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भारतीय प्रवासी सम्मेलन का पाखंड

भारतीय प्रवासी सम्मेलन का पाखंड

भारतीय प्रवासी सम्मेलन अटल बिहारी बाजपेयी की अनर्गल कविता है जिसका अर्थ एक  दषक वाद भी किसी की समझ में नहीं आया । असल में भारतीय संस्कारो की सबसे बड़ी फजीहत यह है कि वे अतीत के मोह बंधन से छूटना ही नहीं चाहते हैं। आज भी यदि सरकारी विज्ञापनों पर गौर करें तो कोई भी विज्ञापन गांधी जी की तस्वीर के बिना प्रसारित नहीं किया जाता मानों यह जो कुछ हो रहा है उसमें गांधी जी की सहमति है। जबकि उनका कहीं से कुछ लेना देना नहीं होता। 

कुछ चाटुकार अधिकारी तो गांधी जी के साथ स्व.इंदिरा गांधी की तस्वीर भी लगा देते है। कोई सोचने की जहमत  उठाना नहीं चाहता कि आज की सरकारी योजना में इन महापुरुषों का क्या लेना देना है? और कुछ चाटुकार तो इतने तेज होते हैं कि विज्ञापन में राजीव गांधी की तस्वीर भी लगा देते हैं। और उसमें कभी कभी तो स्व. लगाना भी भूल जाते है। ऐसे में तय करना आसान नहीं होता कि कौन नेता जीवित है और किस की मौत हो गई है।  इसलिए अब चूंकि यह आयोजन राजग की सरकार ने 2001 में प्रारंभ किया था जिसका मुख्य उद्देष्य देष में एक और मेला लगाना था तो कांग्रेस सरकार कैसे पीछे रहती? उसने भी इस प्रकार का मेला लगाना षुरु कर दिया है। इसका एक हैरत अंगेज दृष्य राजस्थान में प्रवासी भारतीय के सम्मान में आयोजित एक मेले में देखने को मिला।

यह आज तक पता नहीं चला कि इस मेले को क्यों लगाया गया था़? सबसे हास्यास्पद स्थिति तो अतिथियों के चरित्र के दोहरेपन को देख कर होती है। वे जिस देष के नागरिक हो गए है वहां की नागरिकता को लेकर संदेह पैदा करते हैं। यदि आपको भारत इतना अच्छा लगता है तो वे विदेष की नागरिकता छोड़ कर भारत में क्यो नहीं बस जाते ?  दो देषों के प्रति एक जैसा लगाव हो नहीं सकता। यह उनके चरित्र पर सवाल और संदेह पैदा करता है।  क्या वे जिस देष की में रह रहे हैं वहां की नागरिकता में उनको विष्वास नहीं है? यदि भारत मे आप अपना व्यापार बढ़ाना ही चाहते हैं तो व्यापारी की तरह क्यों नहीं आते? क्यों अचानक भारतवंषी  होने का बोध जाग जाता है जबकि आप दूसरे देष में रहते हैं ओर वहां विष्वसनीय नागरिक है?

 यह वैसा ही है जैसे यहां के नेता और अधिकरी 21वीं सदी में योजना बनाते हैं और मनमोहन सिंह के साथ गांधी की तस्वीर चिपका देते है। वैसे ही प्रवासी उद्य़ोगपति भारत में व्यापार करना चाहते हैं उसके साथ  अपने को भारतवंषी होने का ठप्पा भी लगा देते है।  प्रति वर्ष इस मेले को लगाने में देष का करोड़ो रुपए फूंक दिए जाते हैं। लेकिन इस पाखंड से देष का कितना लाभ होता है, इसका अंदाजा नहीं है।सबसे हास्यास्पद यह है कि विष्व को भारत में ब्याप्त भ्रष्टाचार के बारे में पता है और इसी बजह से यहां विदेषी या प्रवासी भारतीय अपना व्यापार लाने से डरते हं। फिर भी सरकार की इच्छा षक्ति नहीं दिखलाई देती है कि भ्रष्टाचार मिटा दिया जाय और पारदर्षिता आ जाय। यदि ऐसा हो जाय  तो सम्मेलन हो या नहीं, सभी दौड़ कर आएंगे क्योंकि उन्हें व्यापार करना है। लेकिन राधा के लिए न नौ मन घी होगा न राधा नाचेगी। फिर प्रति वर्ष करोड़ों रुपए जो जनता की गाढ़ी कमाई है उसे प्रवासी भारतय सम्मेलन के नाम पर फूंकने का क्या फायदा?

राधेश्याम तिवारी
राधेश्याम तिवारी लेखक राधेश्याम तिवारी हिन्दी व अग्रेज़ी के वरिष्ठतम स्तंभकार, पत्रकार व संपादकों में से एक हैं। देश की लगभग सभी पत्र-पत्रिकाओं में आपके लेख निरंतर प्रकाशित होते रहते हैं। फेस एन फैक्ट्स के आप स्थाई स्तंभकार हैं। ये लेख उन्होंने अपने जीवनकाल में हमारे लिए लिखे थे. दुर्भाग्य से वह साल २०१७ में असमय हमारे बीच से चल बसे

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