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उत्तर प्रदेश चुनाव 2022: ध्रुवीकरण की ओर बढ़ता देश का महत्त्वपूर्ण राज्य

उत्तर प्रदेश चुनाव 2022: ध्रुवीकरण की ओर बढ़ता देश का महत्त्वपूर्ण राज्य
घटनाओं का प्रवाह बहुत तेजी से उत्तर प्रदेश के राजनीतिक पटल पर हो रहा है. ऐसा लगता है कि आर.एस.एस. ने चुनाव सम्बन्धी रणनीतियों की लगाम अपने हाथ में ले ली है. अपुष्ट सूत्रों के अनुसार संगठन के विस्तार से जुडी सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि संघ ने अपने तीसरे मुख्यालय के तौर पर लखनऊ को चुना है नागपुर और दिल्ली के पश्चात. हिंदुत्व की प्रयोगशाला वाले प्रांत में भाजपा कोई कसर बाकी नहीं छोड़ना चाहती है. दूरगामी लक्ष्य हेतु यह चुनाव इसके लिए लिटमस टेस्ट की तरफ साबित होने वाला है. यदि आगामी चुनाव यह हार जाती है तो यह बहुत बड़ा झटका होगा संघ के लिए. क्योंकि अब एजेंडा सिर्फ राजनीतिक हीं नहीं रह गया है, वरन सामाजिक एवं सांस्कृतिक एजेंडे की प्रारम्भिक यात्रा तो अब शुरू हुई है, जिसका अंतिम लक्ष्य भारत को सनातन धर्म पर आधारित करना है. सहमति और असहमति के द्वंदात्मक स्वर के बीच उत्तर प्रदेश की राजनीति किस करवट लेती है, यह सबसे बड़ा प्रश्न है. 
       
मंडलयुगीन उत्तर प्रदेश चुनाव में जाति सबसे बड़ा फैक्टर रहा है. परन्तु भाजपा के अभ्युदय ने धर्म को इसके समकक्ष खड़ा कर दिया है. मतदाता के समक्ष एक भ्रम की स्थिति खड़ी हो गई है कि वह किसका समर्थन करे. परन्तु 2012 में 47 सीट से सीधे 312 पर खड़ा हो जाना भाजपा के प्रयोग को एक नया आयाम तो दे हीं दिया है. इसके पहले 1991, 1993 एवं 1996 के चुनाव में हिंदुत्व के रथ पर सवार भाजपा को आशातीत सफलता मिलती रही है. परन्तु ज्यों हीं चुनाव वर्ग के बजाय जाति की ओर मुड़ता है त्यों हीं भाजपा धाराशायी हो जाती है. कृपया सारणी– 1 का अवलोकन करें.       

   पार्टी

वर्ष

   कांग्रेस

भाजपा

सपा

बसपा

अन्य (सीमान्त दल)

कुल सीटें

1989(उ.ख.सहित)

94 (27.9%)

57 (11.6%)

208 (29.9%)

13 (9.4%)

53  (21.2%)

425

1991   ,,

46 (17.4%)

221 (31.5%)

34 (12.5%)

12 (9.3%)

112 (29.3%)

,,

1993   ,, 

28 (15.15)

177 (33.3%)

109(17.9%)

67 (11.1%)

44 (22.55%)

,,

1996   ,,

29 (15%)

175 (33.9%)

109 (19.7%)

67 (11.2%)

45 (20.2%)

,,

     2002

25 (8.9%)

88 (20.7%)

143 (25.4%)

98(23.2%)

49 (21.8%)

403

     2007

22 (8.5%)

50 (16.9%)

97 (25.4%)

206 (30.4%)

28 (18.8%)

,,

     2012

28 (11.65%)

47(15%)

224 (29.13%)

80 (25.91%)

24 (17.31%)

,,

     2017

7 (6.25%)

312 (39.67%)

47 (21.82%)

19 (22.23%)

18  (9.16%)

,,


स्रोत – भारत का निर्वाचन आयोग , उ.ख – उतराखंड
  
वैसे तो उत्तर प्रदेश परम्परागत तौर पर जाति व्यवस्था का पोषक रहा है और आज भी यह व्यवस्था कमोबेश जारी है. अभी यहाँ के समाज में चरित्रगत बदलाव ज्यादा नहीं आया है, जैसा कि हमें राजस्थान, मध्य प्रदेश और गुजरात सरीखे राज्यों में देखने को मिलता है. इसीलिए जब हम 2002 के पश्चात हुए चुनावों पर दृष्टि डालते हैं तो एक निश्चित पैटर्न उभर कर सामने आता है. पिछले 19 वर्षों और चार चुनावों में किसी भी सरकार की पुनरावृति नहीं हुई है. तो क्या इस बार भी यही पैटर्न रहेगा या भाजपा इस मिथक को तोड़ देगी? भाजपा की पूरी कोशिश है कि 2022 का चुनाव धर्म और राष्ट्रवाद के प्रश्न पर हीं लड़ा  जाय, परन्तु कोरोना महामारी के पश्चात् राज्य में सामाजिक एवं मनोवैज्ञानिक स्तर पर गहरे प्रश्न खड़े हो गए हैं, जिसका निराकरण फिलहाल भाजपा के पास तो नहीं दिख रहा है. हालांकि तमाम लोक कल्याणकारी योजनाओं की घोषणा योगी सरकार ने अवश्य की है, परन्तु इसका लाभ आगामी चुनाव में कितना मिलता है, अभी निश्चित तौर पर कुछ नहीं कहा जा सकता है.
    
आगामी चुनाव हेतु ध्रुवीकरण की प्रक्रिया अपने प्रारम्भिक चरण में है. कोरोना से उपजे गहरी निराशा ने लोगों को अभी राजनीतिक क्रियाकलाप से दूर हीं रखा है. हालांकि पंचायत चुनाव के पश्चात् जिला पंचायत अध्यक्ष एवं ब्लाक प्रमुखी हेतु रणनीतिक बिसात बिछने शुरू हो गए हैं. 2007 में सोशल इंजीनियरिंग के दम पर बसपा का एवं 2012 में कुछ अन्य पिछड़ी जातियों को जोड़कर सपा ने बहुमत के साथ सत्ता प्राप्त की. परन्तु उल्लेखनीय यह है कि दोनों बार मत प्रतिशत एक ऐसे बिंदु पर खड़ी है, जहाँ थोडा सा भी विचलन सत्ताधारी पार्टी को बाहर का रास्ता दिखा देती है. 29.13 प्रतिशत के साथ सपा का बहुमत प्राप्त करना अपने आप में इतिहास है. शायद इसी तथ्य को ध्यान में रखकर इस बार भी सपा उसी प्रकार की रणनीति बना रही है. पश्चिम उत्तर प्रदेश में भाजपा का प्रदर्शन इस बार निश्चित हीं फीका रहेगा. किसान आन्दोलन से उपजे गुस्से ने लोगों को सरकार के खिलाफ खड़ा होने का मौका दिया है. अभी भी यदि केंद्र की सरकार किसानों से बात करके कोई सार्थक हल निकाल लेती है तो शायद परिणाम उतना बुरा नहीं होगा. आगामी चुनाव में यदि किसान संगठन सीधे – सीधे भाजपा के खिलाफ और विपक्षी दलों के साथ खड़े हो जाएं तो मुझे कोई आश्चर्य नहीं होगा. 
     
27 जून को आन्दोलन के सात महीने पूरे हो गए हैं और किसान संगठनों ने तीन क्रषि कानूनों के खिलाफ अपनी आवाज़ पहुंचाने के लिए ‘खेती बचाओ, लोकतंत्र बचाओ’ दिवस मनाया. यह भी महज इतिफाक़ हीं है कि भाजपा ने 25 जून को आपातकाल की 46वीं बरसी पर कांग्रेस द्वारा लगाये आपातकाल को ‘लोकतंत्र की हत्या’ कहकर तुलना की. परन्तु यह बात अपने आप में विरोधाभास सी लगती है. लोकतंत्र के मूल स्वर में हीं निहित है संवाद और असहमति के स्वर का उतना हीं सम्मान, जितना कि सह्मति के  स्वर का. और इसी बुनियाद पर लोकतंत्र की विकास गाथा आगे बढ़ी है. परन्तु भाजपा शायद यह बात भूल रही है. दरअसल सत्ता में होना और उसके उसके स्वाभाविक अतिरेक एवं दुर्गुणों से बच कर रहना हीं असली चुनौती होती है. और इस अतिक्रमण हेतु कांग्रेस और भाजपा दोनों जिम्मेदार है. कहीं न कहीं आपातकाल का भूत अभी भी कांग्रेस का पीछा नहीं छोड़ रहा है. शायद उसी का हश्र यह है कि आज कांग्रेस की हैसियत क्षेत्रीय दलों जैसी हो गई है. हैबरमास का ‘लोक क्षेत्र’ (पब्लिक स्फीयर) इस स्थिति का वर्णन करने हेतु सर्वथा उपयुक्त सिद्धांत है, जिसका अध्ययन सत्ताशीर्ष में बैठे नेताओं को अवश्य करना चाहिए. हो सकता है कि ये तीनों कृषि कानून बहुत अच्छे हों, जैसा कि दावा सरकार कर रही है, परन्तु इन कानूनों से प्रभावित होने वाले किसानों से यदि कोई सार्थक वार्ता नहीं होती है एवं उनके दृष्टिकोण का सम्मान नहीं किया जाता है तो इसे क्या कहेंगे? यह सीधे सीधे लोकतंत्र के स्वर को दबाने जैसा हीं है. लोकतंत्र का पूरा इतिहास हीं दृष्टिकोणों एवं अधिकारों की रक्षा से जुड़ा हुआ है. और कुछ नहीं तो कम से कम गांधी को हीं पढ़ लें. परन्तु दुर्भाग्य है इस देश का कि गांधी को पूजते सभी दल हैं, परन्तु उनके विचारों को कोई दल अपनाने को तैयार नहीं है. आगामी चुनाव में यह एक बड़ा मुद्दा बन सकता है. सपा का रालोद तथा अन्य दलों के साथ गठबंधन आगे बढ़ चुका है. यदि किसान संगठन भी इनके साथ जुड़ गए तो भाजपा के लिए सत्ता प्राप्ति का रास्ता बहुत हीं मुश्किल होगा. सौ से सवा सौ सीटों वाला पश्चिम उत्तर प्रदेश इस बार निर्णायक भूमिका निभाने की स्थिति मे है. मजे की बात यह है कि यह ध्रुवीकरण भी जातिगत न होकर वर्गीय हीं है, जो इस बार भाजपा के खिलाफ प्रयोग में होगा. यादव, मुस्लिम, कुछ पिछड़ी एवं दलित जातियां तथा ब्राह्मणों का एक वर्ग यदि सपा के साथ खड़ा हो गया तो भाजपा के लिए राह कांटो भरा हो जाएगा. इसका तोड़ भाजपा क्या निकालती है, यह देखना दिलचस्प होगा. मायावती ने भी अकेले चुनाव लड़ने की घोषणा करके भाजपा के लिए मुश्किलें पैदा कर दी हैं. वहीँ भीम आर्मी के चंद्रशेखर आज़ाद ने भी चुनाव लड़ने की घोषणा करके दलित समुदाय के बीच एक विकल्प बनने की कोशिश की है. क्या अब यह मान लिया जाना चाहिए कि बसपा के राजनीतिक अंत की शुरुआत हो गई है. हालत तो कुछ कुछ ऐसे हीं बयां कर रहे हैं. निषाद पार्टी के स्वयम्भू अध्यक्ष डॉ संजय निषाद ने अपने आपको उपमुख्यमंत्री बनाने के लिए भाजपा नेतृत्व पर दबाव बनाने की राजनीति प्रारंभ कर दी है. ओमप्रकाश राजभर ने अपने पत्ते अभी पूरी तरफ साफ़ नहीं किये हैं.      
      
यकायक धर्मांतरण का मुद्दा फिर से उछलने लगा है. जाहिर सी बात है इसका उद्देश्य धर्म कम, और धर्म के आधार पर चुनावी गोलबंदी अधिक लग रही है. यह तो जनता के ऊपर निर्भर करता है कि वो इस मुद्दे को किस रूप में देखती है. हो सकता है कि आने वाले महीनों में यह एक बड़े मुद्दे का रूप ग्रहण कर ले. परन्तु जो बड़े और शाश्वत मुद्दे बेरोजगारी. गरीबी, किसानों के भुगतान आदि से जुड़े हैं, वो लगातार सरकार को परेशान कर रहे हैं. दूसरी और लखनऊ में राष्ट्रपति महोदय द्वारा ‘अम्बेडकर सांस्कृतिक केंद्र’ का शिलान्यास कराकर दलित जातियों को भी लुभाने की कोशिश की जा रही है. यानि दूसरे अर्थों में, भाजपा द्वारा क्षैतिज एवं लम्बवत दोनों प्रकार के ध्रुवीकरण की प्रक्रिया तेज कर दी गई है. ए.आई.एम.आई.एम प्रमुख असुद्दीन ओवैसी ने साम्प्रदायिक स्थिति को भांपते हुए उत्तर प्रदेश चुनाव में अपने दल द्वारा 100 सीटों पर उम्मीदवार खड़ा करने की घोषणा कर दी है. इसका कितना फायदा उन्हें मिलेगा, यह कहना तो अभी मुश्किल है. परन्तु बिहार चुनाव में मिली सफलता ने इसके होंसले बुलंद कर दिए हैं. परन्तु यदि साम्प्रदायिक गोलबंदी तेज होती है तो ये कुछ चौंकाने वाले नतीजे देने में कामयाब हो सकते हैं, जिसका सीधा नुकसान सपा को होगा. मुस्लिमों का वोट बैंक होना एक बात है और उस वोट बैंक का नेतृत्व मुस्लिम के द्वारा होना दूसरी बात है. ओवैसी इसी गैप को भरने की कोशिश लगातार कर रहे हैं. 
 
अघोषित रूप में एक और प्रक्रिया भारत में और चल रही है, जिसके लक्षण अब दिखने शुरू हुए हैं. प्रशासन और नागरिक समाज का ‘राजनीतिक अनुकूलन’. कभी इंदिरा गाँधी ने प्रतिबद्ध नौकरशाही की बात की थी. आज उस कैनवस का विस्तार हो चुका है. अब इसके साथ साथ ‘प्रतिबद्ध नागरिक समाज’  की बात हो रही है, जिसे राष्ट्रवाद की चाशनी के साथ घोल दिया गया है. स्वाभाविक एवं प्राकृतिक अनुकूलन तो शाश्वत चलने वाली प्रक्रिया होती है, परन्तु आरोपित अनुकूलन की एक अपनी बुलबुली मियाद होती है. उत्तर प्रदेश चुनाव के जरिए इस प्रक्रिया में और तेजी आएगी. बनारस के तमाम जगहों पर होर्डिंग कुछ इस प्रकार दिख रहे हैं – आध्यात्मिकता भी और आधुनिकता भी. बंगाल चुनाव के समय से हीं ऐसे होर्डिंग्स कुछ ज्यादा हीं दिखने लगे हैं. क्या सामान्य जनमानस को ये नारे लुभा पाएंगे? क्योंकि दोनों तत्वों में मूलभूत वैषम्य एवं विग्रह है. कुल मिलाकर उत्तर प्रदेश एक बार पुनः चुनावी मोड पर सरकने लगा है.

#डॉ संजय कुमार, एसो. प्रोफेसर एवं चुनाव विश्लेषक, सी.एस.एस.पी, कानपुर
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