बांधवगढ़ टाइगर रिजर्व: कॉल सुनने को तरसते कान
गौरव अवस्थी ,
Nov 27, 2021, 13:16 pm IST
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बांधवगढ़ टाइगर रिजर्व की अलग ही दुनिया है। यह एक ऐसी जगह है, जहां न फोन कॉल काम करती है न whatsapp कॉल और न ही facebook, इंस्टाग्राम और अन्य कोई काल। bsnl, airtel, आईडिया, वोडाफोन भी कोई काम नहीं आते। यहां कॉल तब सुनाई देती है जब अन्य वन्जीय जीवों पर वाकई "काल" मंडराता है। कॉल के वाहक हैं-चीतल, बारासिंघा, हिरन, बन्दर आदि वन्यजीव। इनकी आवाजें जंगल की रिंगटोन हैं। इन्हें सुनना-समझना हर एक के बस की बात भी नहीं। इसके लिए जंगल के नियम पता होने जरूरी हैं और वन्य-जीवों के प्रति संवेदनशीलता.
टाइगर की तलाश में सैलानियों को लेकर जंगल की खाक छानने वाली गाड़ियां गाइड का इशारा पाकर एकाएक रुक जाएं तो समझिए कॉल आ गई। सबके कान और आंखें एक ही दिशा में गड़ जाती हैं। मुंह सिल जाते हैं, टाइगर की एक झलक पाने के लिए। वह गाना सुना है न- "आ जा..झलक दिखला जा.." जैसे यह यहीं फिट बैठता है। टाइगर की एक झलक के लिए इस कॉल को सुनने को सैलानियों के कान तरसते रहते हैं। कभी कॉल काम आती है और कभी नेटवर्क कट-कट जाता है। कमजोर नेटवर्क का साफ मतलब है, टाइगर देखने की अपनी इच्छा का बलि चढ़ जाना। टाइगर रिजर्व है, इसलिए सब अपनी आंख से टाइगर ही देखना चाहते हैं। कान से दहाड़ सुनना ही यहां की अंतिम इच्छा है। बाकी वन्यजीव दिखे तो सही। न दिखे तो कोई बात नहीं।
एक अदद टाइगर के लिए ही तो सैलानियों की जिंदगी जंगल- जंगल चक्कर काटती है। घूमती है। कभी इस हिस्से में, कभी उस हिस्से में। कॉल के नाम पर गाइड कभी सही राह ले जाते हैं। कभी मिसगाइड करते हैं। कभी आपस में इशारों में मसखरी भी। कॉल के नाम पर काल (समय) पास करना भी एक जरिया है। ऐसे ही एक अनुभव से गुजरने का हमें भी एक मौका हाल में ही मिला। 593 वर्ग मील क्षेत्रफल में फैले बांधवगढ़ टाइगर रिजर्व को सात जोन में बांटा गया है। इनमें तीन-ताला, मगधी और खितौली कोर जोन हैं और चार- धमोखर, पनपथा, मानपुर और पलझा बी-७ बफर जोन। कोर जोन में मगधी सबसे बड़ा है। मगधी जोन २४८ वर्ग मील में फैला है। ताला ८८ और खितौली ५५ वर्ग मील में बताया गया। कोर जोन में सिर्फ जंगल ही जंगल हैं। बीच में पड़ने वाले गांव खाली कराकर गांव वालों को दूसरी जगह बसा दिया गया। बफर में गांव जस के तस बचे-बसे हैं।
मध्य प्रदेश पर्यटन महकमे द्वारा अनुबंधित 221 नंबर वाहन (18 सीटर कैंटर) 10 पर्यटकों को लेकर सुबह 6:15 बजे मगधी जोन को लिए चला। हम और धर्मपत्नी डॉ. प्रज्ञा भी सवारों में एक। मगधी जोन की ओर सरपट दौड़ने शुरू हुए वाहन पर सवार गाइड बताने लगा- "हम करीब ५५ किमी. की सैर कराएंगे। टाइगर का दिखना और न दिखना आपके "लक"पर निर्भर। दिख जाए तो भाग्य आपका। न दिखे तो दुर्भाग्य भी आपका।"
अकूत वनसंपदा से संपृक्त बांधवगढ़ में नवंबर की सर्दी रंग दिखा रही थी। खुले शीशे वाली गाड़ी पर आती ठंडी हवा से कान सुरसराने शुरू हो चुके थे। नाक से पानी की सप्लाई बढ़ चुकी थी। पौ फटने के बाद सूरज की किरणें पेड़ों का सीना चीरकर धरा के स्पर्श को बेताब थीं। पक्षियों की आवाजें तरह-तरह के तराने सुनाना शुरू कर चुकी थीं। खाने की तलाश में चीतल-हिरण झुंड में दिखने भर से भोर के सूरज से ज़्यादा आशा की "लौ" का प्रकाश मन में जगमगा रहा था।
जंगलों में जंगल बांधवगढ़ में घूमने और टाइगर देखने की जिज्ञासा तन-मन दोनों पर पहले से ही सवार थी। कच्चे और पथरीले रास्ते आज इसलिए नहीं खटक रहे थे, क्योंकि लालसा कुछ और थी। लालसा ही सुख और दुख का कारण बनती है। एक तिराहे पर गाड़ी रुकी। जमीन पर मादा टाइगर और उसके बच्चों के पैरों के निशान नजर आए। पैरों के निशान से शेरावाली मां की सवारी की सोच करके मन श्रद्धा से भर गया। उम्मीदें हिलोरें मारने लगीं। सबने फोटो खींचे। हमने भी। उम्मीद बढ़ी कि टाइगर यहीं कहीं है। दिखेगा तो जरूर। इसी बीच एक गाड़ी और आकर रुकी। दूसरी.. तीसरी भी आ गई। गाइडों-ड्राइवरों में अपनी भाषा में कुछ बातें। कुछ इशारे। बताया गया-"मादा टाइगर के पंजे हैं। बच्चों के साथ इधर से उधर नाले की तरफ गई है।" यहां से गाड़ी उसी दिशा की ओर आगे बढ़ी ही थी कि अचानक जंगल में बदबदा (गाइडों द्वारा बांधवगढ़ जंगल के मगधी जोन के एक हिस्से का रखा गया नाम) के पास गाड़ी के पहिए थम गए। इंजन बंद। सबको चुप रहने का इशारा। माजरा जब तक किसी को समझ में आए, उसके पहले ही गाइड ने लो वॉल्यूम में बताया- "कॉल आ रही है"। जंगल की कॉल का मतलब भी यहीं समझ में आया। कुछ देर बाद एक नाउम्मीदी और निराशा के साथ गाड़ी से चल पड़ी, टाइगर दिखने के नए संभावित स्थानों-डावांडोल, सूखी तलाब, सूखी तालाब पटेली, मर्दाहबा-की तरफ। आपस में गाइड-ड्राइवर सूचनाएं-संभावनाएं साझा करते हुए गाड़ी कभी यहां-कभी वहां लेकर जंगल में चक्कर काटते रहे लेकिन टाइगर ठहरा मर्जी का मालिक। नहीं दिखा तो नहीं दिखा। सुबह के 9 बजते-बजते नाउम्मीदी निराशा में बदल चुकी थी। गाइड भारी मन को हल्का करने या यों कहें कि जंगल से वापसी की राह बनाने के लिए एक जुमला हवा में उछालता है-"किसी को हल्का तो नहीं होना है"। छोटे बच्चों के लिए यह " मन की बात" थी। बड़े तो दाबे रहने के अभ्यस्त ही हैं। कभी अपने, कभी अपनों, कभी-कभी देश-समाज के वास्ते भी.
बांधवगढ़ टाइगर रिजर्व के लिए पहला सुझाव शिखर और यशी की तरफ से ही आया। रीवा में अंजू दिवेदी और वंदना गुप्ता द्वारा इस प्रस्ताव को बल मिला और हम मैहर से चल पड़े बांधवगढ़ की ओर। वंदना गुप्ता के चिर-परिचित अमर एवं समीर शुक्ला का सन रिसोर्ट अपना ठिकाना बना। शुक्ला परिवार रीवा का प्रतिष्ठित है। इनके बाबा शंभूनाथ शुक्ल मध्य प्रदेश के बनने के पहले विंध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री हुआ करते थे। अमर शुक्ला दैनिक भास्कर रीवा-शहडोल संस्करण के मालिक भी हैं। उनसे मुलाकात भी बांधवगढ़ भ्रमण की एक प्रमुख यादगार बन गई। पत्रकारिता और राजनीति पर लंबी चर्चाएं लंबे वक्त तक मन-मस्तिष्क पर छाई तो रहेंगी ही। रिसोर्ट के सेवादार अशोक और सुरक्षा कर्मचारी मालगुजार केवट से मिलना भी सुखद और प्रीतिकर रहा।
हाथियों की आमद-जंगल की शामत
नर्मदा नदी के अंचल में बसा बांधवगढ़ टाइगर रिजर्व टाइगर्स की उत्पत्ति, सुरक्षा के लिए जाना-माना जाता है। का यह भी जाता है कि यही से टाइगर बंगाल तक पहुंचा। बंगाल की मशहूर टाइगर यही का हिस्सा रहे हैं। करीब 5 वर्ष पहले गायब हुए एक चर्चित टाइगर के चीन चले जाने के चर्चे यहां के लोगों में आम हैं। वन विभाग के मुताबिक, बांधवगढ़ के जंगलों में 124 टाइगर हैं। मगधी जोन में करीब 12। करीब चार-पांच साल पहले झारखंड उड़ीसा के करीब 40 हाथियों का झुंड छत्तीसगढ़ के रास्ते बांधवगढ़ के जंगलों में घुस आया। आज इनकी ताजा डेढ़ सौ के आसपास बताई जाती है। यह हाथी जंगलों के लिए तो खतरा हैं ही। बफर जोन में बसे गांवों और फसलों को भी नुकसान पहुंचाना शुरू कर चुके हैं। 2-3 ग्रामीण तो इन हाथियों के शिकार भी बन चुके हैं। स्थानीय लोग और वन्यजीव विशेषज्ञ इन्हें टाइगरो के लिए भी खतरा मानते हैं। कहा भी जाता है कि जिन जंगलों में हाथी होते हैं वहां टाइगर रहना पसंद नहीं करते। इसलिए भविष्य में टाइगर के बांधवगढ़ के जंगलों से पलायन का खतरा भी देखा जा रहा है। विशेषज्ञ मानते हैं कि जंगलों से हाथियों को खदेड़ना या भगाना बहुत जरूरी है।
वाहन में कैद जिंदगी
आप भले आजाद भारत में अपने मन से जीने के आदी हों लेकिन बांधवगढ़ टाइगर रिजर्व में आपकी आजादी ख़त्म। यहां आप अपने वाहन के कैदी होते हैं। उतरने की इजाजत नहीं। शू-शू करने के लिए भी नहीं। बोलने की इजाजत भी वन्यजीव के सामने दिखने पर छिन जाती है। आप अपने घर नगर में गंदगी तो फैला सकते हैं लेकिन बांधवगढ़ में यह मुमकिन नहीं। गाइड और ड्राइवर ही आपको टाफी का छिलका/रेपर फेंकने तक से रोक-टोक देंगे। यहां आजाद हैं वन्यजीव और समझदार माने या कहे जाने वाले मानव जंगल में रहने का कैद का जीवन काटता है।
बांधवगढ़ इलाके का जीवन है टाइगर
बांधवगढ़ गांव का नाम ताला लगाने से पूरा होता है। करीब ढाई हजार की आबादी वाली इस ग्राम पंचायत के बाशिंदों के लिए बांधवगढ़ टाइगर रिजर्व रोजगार के रास्ते भी खोले हुए है। टाइगर इस इलाके का जीवन है। इस छोटे से गांव में व्यवसायिक गतिविधियां सुबह 5:00 बजे से शुरू हो जाती है क्योंकि जंगल भ्रमण का पहला फेरा 5:30 बजे से शुरू हो जाता है। दूसरी ट्रिप दोपहर 2:30 बजे रवाना होती है। आप भरोसा नहीं करेंगे कि सड़क पर बमुश्किल आधा किमी लंबाई में बसे बांधवगढ़ में 100 से अधिक रिसोर्ट हैं। अधिकतर के नाम में टाइगर किसी न किसी रूप से, आगे या पीछे जुड़ा हुआ है इन रिसोर्ट में बड़ी संख्या में स्थानीय लोग ही काम पाए हुए हैं। पर्यटकों को जंगल घुमाने के लिए 221 जिप्सी और कैंटर वन विभाग से अनुबंधित है। अच्छा यह है कि 5 किलोमीटर के दायरे में पड़ने वाले गांवों के लोगों के वाहन ही वन विभाग या पर्यटन विभाग जंगल भ्रमण के लिए अनुबंधित करता है। इन जिप्सियों के मालिकों, चालकों और गाइडों को इतनी ही संख्या में रोजगार मिला हुआ है। कोर जोन से विस्थापित हुए परिवारों के 40 युवाओं को रोजगार के लिए गाइड का नया काम भी वन विभाग ने सौंपा है। महाराजा रीवा पुष्पराज सिंह ने भी अपनी भारी-भरकम कोठी में महाराजा कोठी रिसोर्ट खोला था लेकिन राज परिवारों को यह छोटे-मोटे व्यवसाय कैसे भायें? सो, महाराजा कोठी रिसॉर्ट आजकल बंद है पर बोर्ड लगा हुआ है। बाहर से आकर भी कई लोगों ने दुकानें खोल रखी हैं। एक कोलकाता का परिवार है जो करीब 12 वर्ष पहले यहां घूमने के मकसद से ही आया था।
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