नए आयामों में ढलती मधुबनी चित्रकला

नए आयामों में ढलती मधुबनी चित्रकला नई दिल्ली: कुछ दिनों पहले कोलकाता में आयोजित राष्ट्रीय हस्तशिल्प प्रदर्शनी में मिथिला की कला, जो मधुबनी पेंटिंग के नाम से जानी जाती है देखी और वहां के कुछ कलाकारों से साक्षात्कार हुआ। यहां शिल्प का जो वैविध्य देखने को मिला, उससे इस तथ्य को पुष्टि हुई कि परम्परा केवल अतीत का प्रेषण नहीं अथवा उसे विरासत में प्राप्त करना ही नहीं है; बल्कि परम्परा की व्यवहारगत और प्रतीकात्मक पुनुरुक्ति द्वारा अपनी अस्मिता बनाए रखने की चेष्टा, एक ऐसी प्रक्रिया है जो मस्तिष्क में अनुगूंजे भावों को वर्तमान से जोड़ती है एवम् व्यक्ति के चित्त और सामाजिक ढांचे को स्थायित्व प्रदान करती है।

ऐसा न होता तो क्या क्षेत्रविशेष की मधुबनी चित्रकला अंतर्राष्ट्रीय मानचित्र पर अपना विशेष स्थान बना पाती!

चालीस वर्ष से ऊपर हो गए होंगे जब कृष्ण-राधा एवं श्री राम की पुण्य जन्मभूमि का दर्शन कर हम, मिथिला-जनकनन्दिनी के देश पहुंचे। किम्वदन्ती है कि सीता विवाह के अवसर पर विदेहराज जनक ने नगर सजाने का आदेश दिया था।

मिट्टी से लिपे-पुते घरों पर चटक रंगों से जो चित्रकारी की वही पीढ़ी दर पीढ़ी चली आने वाली "मधुबनी" है। उसी समय के गोबर-मिट्टी से लिपे घरों पर किया गया चित्रांकन हृदयपटल पर अंकित हो गया था; जो अपने को सांगोपांग तब दोहरा गया जब मिथिला शिल्पकला के 'स्टॉल' में पहुंची। जो नया था, वह था शिल्पकारों का कला के पारम्परिक स्वरूप को बरकरार रखते हुए उसे नवीन आयाम देना।

आज 'मधुबनी कला' भूमि और भित्ति से आगे बढ़कर कागज, कैनवस, कपड़ा, मिट्टी के बर्तन और सजावट की वस्तुओं को सुन्दर बनाने लगी है। धन्य है ग्रामीण कलाकारों की अदम्य जिजीविषा!

मिथिला, नेपाल की तराई में, उत्तरी बिहार का एक इलाका है जिसमें समस्तीपुर, जनकपुर, जितवारपुर, मधुबनी इत्यादि जिले आते हैं। यह ऋषि याज्ञयवल्क, कपिल और गौतम की जन्मभूमि तथा वैष्णव कवि विद्यापति की भाव-भूमि रही है। इस प्राचीन स्थान की मिट्टी और बोली कि मिठास यहां की कला में रच-बस गई है। रेखाओं को रवानगी और रंगों के तालमेल ने मधुबनी चित्रकला को विशिष्टता प्रदान की। चित्र सज्जा बड़ी घनी होती है, पशु-पक्षी और लता-पुष्प से भरी हुई।

परम्परागत रूप से मैथिली चित्र केवल विवाह, उपनयन और विशेष त्यौहारों पर ही मुख्यद्वार और ठाकुरघर को सजाने के लिए बनाए जाते थे।

विषय सीमित थे - विद्यापति के सुपुरुष, रसिक रंजन कृष्ण की लीलाएं, शिव व विष्णु के विभिन्न अवतार, देव व देवियां। इतना ही नहीं यह विद्या केवल ब्राह्मण और कायस्थ महिलाओं की बपौती थी। इसे वर्तमान रूप कैसे प्राप्त हुआ यह विधि का विधान ही है।

बात सन् 1934 की है जब बिहार में भीषण भूकम्प आया था। मिथिला अंचल के खंडहर में बिखरे चित्रित खण्डों की ओर तत्कालीन भारतीय प्रशासनिक सेवा के डब्लू.जी. आर्चर का ध्यान आकर्षित हुआ। आपने इससे संबंधित एक लेख, 1949 में 'अंतर्राष्ट्रीय कला पत्रिका' में प्रकाशित किया।

प्रबुद्ध कलाकार जगत इस ओर आकृष्ट हुआ परन्तु राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मधुबनी कला की प्रतिष्ठा तब हुई जब 1966-68 में अकाल पीड़ित नगरवासियों की आजीविका के रूप में इस कला को सरकारी व गैरसरकारी संस्थानों का संरक्षण व मार्ग दर्शन मिला।

लगभग 1970 में अमेरिकी मानवशास्त्री रेमंड ने और जर्मनी की इरेका मोसर इस चित्रकला के सौन्दर्य को परखा। कला का विस्तार हुआ और आज मधुबनी जापान में भी चमक रही है।

इसका परिष्कृत, परिमार्जित और वैविध्यपूर्ण रूप सामने आया। इतना ही नहीं नीची जाति के कहे जाने चमारों व दुसाधों में यह कला अधिक प्रचलित हुई। विषयान्तर भी हुआ और दैवीय आकारों की जगह दैनदिन जीवन ने ले ली।

हरिजन कलाकार जमुना देवी का एक चित्र जिसमें एक दलित को मरी हुई गाय को किनारे लगाते दिखाया गया था - बड़ा ही सम्मानित हुआ था। इस जाति विशेष की कला को राष्ट्रीय मान्यता तब मिली जब 1970 में जितवारपुर की जगदम्बादेवी को उनकी चित्रकला के लिए राष्ट्रपति द्वारा 1970 में सम्मानित किया गया।

मिथिला के हरिजन, जो खेतिहर थे, जूते बनाते थे, मृत पशुओं को ठिकाने लगाते और मरे हुए जानवरों की चमड़ी पर जिनका सामाजिक अधिकार था, आज पूरी तरह चित्रकला में जुड़े सम्मानित जीवन बिता रहे हैं। मधुबनी की अनेक स्त्री कलाकारों जैसे बुआ देवी, सीता देवी, शान्ति देवी और महासुन्दरी आदि को राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय प्रतिष्ठा प्राप्त हुई। जितवारपुर की लोककला के लिए महासुन्दरी देवी को 2011 में पद्मश्री से नवाजा गया।

ब्राह्मण और कायस्थ महिला कलाकार मुख्य रूप से अपने चित्रों में भरनी और कछनी बाजार में मिलने वाली तूलिका और कृत्रिम रंगों का प्रयोग करने लगे हैं पर सामान्यत: अभी भी कला को प्राचीन परम्परा अक्षुण्य है, हां! विषय परिवर्तन समयानुकूल होता रहा है।

ध्यान गया जितवारपुर की उषा देवी पर जो दीवार पर कोहबर का चित्र आंक रही थीं। साथ में उनकी सखी थीं। उनसे जब एक मैथिल गीत सुनाने को कहा तो चित्र से संबंधित गाना सुनाया। साथ ही सुघड़, सधे हाथों से रंग भी भरती रहीं।

लाल रंग कोहबर, गुलाल रंग गेह।

हरा रंग कोहबर,

आहि ने ओछाउर।

सब रंग पटिया, सब रंग फूल।

कोहबर-नवदम्पत्ति के प्रथम मिलन का कमरा। उसे लाल, हरे रंग से सजाया। रंगी-बिरंगी चटाई बिछाई। विभिन्न रंगों की पटिया सजाई और उसे हर तरह से रंगीन कर दिया। गाना समाप्त कर 'मधुनी' उषा देवी ने अपनी सरल, सलज्ज मुस्कान से पूरे परिवेश को भी मधुमय कर दिया। अब उठने का समय हो गया था। चलते-चलते विद्यापति पदावली को दो पंक्तियां याद आ गईं-

कटू सत्यक तथ्य मथन कयलहुं,
शुभ जीवन हेतु जतन कयलहुं।
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