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उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव पर लखीमपुर कांड का असर
डॉ संजय कुमार ,
Oct 10, 2021, 11:50 am IST
Keywords: Lakhimpur Kheri incident Indian democracy UP election उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव लखीमपुर कांड भारतीय लोकतंत्र
![]() यदि पूरे घटनाक्रम में रचित षड्यांत्रिक पक्ष को छोड़ भी दिया जाय तो भी भारतीय लोकतंत्र एवं संवैधानिक व्यवस्था के समक्ष एक बहुत बड़ा सवाल खड़ा हो हीं गया है. अब सवाल उत्तर प्रदेश के चुनावी हार जीत से ज्यादा लोकतंत्र के 'औचित्यपूर्ण अस्तित्व' से ज्यादा जुड़ गया है. क्या सत्ता का चरित्र इतना मदान्ध और स्वार्थलोलुप हो सकता है, जो सत्ता के नशे में चूर अपने ही नागरिकों को कुचलने पर आमादा है. घटना घटने के सातवें दिन 9 अक्टूबर को मुख्य आरोपी मंत्रीपुत्र को गिरफ्तार किया गया है. इससे पहले 5 अक्टूबर को प्रधानमंत्री मोदी लखनऊ आये, परन्तु एक भी शब्द मारे गए लोगों की संवेदना में नहीं कहा. आशा तो प्रधान सेवक से यही थी कि वे स्वयं घटनास्थल का दौरा कर लोगों के दुःख दर्द पर मरहम लगाते. छोटी से छोटी बातों पर ट्वीट करने वाले और 'मन की बात' कहने वाले प्रधानमंत्री ऐसे वक्त पर ऐसा क्यों करते हैं? कहना बड़ा मुश्किल है. परन्तु, ठीक इसी प्रकार का असंवेदनशील रवैया उन्होंने कोरोना प्रथम लहर में लाखों प्रवासी मजदूरों द्वारा हजारों मील की विवशतापूर्ण पदयात्रा और इससे उपजे भूख, लाचारी, बेरोजगारी और भाग्य भरोसे अपने को छोड़ दिए जाने पर भी उन्होंने 26 अप्रैल, 2020 के अपने 38 मिनट के भाषण में एक भी शब्द इन लाचार एवं भाग्यहंता लोगों के लिए नहीं कहा. क्या भारत में 'कानून के शासन' की धज्जियां तो नहीं उड़ रहीं हैं? ऐसा सिर्फ इस केस में नहीं वरन तमाम घटनाओं में देखने को मिल रहा है. एक ऐसा देश जहां एक छोटा सा ट्वीट भी व्यक्ति को तत्काल गिरफ्तारी के साथ साथ 'देशद्रोही' के तमगे में फिट करने के लिए पर्याप्त है, वहां कानून का यह दूसरा रूप सत्ता और इससे जुड़े अपार शक्ति के न सिर्फ औचित्य पर वरन पूरी संवैधानिक व्यवस्था पर भी प्रश्नचिन्ह खड़ा कर रहा है. अंग्रेजी शासनकाल में भी अनेक आन्दोलन हुए, परन्तु एक मात्र जालियांवाला कांड को छोड़ और कोई ऐसी जधन्यतम घटना नहीं घटी जिसमें कानून से परे जाकर सार्वजनिक रूप से नागरिकों की हत्या का प्रयास किया गया हो. फिर भी अंग्रेज विदेशी थे और येन केन प्रकारेण अपनी सत्ता को बनाये रखने हेतु बहुत जुल्म किये. परन्तु अपने ही लोगों के द्वारा बनाई गयी सरकार के नुमाइंदे इस हद तक जायेंगे, कल्पना से परे लगती है. कोढ़ में खाज यह कि वर्ष 1861 में अंग्रेजों द्वारा बनाये गए पुलिसिया कानून लगभग जस के तस उसी रूप में लागू हैं, जिसका वास्ता नागरिक अधिकारों की सुरक्षा से ज्यादा सत्ता पक्ष के हितों की रक्षा करना ज्यादा महत्त्वपूर्ण लगता है. क्या प्रदर्शन करना, धरना देना, काला झंडा दिखाना अपराध है? संवैधानिक स्वर से यदि ये मौलिक अधिकार नहीं है, तब भी लोकतांत्रिक एवं मानव अधिकार तो है हीं. गांधी जी ने इन्हीं लोकतांत्रिक अधिकारों के सहारे विदेशी शक्तियों से लोहा लिया, परन्तु आज अपने ही देश में अपने ही सरकार के विरुद्ध ऐसा करना धीरे-धीरे अपराध के श्रेणी में शामिल होता जा रहा है. और पुलिस भी इसी हिसाब से कारवाई करने लगी है. अब सवाल सिर्फ अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का ही नहीं है, वरन धीरे-धीरे लगातार क्षीण होते जा रहे लोकतांत्रिक अधिकारों का है. लोकतंत्र की मूल आत्मा 'असहमति के स्वर' और 'वैचारिक मत-भिन्नता' में बसती है. परन्तु 'नवीन आई. टी. एक्ट' से लेकर 'पेगासस जासूसी कांड' एवं 'देशद्रोह के कानून' तक लगातार नागरिकों के लोकतांत्रिक अधिकारों पर कुठाराघात किया जा रहा है. पिछले 10 महीने से ज्यादा समय से किसान तीन कृषि कानूनों के खिलाफ आंदोलनरत हैं. इतने लम्बे समय तक आन्दोलन का चलना हीं अपने आप में लोकतांत्रिक अधिकारों के पतन का सबूत है. फिर भी केंद्र की सरकार इसका कोई संज्ञान लेती दिख नहीं रही है. सवाल यह उठता है कि जो वर्ग इस क़ानून से प्रभावित हो रहा है, उसकी बात को अनसुना क्यों किया जा रहा है? इसी उत्तर प्रदेश में 27 अगस्त को जबरिया रिटायर्ड आई.पी.एस. और आई.जी रैंक के अधिकारी रहे अमिताभ ठाकुर को बिना एफ.आई.आर के अपने घर से जबरदस्ती घसीटकर थाने ले जाया जाता है और जेल में बंद कर दिया जाता है. अभी 27 सितम्बर को मुख्यमंत्री के शहर गोरखपुर में व्यापारी मनीष गुप्ता को एक होटल में पुलिस वाले पूछताछ के नाम पर उसकी हत्या कर देते हैं. परन्तु अभी तक किसी पुलिस वाले की कोई गिरफ्तारी नहीं हुई है. उपरोक्त सभी घटनाएं क़ानून के शासन को नकारती हुई और सत्ता पक्ष के हित-संवर्धन के हिसाब से काम करती दिख रही हैं. गांधी के देश में जिस प्रकार से कानून की धज्जियां उड़ाई जा रही हैं, वह हमारी सम्पूर्ण लोकतात्रिक व्यवस्था पर गहरे प्रश्न खड़ा कर रहा है. गांधी ने भी अंग्रेजों के खिलाफ धरना दिया, अनशन किया, भूख हड़ताल की. परन्तु क़ानून के दायरे में और हिंसा से दूर रहकर किया. जब जरूरत पड़ी तो कानून भी तोड़ा. परन्तु कभी भी कानून अपने हाथ में नहीं लिया. और यही विरासत हमने अपने संविधान में भी बनाये रखी है. परन्तु एक सिरफिरे गोडसे की गोली ने अहिंसा के पुजारी का हिंसात्मक अंत कर दिया. 1948 वाला तर्क आज फिर से गढ़ा जा रहा है. भुक्तभोगी को ही हिंसा का जिम्मेदार ठहरा दिया जाय, जैसा कि हाथरस और उन्नाव कांडों के दौरान भी किया गया. आज हमारी सम्पूर्ण वैविध्यपूर्ण विरासत बेहद गहरे संकट के दौर से गुजर रही है. गांधी की तुलना राखी सावंत से होने लगी है और गोडसे की तुलना ईश्वर से. आखिर, हम साबित क्या करना चाहते हैं? क्या यह कि 'मनुष्य की मूल प्रवृति हिंसात्मक है, न कि अहिंसात्मक'. हॉब्स ने भी मनुष्य की मूल प्रवृति झगड़ालू ही माना है. तो क्या नागरिक समाज की रचना में हिंसा के बिना काम नहीं चल सकता है? तो क्या भविष्यगत समाज की संरचना हिंसात्मक तत्वों पर आधारित होगी? तो क्या गांधी भारतीय समाज के लिए मूलभूत प्रस्थान बिंदु नहीं रह जाते हैं? नए समाज की रचना करने हेतु अफ़ग़ानिस्तान और मध्य पश्चिम के देशों में आज यही हो रहा है. तो क्या भविष्य का भारत भी इसी प्रकार से बनेगा? सवाल बहुत सारे हैं. राजनीति के मूल प्रश्नों में एक प्रश्न यह भी है कि समाज में व्याप्त विभिन्न विरोधी विचारधाराओं के बीच कैसे समन्वय स्थापित किया जाए? परन्तु यहां तो धारा उल्टी बह रही है. समन्वय की जगह खाई और भी चौड़ी हो रही है. तो क्या राजनीति अपने उद्देश्य में विफल साबित हो रही है? तो क्या राजनीति और सत्ता के बीच के संबंधों को पुनर्निर्धारण करने का समय आ गया है? क्या लोकतंत्र अपनी उंचाई से अब नीचे की ओर ढलान पर है? तो क्या राज्य का कार्य सिर्फ सत्ता पक्ष के हितों का संवर्धन करना हीं रह गया है? तो फिर जनता और नागरिक क्या करे? उनके कोई अधिकार बचे रहेंगे अथवा नहीं? तो फिर एकाधिकारवाद और वर्तमान लोकतंत्र में क्या अंतर रह जाता है? तकनीकी दक्षता और सत्तालोलुपता के विचित्र मानवीय संयोग ने ये सारे सवाल खड़े किये हैं. तो क्या 'विज्ञान के उन्नति ने मनुष्य को पथभ्रष्ट कर दिया है?' चुकिं संवैधानिक लोकतंत्र आकड़ों और बहुमत के खेल पर टिका होता है तो सारा खेल आंकड़े और बहुमत जुटाने में ही होता है. जब तक कोई सार्थक विकल्प सामने नहीं आता है तब तक तो यह खेल इसी प्रकार से खेला जाएगा. चारित्रिक बदलाव की जगह सतही बदलाव को हीं सच मान लिया गया है. तो क्या लखीमपुर की जघन्यतम घटना का कोई युगांतकारी प्रभाव आगामी विधानसभा चुनाव 2022 पर पड़ने जा रहा है अथवा नहीं? प्रत्यक्षतः घटना को लेकर लोगों में भारी असंतोष और रोष है, परन्तु चुनावी गणित और राजनीति में इस हत्याकांड का प्रभाव लखीमपुर और इससे जुड़े दो से तीन जिलों के मतदाताओं पर जरूर पड़ेगा. परन्तु इस कांड के बरक्स यदि किसान आन्दोलन और लम्बा खींचता है तो भाजपा और योगी सरकार को नुकसान होना तय है. वहीं दूसरी ओर विपक्षी दलों को चुनाव लड़ने हेतु संजीवनी बूटी तो अवश्य प्राप्त हो गई है. पर यह घटना चुनाव में हार-जीत से बड़ी, नेताओं के मूल चरित्र और जनता के अधिकारों की भी है. #डॉ संजय कुमार एसो. प्रोफेसर एवं चुनाव विश्लेषक सी.एस.एस.पी, कानपुर sanjaykumar.lmp@gmail.com sanjaykumarydc@gmail.com 8858378872, 7007187681 |
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