मेलन पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी के सौजन्य से शुरु हुआ तो जयपुर में साहित्य का यह ड्रामा तत्कालीन मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे के समय उद्घाटित हुआ। लेकिन बाद में यह कांग्रेसी मंच हो गया। जिस प्रकार 2010में एक तरह से आयोजकों का हौसला अफजाई करते हुए कांगे्सी मंत्री सलमान खुर्शीद ने समीक्षकों और कार्यक्रमों के निन्दकों की परवा नहीं करने की क्लीन चिट देने की मुद्रा में जो कुछ कहा था, मेरे इस संदेह की पुष्टि करता है, और अगले ही वर्ष इसी मंच से कवि कपिल सिब्बल के एक नए अवतार से लोगों को परिचित कराया गया। यह एक दूसरा उदाहरण है जो साबित करता है कि इस फेस्टिवल की अंतरधरा कांगेस की सरकार से कितनी गहराई से जुड़ी हुई है।

जिस प्रकार नगाड़े की चोट पर इसे एशिया महादेश का सब से बेहतर ‘‘लिटरेचर फेस्टिवल’’ की घोषणा की जाती है उसे सुन कर हैरानी नहीं होती, क्योंकि सच्चाई यह है कि भारत में राजस्थान राज्य को छोड़ कर, इस प्रकार के फेस्टिवल का कचरा उठाने को कोई देश तैयार नहीं है। चीन, बांग्लादेश, बर्मा, नेपाल, पाकिस्तान, श्रीलंका या दूसरे अन्य मुल्कों के राजनीतिक और सामाजिक परिदृष्य पर एक नजर डालें तो एक भी ऐसा देश नहीं है जो इस प्रकार के उत्सवों को अपने देश में आयोजित करने को तैयार हो सकता है। क्योंकि कोई भी स्वाभिमानी देश अपनी भाषा की अस्मिता के मूल्य पर उत्सव आयोजित करने के लिए राजी नहीं होगा।

जहां मंच पर विदेशी लेखकों का कब्जा हो और स्थानीय ल्रेखक चुपचाप सुनते रहें। अपनी भाषा और सम्मान के प्रति मिट जानेवाला देश बांग्लादेश इसका जीता जागता प्रमाण है, जहां उर्दू को मातृभाषा मानने से अस्वीकार करने के कारण हजारों निर्दोष नागरिकों का कत्ल किया गया और संयुक्त राष्ट्संघ के आंकड़ों के अनुसार  इस दौरान वहां की दो लाख महिलाएं पाकिस्तानी सैनिकों द्वारा बलात्कार की शिकार हुई।

असल में राजस्थान की आर्थिक और शैक्षिक रूप से कमजोर काया को इस प्रकार की चकाचौंध से  ढ़कने की जो कोशिश शुरू की गई थी, यह फेस्टिवल उसी अंग्रेजियत संस्कृति की उपज है जो बसुंधरा राजे सरकार के शासन काल से चलता हुआ, अब 2012 में सातवें पड़ाव पर आ चुका है। 

अंगे्रजी साहित्य का यह फेस्टिवल इस बात का प्रमाण है कि यह प्रदेश अभी भी सामंतवादी और उपनिवेशवादी संस्कारों से मुक्त नहीं हुआ है। ज्यांपाल सार्त्र के शब्दों में उपनिवेशवाद से मुक्त हुए लोगों को वही सब करना अच्छा लगता है जो उनके शासकों द्वारा किया जाता रहा था।’’

राधेश्याम तिवारी
राधेश्याम तिवारी लेखक राधेश्याम तिवारी हिन्दी व अग्रेज़ी के वरिष्ठतम स्तंभकार, पत्रकार व संपादकों में से एक हैं। देश की लगभग सभी पत्र-पत्रिकाओं में आपके लेख निरंतर प्रकाशित होते रहते हैं। फेस एन फैक्ट्स के आप स्थाई स्तंभकार हैं। ये लेख उन्होंने अपने जीवनकाल में हमारे लिए लिखे थे. दुर्भाग्य से वह साल २०१७ में असमय हमारे बीच से चल बसे

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