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रामकृष्ण परमहंस की अद्वभुत 'वानरोपासना'

रामकृष्ण परमहंस की अद्वभुत 'वानरोपासना'
स्वामी विवेकानंद के गुरु रामकृष्ण परमहंस के कुलदेवता श्रीरघुनाथ जी ही थे। उन्हें इस बात का अहसास था कि हनुमान जी की भक्ति के बिना रामचंद्रजी के दर्शन असंभव हैं। एक समय ऐसा आया कि हनुमान जी का चिंतन करते-करते परमहंस हनुमान जी से अपना पृथक अस्तित्व और व्यक्तित्व ही भूल गए। उन्होंने हनुमान जी की तरह ही कूद-कूद कर चलना और वृक्षों पर रहना शुरू कर दिया। उनका अधिकतर समय वृक्ष पर ही व्यतीत होने लगा। वह  निरंतर रघुवीर-रघुवीर का ही नाम जप करते। पहनने के कपड़े पूंछ की तरह कमर में कसकर बांध लेते।वानर की तरह का जीवन व्यतीत करते करते परमहंस की मेरुदंड का अंतिम भाग एक इंच बढ़ गया। 
 
अपनी इस वानरोपासना को उन्होंने स्वयं शिष्यों के समक्ष प्रकट करते हुए कहा था कि उस समय आहार विहार आदि सब कार्य श्री हनुमान जी के समान ही करते थे। उन्हें मैं जानबूझकर करता था ऐसी बात नहीं थी। प्रत्युत वह स्वयं अपने आप होते थे। श्री रामकृष्ण लीला प्रसंग नामक ग्रंथ के रचयिता स्वामी शारदानंद ने लिखा है कि परमहंस की इस बात को सुनकर हमने पूछा कि क्या आपके शरीर का वह अंग अभी भी वैसा है? इसके उत्तर में परमहंस ने कहा कि उस भाव का प्रभुत्व निवृत हो जाने पर मेरुदंड ने पहले के समान ही स्वाभाविक रूप धारण कर लिया।
 
रामकृष्ण परमहंस दक्षिणेश्वर में आने वाले भक्तों को नाना प्रकार के उपदेश देते थे। हनुमान जी के संबंध में वह वही अमूल्य उपदेश देते थे जो उन्होंने अपने जीवन में साधना के माध्यम से प्राप्त किए थे। 

उनकी हनुमान भक्ति का प्रभाव उनके अनन्य शिष्य स्वामी विवेकानंद पर भी पड़ा। स्वामी जी ब्रह्मचर्य व्रत धारण करने वाले युवकों को हनुमान जी के चरित्र को आदर्श बनाने का ही उपदेश देते थे। अपने शिष्यों को भी उन्होंने देश के कोने-कोने में हनुमान जी की पूजा चलाने का निर्देश दिया था। वह कहते थे कि देह में दम नहीं और हृदय में साहस नहीं तो फिर इस जड़ पिंड को धारण करने से क्या होगा? ऐसा माना जाता है कि रामकृष्ण परमहंस और स्वामी विवेकानंद के कारण ही पश्चिम बंगाल में भगवान राम और हनुमान जी की पूजा आराधना प्रारंभ हुई।
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