उत्तर प्रदेश चुनाव 2022: जातिगत पहचान और जनगणना के बीच
डॉ संजय कुमार ,
Aug 19, 2021, 11:15 am IST
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127वें संविधान संशोधन विधेयक के द्वारा राज्यों को पिछड़े वर्गों के पहचान हेतु पुनः अधिकार दिए जाने से एक बार फिर से बहस इस बात को लेकर छिड़ गई है कि 2021 की जनगणना जातिगत आधार पर होनी चाहिए, जिससे पूरे देश को यह पता चल सके कि किस जाति की आबादी कितनी है. इसके पक्ष और विपक्ष में तीर और तर्कों के बाण विभिन्न राजनीतिक दलों के द्वारा चलाए जा रहे है. पहला सवाल तो यही उठता है कि उपरोक्त विधेयक का क्या अर्थ होगा यदि जाति की वास्तविक संख्या हीं ज्ञात न हो? सही आंकड़ों के आधार पर संबंधित जातियों के सन्दर्भ में उचित क़ानून बनाए जा सकते हैं. संविधान की धारा 15(4), 15(5) और 16(4) राज्यों को यह अधिकार देती है कि वे ‘सामाजिक एवं शैक्षणिक पिछड़ों’ की पहचान एवं सूची बना बना सके. इसी को आधार बनाते हुए केंद्र और राज्य सरकारें अपनी - अपनी सूची तैयार करती रही हैं. परन्तु मई 2021 में सुप्रीम कोर्ट ने मराठा आरक्षण की सुनवाई में ‘संविधान संशोधन विधेयक 102’ को सही ठहराते हुए आदेश पारित किया कि राष्ट्रपति ‘राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग’ के संस्तुतियों के आधार पर राज्य सूची में पिछड़े वर्गों को शामिल करेगा. 2018 के संविधान संशोधन विधेयक 102 के द्वारा संविधान में धारा 338ब (राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग की संरचना, कार्य एवं दायित्व) और 342अ (राष्ट्रपति राज्यपाल की मदद से पिछड़े वर्गों की पहचान एवं संस्तुति करेगा) जोड़ा गया. ऐसा होने पर राज्य सूची अंतर्गत लगभग 671 पिछड़ी जातियों को आरक्षण की सुविधा से इसलिए वंचित होना पड़ता कि उनके लिए कोई राज्य सूची हीं नहीं होती. इसलिए 127वें संविधान संशोधन सम्बन्धी बिल लाया गया और संसद ने एकमत स्वर से इसे पास भी कर दिया. राष्ट्रपति के हस्ताक्षर के पश्चात् पुनः पुराना क़ानून प्रभावी हो जाएगा.
पिछड़े वर्ग की पहचान और संख्या के बीच उपरोक्त विधेयक को समझना समीचीन होगा. साथ हीं पांच राज्यों में आसन्न चुनावों के मद्देनजर विशेषकर उत्तर प्रदेश के चुनाव के दृष्टिगत उपरोक्त क़ानून का जबरदस्त महत्व है. उत्तर प्रदेश का चुनाव निःसंदेह 2024 लोकसभा चुनाव के सन्दर्भ में सेमीफाइनल हीं कहा जाएगा, जहाँ एक ओर धार्मिक गोलबंदी के सारे तीर चलाये जा रहे हैं, तो वहीँ दूसरी ओर, जातिगत ध्रुवीकरण का कोई भी मौका नहीं छोड़ा जा रहा है. विपक्ष के लगभग सारे दल और स्वयं भाजपा की सहयोगी पार्टियाँ एवं पिछड़े नेता जाति आधारित जनगणना की मांग कर रहे हैं. इसके अपने राजनीतिक निहितार्थ हैं. संसद में सरकार द्वारा लिखित रूप से इस आशय का वक्तव्य जारी कर कहा गया है कि 2021 की जनगणना जाति आधारित नहीं होगी. 1931 के पश्चात् भारत में कोई भी जनगणना जाति को लेकर नहीं की गई है सिवाय अनुसूचित जाति, जनजाति एवं अल्पसंख्यकों को छोड़कर. अखिलेश यादव ने यह कहा है कि सत्ता में आने पर वो उत्तर प्रदेश में जातिगत जनगणना करवाएंगे. इसी प्रकार की भाषा अन्य विपक्षी दल भी कर रहे हैं. सवाल यह उठता है कि क्या राज्य सरकारें जातिगत गणना कर सकती हैं अथवा क्या उनके अधिकार क्षेत्र में ऐसा करना संभव है?
‘जनगणना एक्ट 1948’ एवं ‘जनगणना रूल्स 1990 यथासंशोधित 1994’ के द्वारा ऐसा करना संभव नहीं है. हां, इस सम्बन्ध में राज्य सरकारें केवल सर्वे कर सकती हैं, जिसके आधार पर विभिन्न जाति समूहों के संख्या का केवल आकलन हीं किया जा सकता है, कोई निश्चित संख्या नहीं. तब सवाल यह उठता है कि आखिर अखिलेश यादव ऐसा क्यों कह रहे हैं? इसे सीधे सीधे दवाब की राजनीति हीं कहा जा सकता है. आगामी विधानसभा चुनाव 2022 में पिछड़े वर्गों के मतदाताओं पर हीं हार और जीत टिकी हुई है. स्वाभाविक हीं है कि कोई भी दल पिछड़े वोटरों को लुभाने का कोई मौका नहीं छोड़ना चाहता है. तो क्या केंद्र सरकार वर्षों पुरानी मांग को 2021 की जनगणना से लागू कर देगी? इस बात के भी कयास लगाए जा रहे हैं. सवाल यह उठता है कि आज तक कोई भी सरकार जातीय जनगणना कराने से क्यों पीछे हटती रही है? क्या ऐसा करने से भारतीय समाज में भूचाल आ जाएगा अथवा निश्चित संख्या प्राप्त हो जाने पर पिछड़े वर्ग अपनी संख्या के अनुपात में आरक्षण की मांग करने लगेंगी तथा आरक्षण के पूरे ताने बाने को फिर से परिभाषित किया जाएगा. जनसँख्या के अनुपात में आरक्षण नहीं मिलने का दावा लगभग सभी जातियां कर रही हैं. तो क्यों न इस उहापोह एवं भ्रम को समाप्त करके सरकार को जातीय जनगणना हेतु मानसिक रूप से तैयार हो जाना चाहिए? इसके विपक्ष में यह तर्क दिया जा रहा है कि इससे भारतीय समाज में बिखराव का दौर शुरू हो जाएगा. परन्तु जिस समाज का सच जातिगत आग्रहों और दुराग्रहों पर टिका है, वहां इन सारे प्रश्नों का जवाब जातीय जनगणना हीं है. जनगणना के पश्चात् तामाम जातियों के अपने अपने दावों का जवाब भी मिल जाएगा और नए सिरे से आरक्षण सम्बन्धी नीतियों की समीक्षा और यथोचित परिवर्तन हेतु मार्ग भी प्रशस्त हो जाएगा. ताजा घटनाक्रम के अनुसार उत्तर प्रदेश में निषाद की उपजातियों सहित 17 अति पिछड़ी जातियों को अनुसूचित जाति में शामिल करने की योजना पर योगी सरकार अपना मन बना चुकी है. इस प्रकार के कवायद सिर्फ राजनीतिक नफे नुकसान को ध्यान में रखकर हीं किये जाते है, न कि जाति विशेष के उत्थान से. दीर्घकालिक नीतियों के हिसाब से यह सिर्फ टीस हीं पैदा करेगा. एक दावे के अनुसार निषाद की उपजातियों सहित उत्तर प्रदेश की जनसंख्या में लगभग 13 प्रतिशत हिस्सेदारी है. परन्तु निश्चित संख्या कितनी है, यह तो जनगणना के पश्चात हीं पता चल पायेगा. इसी प्रकार के दावे लगभग सभी जातियां कर रहीं हैं. सामाजिक न्याय के दृष्टिकोण से भी ऐसा करना समीचीन जान पड़ता है. भारतीय समाज जाति के खांचे में बंटा हुआ है. यह एक सार्वभौमिक सच्चाई है. जाति की पूरी अवधारणा हीं जन्म पर आधारित है जिसमे विकल्प के लिए कोई स्थान नहीं है. ऐसी स्थिति में तो जातीय जनगणना का तर्क बिलकुल सही जान पड़ता है; भले हीं यह मांग राजनीति से हीं प्रेरित क्यों न हो? यदि राजनीति से प्रेरित होकर जातियों के समूह में परिवर्तन हो सकता है तो जनगणना भी हो सकती है. सच तो यह है कि ऐसा करने से आरक्षण सम्बन्धी सारे प्रश्नों का उत्तर एक झटके में प्राप्त हो जाएगा. उल्लेखनीय है कि 2011 में यू.पी.ए सरकार के समय की गई जनगणना में जाति सम्बन्धी प्रश्न थे, परन्तु आंकड़ों की गड़बड़ी के कारण उसे प्रकाशित नहीं किया गया, या यों कहें कि जातीय आकड़ों को छुपा दिया गया. उत्तर प्रदेश का आगामी चुनाव आने वाले समय में इस मुद्दे से बहुत ज्यादा प्रभावित होने वाला है. विकास और समावेशी राजनीति के जिस एजेंडे के साथ मोदी सरकार की यात्रा प्रारंभ हुई थी, वो बार बार जातिगत गणित में उलझ जाता है. उत्तर प्रदेश में यह गणित कुछ ज्यादा हीं उलझा हुआ है. अपने पिछले आर्टिकल में मैंने इस पर विशद विवेचना की है. जिसका दुहराव करना उचित नहीं है. इच्छुक पाठक कृपया 3 अगस्त के आलेख का अवलोकन करें.
मोदी सरकार ने 14 अगस्त को ‘विभाजन विभीषिका दिवस’ के तौर पर प्रत्येक वर्ष मनाने का फैसला लेकर एक बार पुनः राष्ट्रवाद का मुद्दा छेड़ दिया है. इतिहास के दृष्टिकोण से ऐसा करना कहाँ तक सही है, कहना कठिन है. परन्तु सवाल तो खड़ा हो हीं गया है. और फिर इस सवाल के साथ अन्य बहुत सारे सवाल भी खड़े हो जायेंगे. कहा जाता है कि इतिहास और अतीत का घाव कभी भरता नही है, और इसकी टीस हमेशा बनी रहती है. तो क्या मोदी इस घाव को पुनः हरा कर नया इतिहास लिखना चाहते हैं? इसी सवाल के साथ ‘इतिहास लेखन’ और ‘इतिहास पाठ’ का भी प्रश्न खड़ा हो जाता है. तो क्या भारत के इतिहास का पुनर्लेखन किया जाएगा? या अपनी सुविधानुसार इतिहास पाठ के उपसंहार के तौर पर नई व्याख्या गढ़ी जाएगी? वैसे तथ्यात्मक दृष्टिकोण से 14 अगस्त पाकिस्तान के जन्म से सम्बंधित है, और 17 अगस्त को भारत और पाकिस्तान के बीच ‘रेडक्लिफ लाइन’ खींचकर विभाजन पर अंतिम मुहर लगाई गई थी. विभाजन का सवाल खड़ा करके भाजपा न सिर्फ उत्तर प्रदेश में चुनावी लाभ के जरिये इस मुद्दे पर जनमत को टटोलना चाहती है, वरन एक लम्बे बहस की जमीन तैयार करके नेहरु और गांधी को खारिज कर गोडसे की विचारधारा का पुनर्जीवित करना चाहती है. जो भी हो, इस मुद्दे पर एक सार्थक और दीर्घकालिक बहस की जरूरत है. आरोपित विचारधारा से हमेशा बेहतर होती है अर्जित विचारधारा, चाहे वह कितना भी एकपक्षीय क्यों न हो. पर एक सवाल अभी भी अनुत्तरित हीं है. यह बहस और विमर्श आखिर होगा कहां? नागरिक समाज, शैक्षणिक संस्थाएं, जनप्रतिनिधि सभा या राजनीतिक दलों के भीतर. इसके लिए एक खुले लोकतांत्रिक व्यवस्था का होना पहली शर्त है. तत्पश्चात आलोचनात्मक वैचारिकी की. क्या इसके लिए हम तैयार हैं. यदि नहीं, तो आरोपित विचारधारा से तो हम किसी सही निष्कर्ष पर नहीं पहुंचेंगें.
रही सही कसर अफगानिस्तान में अमेरिका द्वारा खाली किये गए स्थान को जिस प्रकार से तालिबानियों ने अप्रत्याशित तरीके से 15 दिनों के अन्दर कब्ज़ा कर लिया है, उसकी गूँज बहुत लम्बे समय तक सुनाई देने वाली है. तत्काल भारत के ऊपर इसका कोई प्रभाव लक्षित नहीं हो रहा है, परन्तु भारत की विदेश एवं घरेलु नीति में जबरदस्त परिवर्तन होना अवश्यम्भावी है. अभी तक भारत ने तालिबानियों के सत्ता अधिग्रहण के ऊपर कोई आधिकारिक प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं किया है. परन्तु चीन ने जिस प्रकार से इसे एक अवसर के रूप में देखते हुए तालिबानियों से संपर्क स्थापित किया है, यह उसके दीर्घकालिक नीतियों का परिणाम है. वन बेल्ट वन रोड परियोजना में अफगानिस्तान का हिस्सा भी शामिल होता है. कश्मीर से महज 400 किलोमीटर की दूरी पर तालिबान आ पहुंचे हैं.
आने वाले कुछ समय में जाति, धर्म और राष्ट्रवाद का कॉकटेल यदि मतदाताओं के समक्ष परोसा जाता है तो मुझे कोई अचरज नहीं होगा. मतदाता इन मुद्दों में से किसे प्राथमिकता देता है, वह बेहद महत्वपूर्ण हो जाता है उत्तर प्रदेश के आगामी चुनाव के सन्दर्भ में. क्या महंगाई, किसान आन्दोलन और कोरोना ज्यादा प्रभावशाली साबित होते हैं अथवा नवसृजित मुद्दे? कोरोना की तीसरी संभावित लहर से लड़ने हेतु उत्तर प्रदेश के लगभग 2 लाख गावों में भाजपा अपने कार्यकर्ताओं को कोरोना योद्धा के तौर पर भेजने की तैयारी में है. जो कोरोना से लड़ने के साथ - साथ चुनावी प्रशिक्षण का भी कार्य करेगी. निःसंदेह एक निश्चित लक्ष्य योजना के साथ भाजपा अपने चुनावी अभियान में जुटी है. वहीँ दूसरी ओर विपक्षी दल विशेषकर सपा अभी भी अपने पक्ष में किसी दैवीय और सत्ता के विरुद्ध गर्भित नकारात्मक वोट की हीं आस में बैठे है.
#डॉ संजय कुमार एसो. प्रोफेसर एवं चुनाव विश्लेषक सी.एस.एस.पी, कानपुर sanjaykumar.lmp@gmail.com sanjaykumarydc@gmail.com 8858378872, 7007187681 |
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