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उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव 2022: भारतीय राजनीति के तूफानी भंवर में
डॉ संजय कुमार ,
Aug 02, 2021, 9:54 am IST
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![]() 19 जुलाई को मानसून सत्र के प्रथम दिवस हीं संसद में जबरदस्त हंगामा हुआ और सदन की कार्यवाही को बार बार स्थगित करना पडा. आज 3 अगस्त तक संसद की स्थिति वही बनी हुई है. इस बीच ममता बनर्जी ने 14 विपक्षी दलों के नेताओं से दिल्ली में मिलकर माहौल को और भी गर्मा दिया है. विपक्षी दलों ने एक साथ लामबंद होकर प्रधानमंत्री मोदी तथा गृहमंत्री अमित शाह के ऊपर इस जासूसी का आरोप लगाया, जिसे सरकार ने एक सिरे से नकार दिया तथा प्रत्युत्तर में विपक्ष के ऊपर संसदीय मर्यादा का अनुपालन न करने का ठीकरा फोड़ा. पेगासस को लेकर विश्व के अन्य पांच देशों में जांच भी प्रारम्भ हो गई है. परन्तु भारत में विपक्ष के इस कथन का सरकार अभी तक जवाब नहीं दे पाई है कि पेगासस जासूसी कांड में उसका कोई हाथ है अथवा नहीं. उल्लेखनीय है कि पेगासस स्पाईवेयर इजराइल की एन.एस.ओ ग्रुप ने विकसित किया है, जिसका मूल उद्देश्य विश्व की सरकारों को उनके आतंकवाद विरोधी मुहिम में पुख्ता जानकारी हेतु एक सॉफ्टवेयर टूल प्रदान करना है. ग्रुप ने साफ़ शब्दों में कहा है कि ये सॉफ्टवेयर किसी निजी व्यक्ति को नहीं बेचा जा सकता है. कुछ कुछ यह घटना जून 1972 में अमेरिका में राष्ट्रपति निक्सन के समय हुए ‘वाटरगेट कांड’ जैसा होता जा रहा है. स्वाभाविक ही है कि उत्तर प्रदेश का चुनाव एक परिस्थितिजन्य मुद्दे में फंस गया है, जिसका अधिकाधिक लाभ विपक्षी पार्टियाँ उठाना चाहेंगीं. साम्प्रदायिक गोलबंदी के अकाट्य तीरों का जवाब न होने पर विपक्षी दल अन्य मुद्दों की तलाश में लगे हुए हैं, जो पेगासस के रूप में अचानक हीं उन्हें प्राप्त हो गया है. परन्तु चुनाव में यह कितना प्रभावी भूमिका निभा पायेगा? इसमें संदेह है. आगामी चुनाव हेतु महंगाई, कोरोना, साम्प्रदायिकता एवं किसान आन्दोलन की चौकड़ी हीं सबसे ज्यादा मतदाताओं को प्रभावित करने जा रही है. परन्तु शायद चुनाव की संदिग्ध सफलता के कारण प्रधानमंत्री मोदी ने पुनः ओबीसी कार्ड खेल दिया है, जिसका प्रभाव निश्चित हीं चुनाव पर पडेगा. संसद में उन्होंने यह बयान दिया है कि मेडिकल एवं दंत चिकित्सा कोर्स में 27 प्रतिशत ओबीसी के अलावा 10 प्रतिशत गरीब सवर्णों के लिए आरक्षण तत्काल प्रभाव से दिया जाएगा. इसका अर्थ यह हुआ कि भाजपा धार्मिक गोलबंदी के साथ साथ जातिगत गोलबंदी की तैयारी में भी लग गयी है. इसका जवाब विपक्षी दलों में बसपा द्वारा ‘ब्राहमण सम्मलेन’ का प्रारम्भ अयोध्या से करके एवं सपा द्वारा ‘प्रत्येक जनपद में परशुराम प्रतिमा’ की स्थापना-संकल्प करके कर दी गयी है. एक अन्य रोचक राजनीतिक घटनाक्रम में जयंत चौधरी की अगुवाई वाले राष्ट्रीय लोकदल ने ‘भाईचारा सम्मलेन’ आयोजित करने की घोषणा करके कर दी है, जिसका असर व्यापक रूप से पश्चिम उत्तर प्रदेश के लगभग पचास से साठ विधानसभाओं में पड़ सकता है. विदित हो कि पश्चिम उत्तर प्रदेश में ‘जाट एवं मुस्लिम’ साझा रूप में लगभग प्रत्येक चुनाव में निर्णायक साबित होते रहे हैं. परंपरागत रूप से यही इस दल के बेस वोट बैंक भी रहे हैं, जो 2013 में सपा काल के दौरान मुज़फ्फरनगर एवं आसपास हुए सांप्रदायिक दंगे के दौरान छिन्न-भिन्न हो गया था. इसका खामियाजा क्रमशः 2014 एवं 2017 के लोकसभा एवं विधानसभा चुनावों में रालोद को उठाना पड़ा. वर्तमान विधानसभा में इसका सिर्फ एक प्रतिनिधि है. खोए हुए जनाधार को पुनः प्राप्त करने हेतु इसने सबसे पहले सपा के साथ चुनाव-पूर्व गठबंधन किया तथा जारी किसान आन्दोलन के पश्चात् पैदा हुए सहानुभूति लहर ने इस दल को थोड़ा राहत और मजबूती प्रदान करने का काम किया है, जिसका लाभ आगामी चुनाव में इसे मिलता हुआ दिख रहा है. पश्चिम उत्तर प्रदेश की एक चुनावी विशेषता और रही है, जो क्रमशः सपा/रालोद और बसपा के लिए हमेशा लाभकारी रहा है. ‘जाट और जाटव’ ने कभी भी सम्मिलित होकर किसी एक दल को वोट नहीं दिया है. इस बार के रेस में बसपा के अपेक्षाकृत प्रारम्भिक पिछड़न के कारण उत्पन्न हुए राजनीतिक उहापोह को किस प्रकार भरा जाएगा? क्या जाटव मतों के सहारे भाजपा पश्चिम उत्तर प्रदेश में सपा/रालोद गठबंधन को चुनौती दे पाएगा अथवा 2007 के अपने सोशल इंजीनियरिंग फार्मूला के पुनरोद्धार के सहारे मायावती पुनः असरदार हो पाएंगीं. वैसे भी मायावती अपने चौकाने वाले निर्णय के लिए हमेशा से जानी जाती रहीं हैं. ब्राह्मण समाज को पुनः जिस प्रकार से अपने फार्मूला के आधार पर आकर्षित किया जा रहा है, वह कोई नया गुल खिला दे तो कोई आश्चर्य की बात नहीं होगी; बशर्ते कि ब्राहमण समाज इस बात को लेकर आश्वस्त हो जाए कि भाजपा सत्ता में पुनः नहीं आ पा रही है. अन्यथा इस बार भी यह समाज भाजपा के साथ हीं जाएगा. अभी ठोस रूप में किसी निष्कर्ष पर पहुंचना उचित नहीं होगा. तस्वीर चुनाव के सन्निकट हीं साफ़ हो पायेगा. फिर भी यदि ऐसा होता है तो लगभग 21 प्रतिशत दलित जनसंख्या के साथ 7 से 8 प्रतिशत ब्राहमण समाज पुनः बसपा को एक अनपेक्षित परिणाम दिला देने में सक्षम है, क्योंकि तब लड़ाई त्रिकोणीय हो जाएगा. और यदि कुछ अन्य गैर यादव पिछड़ी जातियां भी इससे जुड़ जाती हैं तब तो कुछ भी हो सकता है. ऐसी स्थिति में भाजपा, सपा और बसपा में से कोई भी सत्ता तक पहुँच सकता है. कृपया निम्न तालिकाओं पर दृष्टिपात करें. तालिका – 1 उत्तर प्रदेश में वर्गीय जनसँख्या का आधिकारिक एवं अनुमानित प्रतिशत, 2011
तालिकाः2 उत्तर प्रदेश की जनसँख्या में विभिन्न जातियों का अनुमानित प्रतिशत, 2020
उपरोक्त दो तालिकाओं के देखने से यह स्पष्ट हो जाता है कि चुनावी पैटर्न में थोड़ा भी जातिगत विचलन किसी भी पार्टी के लिए सम्भावना का द्वार खोल सकता है. इसकी तीन संभावित तस्वीर बनती दिख रही है, जो क्रमशः निम्न है. 1. ब्राह्मण+ठाकुर+गैर जाटव दलित+गैर यादव पिछड़ा वर्ग = अधिकतम 45 और न्यूनतम 28 प्रतिशत के साथ भाजपा 2. मुस्लिम+यादव+कुछ पिछड़ी जातियां = अधिकतम 38 और न्यूनतम 28 प्रतिशत के साथ सपा 3. ब्राह्मण+दलित+कुछ गैर यादव पिछड़ी जातियां = अधिकतम 33 और न्यूनतम 20 प्रतिशत के साथ बसपा उपरोक्त तीनों संभावित तस्वीरों में सबसे ज्यादा विचलन भाजपा, फिर बसपा और तब सपा के वोट शेयर में होता दिख रहा है. भाजपा में विचलन 17% तो बसपा और सपा में क्रमशः 13% और 10% है. अपने न्यूनतम वोट शेयर के साथ भाजपा खतरे में दिख रही है तो अधिकतम वोट शेयर में बहुत आगे. अपने अधिकतम वोट शेयर के साथ सपा भी आसानी से सरकार बनाती दिख रही है. परन्तु न्यूनतम वोट शेयर के साथ लगभग सरकार की स्थिति से बाहर. अपने अधिकतम वोट शेयर के साथ बसपा सरकार बनाने के स्थिति में, परन्तु न्यूनतम वोट शेयर के साथ बहुत पीछे. कांग्रेस किसी भी प्रकार से सरकार बनाने की स्थिति में नहीं है. यहाँ तक कि 2017 में प्राप्त उसके वोट शेयर 6 प्रतिशत से ऊपर जाने की सम्भावना नहीं दिख रही है. एक अन्य रोचक एवं उल्लेखनीय तथ्य यह है कि 2017 के विधानसभा चुनाव में बहुत छोटे छोटे दलों एवं निर्दलियों को मिलाकर लगभग 7 प्रतिशत5 वोट प्राप्त हुआ था, एवं नोटा 0.87 प्रतिशत6 था. इस बार इनका वोट प्रतिशत निश्चित तौर पर ज्यादा होता दिख रहा है. एक अनुमान के अनुसार इनका वोट शेयर 10 से 12 प्रतिशत होता दिख रहा है. आगामी विधानसभा चुनाव की पूरी लड़ाई 82 से 84 प्रतिशत वोट के बंटवारे के लिए तीनों प्रमुख दलों के बीच होगा. त्रिकोणीय संघर्ष की स्थिति में 30 प्रतिशत से अधिक वोट प्राप्त करने वाला दल सरकार बना लेगा. परन्तु द्विपक्षीय संघर्ष की स्थिति में भाजपा बहुत आगे खड़ी दिख रही है. यह स्थिति वाकई बहुत हीं रोचक है. क्या पुनः अल्पमत अथवा गठबंधन की सरकार उत्तर प्रदेश में बनेगी या पुनः बहुमत की लगातार चौथी सरकार? परन्तु एक बात तो बिकुल स्पष्ट है कि भाजपा लगातार अपने विशिष्ट संगठनों के द्वारा जमीनी स्तर पर कार्य कर रही है और मतदाताओं के बीच जा रही है. परन्तु सपा और बसपा मतदाओं से ज्यादा अपने पहचान की राजनीति पर ज्यदाफोचुस कर रही है. तथा भाजपा से मोहभंग हुए मतदाताओं तथा नकारात्मक वोट के सहारे चुनावी वैतरणी पार करना चाहती हैं. अभी छः माह बाद चुनाव होना है. तब तक संगठनात्मक दृष्टिकोण से भाजपा काफी आगे निकलते हुए दिख रही है. कोरोना और महंगाई से उपजे सामाजिक गुस्से को यह कैसे संभालती है? यह सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण होगा. इस गुस्से के बीच जो नेरेटिव गढ़ा जाएगा और जनता के समक्ष प्रस्तुत किया जाएगा; वही आगामी चुनाव हेतु असली प्रस्थान बिंदु होगा मतदाताओं के लिए. स्रोत: 4. अरज़ाल मुस्लिम की गणना अब अजलाफ़ मुस्लिमों के साथ हीं होती है. इसका अर्थ यह हुआ कि मुस्लिम वर्ग में कोई भी अनुसूचित जाति के तौर पर उद्धृत नहीं है. 5. भारत निर्वाचन आयोग 6. भारत निर्वाचन आयोग *** #डॉ संजय कुमार एसो. प्रोफेसर एवं चुनाव विश्लेषक सी.एस.एस.पी, कानपुर sanjaykumar.lmp@gmail.com sanjaykumarydc@gmail.com 8858378872, 7007187681 |
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