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रूस-कजाखिस्तान की बाढ़ क्यों है 3000 किमी दूर बैठे भारत के लिए खतरे का अलार्म?

जनता जनार्दन संवाददाता , Apr 11, 2024, 21:10 pm IST
Keywords: Russia Flood   रूस-कजाखिस्तान   सियासत का पारा   प्राकृतिक आपदा   सामान्य से 4 से 5 डिग्री सेल्सियस  
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रूस-कजाखिस्तान की बाढ़ क्यों है 3000 किमी दूर बैठे भारत के लिए खतरे का अलार्म?

 भारत में इन दिनों चुनाव का मौसम है और सियासत का पारा हाई है. हर सियासी दल सोशल इंजीनियरिंग से लेकर वादों के लंबी लिस्ट के साथ मतदाताओं के पास जा रहे हैं और सत्ता की सीढ़ी चढ़ने की आस लगा रहे हैं. चुनाव के मौसम में गारंटी की गूंज खूब सुनई दे रही हैं लेकिन नेता हों या मतदाता.. हर कोई एक बड़े खतरे की घंटी से बेखबर है..ये घंटी फिलहाल भारत से करीब 3000 हजार किमी दूर रूस में बज रही है. उस रूस में जो बीते दो साल से यूक्रेन के साथ जंग में उलझा, वो रूस जिसका जिक्र आते ही सर्द इलाकों की तस्वीर उभरती है.लेकिन रूस से आ रही ताजा तस्वीरें सैलाब की है. ऐसा सैलाब जिसे 70 साल की सबसे भीषण बाढ़ बताया जा रहा है. रूस की एक लाख से ज्यादा आबादी को चपेट में ले चुका है. 

 बाढ़ का पानी रूस की बस्तियों को ही नहीं बहा रहा बल्कि कजाखिस्तान के कई इलाकों को भी उजाड़ रहा है. रूस और कजाखिस्तान का यह संकट केवल इन दो देशों का नहीं बल्कि 8 अरब की आबादी के लिए खतरे के अलार्म है. आपके मन में सवाल उठ रहा होगा कि आखिर भारत से सैकड़ों किलोमीटर दूर रूस में आए इस संकट को हम भारत से कैसे जोड़ सकते हैं. इसे भारत के कल के लिए चेतावनी क्यों कहा जा रहा है, बताएंगे आप को रूस की बाढ़ का इंडिया एंगल.

जिस पुतिन ने यूक्रेन युद्ध के जरिए पूरी दुनिया को सकते में डाल दिया वो पुतिन प्राकृतिक आपदा के सामने असहाय नजर आ रहे हैं. 14 करोड़ की आबादी वाले रूस की एक लाख से ज्यादा आबादी बाढ़ की जद में आ चुकी है. यूराल नदी में पानी बढ़ने के बाद बुधवार को रूस और कजाकिस्तान के शहरों और कस्बों में बाढ़ आ गई है. इससे एक लाख से ज्यादा लोगों को अपना घर छोड़कर सुरक्षित जगहों की तरफ जाना पड़ा.

लोग शहरों से पलायन करने को मजबूर हैं. मूसलाधार बारिश के कारण दक्षिणी यूराल में ओर्स्क के पास एक बांध टूट गया. वहीं आसमान से बारिश लगातार जारी है, जिसके कारण पानी घट नहीं रहा है और नतीजा ये कि रूसी शहर आरेनबर्ग के कई हिस्से पानी में डूबे चुके हैं. हालात इस कदर भयावह है कि रूस और कजाखिस्तान के कई इलाकों में स्टेट इमरजेंसी घोषित कर दी गई है.

रूस के इस संकट वाली तस्वीरों से भारत को सतर्क क्यों रहना चाहिए.इस बारे में आपको बताएं उससे पहले  भारत में मौसम विभाग की ताजा रिपोर्ट जान लीजिए. जब दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र चुनावी महासमर में है तब सियासत का ही नहीं मौसम का पारा भी लगातार चढ़ता जा रहा है. अप्रैल की शुरुआत में ही कई इलाकों में लू चलने लगी है.  

मौसम विभाग का ताजा आकलन कहता है कि अप्रैल-मई और जून में तापमान का पारा औसत से ज्यादा ही रहेगा. मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में लू के थपेड़े लोगों की परेशानी बढ़ा रहे हैं. मौसम विभाग किसी भी इलाके में लू की स्थिति घोषित कर देता है जब मैदानी इलाकों में तापमान 40 डिग्री सेल्सियस से ज्यादा बढ़ता है. वहीं तटीय इलाकों में 37 डिग्री सेल्सियस और पहाड़ों में 30 डिग्री सेल्सियस से ज्यादा होने पर हीटवेव करार दे दी जाती है. 

तापमान की यह भविष्यवाणी भारत के कई इलाकों में गर्मी के साथ साथ आद्रता यानी नमी के हालात को आकलन में शामिल नहीं करती है जो देश के कई इलाकों में गर्मी को और भी भीषण बना देती हैं. यानी तापमान तो कम होता है लेकिन नमी के कारण गर्मी असहनीय हो जाती है.

बीते कुछ सालों में गर्मी के पैटर्न को देखें तो दक्षिण भारत, पूर्वी भारत, मध्य भारत और उत्तर-पश्चिम भारत के कई इलाके गर्मी से त्राही-त्राही कर जाते हैं.यही इलाके भारत में सबसे ज्यादा आबादी वाले भी हैं और इन्ही इलाकों में लोकसभा की 350 से ज्यादा सीटें भी हैं...जहां इसी गर्मी के बीच चुनाव हो रहे हैं.

देश में पांच साल के लिए सत्ता किसे सौंपनी है इसका फैसला तो आप अपने वोट से कर ही लेंगे लेकिन चुनावी मौसम में एक ऐसे मुद्दे की चर्चा भी जरूरी है जो धरती और हम सबके भविष्य का है. चलिए लौटते हैं उस सवाल पर. यानी रूस की बाढ़ का क्या हमारी गर्मी से क्या कोई नाता है?

 यूरोप-अमेरिका-भारत समेत दुनिया में गर्मी का कहर ढा रहे मौसम के मौजूदा मिजाज की बड़ी वजह अल नीनो प्रभाव बताया जा रहा है जो बीते दो सालों से जारी है. अल नीनो एक सामान्य मौसमी घटना है. भूमध्यरेखा के करीब समंदर के तापमान को अल-नीनो बढ़ाता है. अल नीनो के कारण समुद्र की सतह का तापमान सामान्य से 4 से 5 डिग्री सेल्सियस तक ज्यादा हो जाता है.
इसका असर, केवल समंदर तक ही नहीं पहाड़ों की बर्फबारी तक मौसम के कई सिस्टम को प्रभावित करता है.

अल-नीनो से बढ़े तामपान के कारण पहाड़ों की बर्फ ज्यादा तेजी से पिघलती है और मैदानी इलाकों में अनियमित बारिश होती है. रूस की यूराल नदी यूराल पर्वत श्रृंखला से निकलती है, जो यूरेशियन प्लेट में पड़ती है. भारतीय टेक्टोनिक प्लेट और यूरेशियन प्लेट का टकराव 6 करोड़ साल पहले शुरू हुआ था. उसके पहले भारत एक आईलैंड यानी द्वीप था. जो जाकर यूरेशिया से भिड़ गया. जब दो जमीनें एकसाथ टकराए तो हिमालय का निर्माण हुआ. जमीन के ऊपर हिमालय बना और अंदर रहस्य बनते रहे.

इस विषय पर शोध कर रहे कई शोधार्थियों का मानना है कि यूराल-साइबेरियाई ब्लॉक हिमालय में मौसम परिवर्तन के लिए मुख्य वजह हैं. यूराल साईबेरियाई ब्लॉक के ट्रिगर किए गए असामान्य ठंड और गर्म के आधार पर तापमान घटता बढ़ता है, और यह हिमालय के विभिन्न इलाकों में बारिश या बर्फबारी के लिए भी जिम्मेदार है.

दक्षिण चीन सागर के विवाद हों या सियाचिन ग्लेशियर पर भारत-पाक की तनातनी, तिब्बत पर चीन का कब्जा हो या फिर कचतीवू का मामला. इस सबके पीछे पानी के स्रोत को सुरक्षित रखने की लड़ाई नज़र आती है जो बदलते मौसम के कारण पहाड़ों से लेकर मैदानों तक एक गंभीर संकट के तौर पर उभर रही है. पीने के साफ पानी से लेकर खेतों की सिंचाई और बाढ़ के पानी को नियंत्रित करने वाले बांध. मौसम के बदलते मिजाज ने संकट को और गहरा दिया है.

जलवायु परिवर्तन का आकलन हम पिछले कुछ सालों से हिमालय राज्यों में हुई आपदाओं से भी कर सकते हैं. जम्मू-कश्मीर के अमरनाथ में बादल फटने, चमोली में बाढ़ की तबाही, हिमाचल में आपदा और पूर्वोत्तर के कई राज्यों से भूस्खलन की खबरें बीच बीच में हमें आगाह करती रहती हैं. कॉपरनिकस क्लाइमेट चेंज सर्विस ने एक रिपोर्ट जारी की, जिसके मुताबिक

  • साल 2024 की पहली तिमाही में मार्च ने बढ़ते तापमान के पिछले सारे रिकॉर्ड तोड़ दिए हैं.

  • इस साल मार्च का औसत तापमान 1850 से 1900 के बीच मार्च में दर्ज किए गए औसत तापमान से 1.68 डिग्री सेल्सियस ज्यादा दर्ज किया गया है.


  • 2024 में मार्च के दौरान वैश्विक स्तर पर सतह के पास हवा का औसत तापमान 14.14 डिग्री सेल्सियस दर्ज किया गया, जो 1991 से 2020 के दौरान मार्च में दर्ज औसत तापमान से 0.73 डिग्री सेल्सियस अधिक है.

बढ़ते तापमान के यह आंकड़े बताते हैं कि हमारी धरती तेजी से गर्म हो रही है, जिसका असर पूरी दुनिया में महसूस कर रही हैं.यही रफ्तार रही तो भविष्य बेहद भयावह होगा. इतना ही नहीं इसका तात्कालिक असर हमारे भोजन की थाली पर भी तेजी से नजर आ रहा है.

वैज्ञानिकों का मानना है कि समुद्री सतह के तापमान में आया एक डिग्री सेल्सियस का बदलाव मछली पकड़ने की संभावना को 9 फीसदी तक कम कर देता है. असर केवल मछली पर ही नहीं दाल-रोटी पर भी होता है. ICAR के 2015 में हुए शोध के मुताबिक 1℃ तापमान बढ़ने पर गेहूं का उत्पादन 4-5 मीट्रिक टन कम हो जाता है तो वहीं तापमान में 1°C की वृद्धि मध्यम आय वाले उभरते बाज़ारों का आर्थिक विकास सालाना 0.9% तक घट सकता है.

देश जब 5 ट्रिलियन इकॉनमी और 2047 तक विकसित भारत का सपना देख रहा है, ऐसे वक्त में जलवायु परिवर्तन की ये चुनौती हमारे सामने खड़ी है. खासकर इसका सबसे बड़ा असर खेती और कृषि उत्पादन पर होता है. जलवायु परिवर्तन के कारण गर्म लहरों की तीव्रता से न केवल पशुओं में रोगों के बढ़ने की आशंका भी बढ़ती है. साथ ही पशुओं के प्रजनन क्षमता व दुग्ध उत्पादन में भी कमी होती है.

बड़ी आबादी और ऊर्जा खपत वाले भारत में लगातार ऊर्जा के विकल्पों की तलाश तेज हो गई है. इसी कड़ी में भारत इंटरनेशनल सौर उर्जा मिशन की अगुवाई कर रहा है. 2023 में भारत ने नेशनल ग्रीन हाइड्रोजन मिशन की शुरुआत की.पीएम सोलर योजना के जरिए इलेक्ट्रॉनिक बिजली की खपत को कम करना है. 2070 तक भारत का लक्ष्य कार्बन की खपत को कम करना है.

इस विश्लेषण के जरिए हमारा मकसद आपको डराने का नहीं बल्कि सामने दिख रहे संकट से चेताने का है क्योंकि ये संकट किसी जाति, धर्म, लिंग, क्षेत्र का भेद नहीं करता. इसके प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष असर हम सब पर पड़ सकते हैं. ये 100 फीसदी वोटरों के साथ साथ उनपर भी पड़ता है जो वोट नहीं डालते हैं.

 
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