उत्तर प्रदेश में बदलते राजनीतिक समीकरण – एक विश्लेषण
डॉ संजय कुमार ,
Jun 14, 2021, 18:24 pm IST
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उत्तर प्रदेश यदि एक संप्रभु देश होता तो जनसंख्या के दृष्टिकोण से यह विश्व का पांचवां सबसे बड़ा देश होता. लगभग 23 करोड़ की जनसंख्या वाला भारत का ह्रदय प्रदेश चुनावी मुहाने पर खड़ा है. कोरोना संक्रमण के दूसरे दौर में हो रहे लगातार क्षरण के समय राजनीतिक क्रियाकलापों एवं घटनाओं की अप्रत्याशित एवं अतिशय गतिमानता ने सभी लोगों को हतप्रभ कर दिया है. लोगों के समक्ष कभी न भूलने वाली पीड़ा के साथ साथ अपने दिनचर्या के साथ साहचर्य बिठाने में बहुत दिक्कतें आ रही हैं. परन्तु, ठीक ऐसे समय उत्तर प्रदेश की चुनावी गहमागहमी ने कोरोना से उपजे तमाम मुद्दों को पुनः हाशिए पर ढकेलने का भगीरथ प्रयत्न प्रारम्भ कर दिया है. भाजपा यही चाहती भी है. और यही उसकी विवशता भी है. क्योंकि यह हमेशा चुनावी मोड पर खड़ी रहती है. विगत 15 दिनों के राजनीतिक घटनाक्रम ने बहुत कुछ बयाँ कर दिया है. कांग्रेस के बड़े नेता जितिन प्रसाद का भाजपा का दामन थामना देश की सबसे पुरानी पार्टी के लिए अच्छा संकेत नहीं है. आने वाले समय में इस प्रकार के दल बदल में और तेजी आएगी, जैसा कि पश्चिम बंगाल चुनाव के समय हुआ.
चुनाव के संदर्भ में एक बात जो सबसे महत्वपूर्ण यह है कि भाजपा हमेशा अन्य दलों के मुकाबले अपनी तैयारी में काफी आगे रहती है. और यह फैक्टर सबसे भारी पड़ता है अन्य दलों पर. चुनावी हार जीत से परे भाजपा की यह विशेषता उसे उम्मीद से कहीं ज्यादा सफलता दिलाती रही है. यह सबक पता नहीं विपक्षी दलों को क्यों समझ में नहीं आ रहा है. या तो विपक्षी दलों के पास संसाधनों का अभाव हो चला है अथवा चुनावी रणनीति में वो फेल हो रहे हैं. भाजपा के लिए कोई भी चुनाव छोटा या बड़ा नही होता है. वो हर जगह अपने कार्यकर्ता को बैठे देखना चाहती है. एक समय ऐसा भी था जब बहुजन समाज पार्टी विधानसभा उपचुनावों में हिस्सा हीं नही लेती थी. आज यह पार्टी लगभग समाप्ति की ओर अग्रसर है. दलितों का राजनीतिक आन्दोलन एक प्रकार से अब हाशिये पर जा चुका है. राज्यसभा के 10 सीटों पर होने वाले चुनाव में बसपा प्रमुख मायावती ने भाजपा को समर्थन देने का फैसला किया है. विधानसभा चुनाव के पहले इस प्रकार का फैसला पार्टी के लिए काफी नुकसानदेह साबित हो सकता है, तथा भाजपा के लिए संजीवनी का कार्य कर सकता है. आगामी विधानसभा चुनाव को लेकर यदि दोनों पार्टियों के बीच कोई डील अथवा समझौता हो जाता है तो इसका सीधा फायदा भाजपा को मिलेगा. हालांकि सिर्फ एक अपवाद (पिछला लोकसभा चुनाव) को छोड़कर बसपा ने अभी तक कोई चुनाव - पूर्व गठबंधन नहीं किया है. परन्तु इस बार की परिस्थितियां दोनों पार्टियों को इस बाबत मजबूर कर रही है. कोरोना काल से उपजे अविश्वास ने भाजपा को तमाम विकल्पों पर सोचने के लिए विवश कर दिया है. यदि जाटव समाज का वोट गठबंधन धर्म के अन्तर्गत मिल जाता है तो भाजपा को अगला चुनाव जीतने से कोई नहीं रोक पायेगा. वहीँ दूसरी ओर, मायावती ने अपने पुराने साथी रामअचल राजभर एवं लालजी वर्मा को पार्टी से निष्काषित करके भाजपा के लिए काम और भी आसान कर दिया है. बसपा ने अब तक अपने कुल 18 विधायकों में से 11 को पार्टी से निष्काषित कर दिया है. गौरतलब है कि पिछले विधानसभा चुनाव 2017 के पहले भी इसी प्रकार से मायावती ने अपने प्रमुख नेताओं को पार्टी से बाहर निकाल दिया था.
2007 के जिस सोशल इंजीनियरिंग (सामाजिक अभियांत्रिकी) सूत्र के अन्तर्गत बहुमत के साथ बसपा सत्ता में आई थी तो एकबारगी को यह मॉडल चुनावी लोकतंत्र के लिए सबसे बेहतर लगने लगा था. परन्तु इस मॉडल की सबसे बड़ी मजबूती एवं कमजोरी इसका जाति आधारित होना है. भाजपा ने प्रारम्भ से हीं जाति के बजाय वर्ग आधारित राजनीति को पल्लवित एवं पुष्पित किया है. हिंदुत्व की पूरी राजनीतिक अवधारणा इसी बात पर आधारित है और जिसका लाभ इसे लगातार मिल रहा है. जाति आधारित मॉडल के अन्तर्गत सैंडविच संरचना प्रमुख घटक होता है, जबकि वर्ग आधारित मॉडल के अन्तर्गत एक्सेल संरचना. सैंडविच मॉडल ऊपर से नीचे होता है, जिसमे एक छोटा दरार भी इसे काफी नुक्सान पहुंचा सकता है. वहीँ एक्सेल मॉडल बाएं से दायें होता है, जिसमे एक वर्ग के हटने से तुरंत हीं दूसरा वर्ग उसे भरने आ जाता है. और यही उसकी मजबूती होती है. समाजवादी पार्टी का भी मॉडल सैंडविच जैसा हीं है. तथ्यात्मक दृष्टिकोण से भी यह बात पिछले तीन विधानसभा चुनावों से साबित हो जाता है. 30 अथवा इससे ज्यादा मत प्रतिशत प्राप्त करने वाली पार्टी बहुमत के साथ सत्ता में आ रही है. परन्तु मेरे दृष्टिकोण से आगामी विधानसभा चुनाव त्रिकोणीय के बजाय द्विकोणीय होने जा रहा है, यदि कांग्रेस कुछ अप्रत्याशित प्रदर्शन न कर दे. इस बार का मुकाबला सीधा - सीधा भाजपा एवं सपा के बीच होने जा रहा है.
हालांकि समाजवादी पार्टी ने ऐसा कुछ नही किया है जिसके आधार पर उसे पुनः सत्ता प्राप्त हो जाए, परन्तु गहरे क्षोभ, अविश्वास, निराशा एवं भय के वातावरण में यदि जनता सत्ता के खिलाफ वोट करती है तो स्वाभाविक लाभ सपा को मिल सकता है. परन्तु पेंच यह है कि आमने सामने की लड़ाई में वही पार्टी बाजी मारेगी जो 40 प्रतिशत के आस पास वोट प्राप्त कर ले. और यह क्षमता आज भाजपा के अलावा किसी अन्य पार्टी में तो नहीं दिख रही है. सपा की यही कोशिश होनी चाहिए कि वो मुकाबले को त्रिकोणीय बनाने में अपनी रणनीति पर काम करे. परन्तु यह तो फिलहाल कोई रणनीति बनाती हुई दिख नहीं रही है. पश्चिम उत्तर प्रदेश में जरूर इसने अपने साथ राष्ट्रीय लोकदल के साथ चुनावी गठबंधन कर लिया है और दलित फायर ब्रांड नेता चन्द्रशेखर रावण ने भी गठबंधन में शामिल होने की इच्छा जताई है. वैसे भी किसान आन्दोलन के कारण पश्चिम उत्तर प्रदेश में इस बार भाजपा का प्रदर्शन अच्छा नही होने वाला है. जैसा कि प्रतीत और प्रचारित हो रहा है कि ब्राह्मण वर्ग भाजपा से नाराज चल रहा है. यदि यह सही है तो सपा को तत्काल पुनः एक बार सैंडविच मॉडल के हिसाब से काम शुरू कर देना चाहिए. भले हीं यह मॉडल कितना भी भुरभुरा क्यों न हो. सत्ता परिवर्तन के साथ बहुत सारे राजनीतिक परिवर्तन अपने आप हो जाते हैं. रहा सहा बाकी काम योगी और मोदी के बीच गहरा होता आतंरिक द्वंद पूरी कर देगा.
अब यह लगभग तय हो चुका है कि विधानसभा चुनाव योगी के नेतृत्व में हीं लड़ा जाएगा. ऐसा पहली बार होगा जब प्रधानमंत्री मोदी की भूमिका चुनावी सन्दर्भ में कमतर की जायेगी. आर.एस.एस भी शायद मोदी के उतराधिकारी की तलाश में लग गया है, और वर्तमान राजनीतिक परिस्थितियों में योगी से बेहतर कट्टर हिंदुत्व का चेहरा और कोई नहीं है. कोरोना के कारण निश्चित हीं योगी पर लोगों का विश्वास कम हुआ है. परन्तु जिस गति और तेज़ी के साथ योगी पलटवार करते हैं, ये विशेषता उन्हें औरों से अलग करती है. सरकार ने पुनः 9 जून को 23.2 लाख पंजीकृत निर्माण श्रमिकों के खातों में एक एक हज़ार रुपया प्रेषित कर दिया गया है. वहीँ दूसरी ओर मोदी सरकार ने कोरोना की पहली लहर में घोषित ‘प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना’ के अंतर्गत दीपावली तक लगभग 80 करोड़ गरीब लोगों को मुफ्त राशन देने की घोषणा कर चुकी है. स्वाभाविक है कि इन डीबीटी योजनायों का व्यापक प्रभाव जनमानस के ऊपर पड़ता है. धीरे धीरे जब कोरोना का स्वर मंद पड़ने लगेगा और यदि तीसरी लहर चुनाव तक नहीं आती है तो उत्तर प्रदेश की चुनावी फिजां यदि पुनः साम्प्रदायिक एजेंडे पर चली जाए तो मुझे कोई आश्चर्य नही होगा.
हमेशा चुनावी मोड पर बने रहना भाजपा की विशेषता है. छोटे दलों के साथ चुनाव पूर्व गठबंधन कर भाजपा लगातार अपने आप को मजबूत कर रही है. 2014 और 2019 के लोकसभा चुनावों में तथा 2017 के विधानसभा चुनाव में भाजपा ने जाति आधारित छोटे छोटे दलों के साथ समझौता कर सत्ता प्राप्ति के लक्ष्य को बहुत आसान बना दिया, जिसे समझने में अन्य दल विफल रहे. यह वाकई अपने आप में आश्चर्य है कि उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में लगभग 15 से 18 प्रतिशत मत छोटे दलों को प्राप्त हो रहा है, जिस पर किसी का ध्यान अभी तक नहीं गया है. वहीँ लोकसभा चुनाव के दौरान यह प्रतिशत काफी छोटा हो जाता है. स्पष्ट है कि मोदी के आने के पशचात वोटर की गोलबंदी जाति के बजाय वर्ग आधारित हो जाती है. यानि वर्ग आधारित राजनीति के साथ साथ जाति आधारित राजनीति को भी भाजपा ने पूरी गंभीरता से लेकर अपने पक्ष में इसका प्रयोग किया. वर्तमान में बहुत तेजी के साथ पुनः भाजपा छोटे दलों के साथ वार्ता में जुट गई है. अपना दल, निषाद पार्टी, सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के साथ सहमति लगभग बन चुकी है. 2017 के विधानसभा चुनाव में भाजपा, सपा, बसपा और कांग्रेस का सम्मिलित वोट प्रतिशत 89.97 प्रतिशत था, 2012 में 81.69 प्रतिशत तथा 2007 में 81.44 प्रतिशत था. शेष मत छोटे एवं सीमान्त दलों को प्राप्त हुआ. निम्न सारणी का अवलोकन करें.
उत्तर प्रदेश विधानसभा एवं लोकसभा चुनावों में मुख्य दलों को प्राप्त मत प्रतिशत (%) में
स्रोत - भारत निर्वाचन आयोग उल्लेखनीय है कि 2014 एवं 2019 के लोकसभा चुनाव में मोदी फैक्टर के कारण वही मतदाता जातिगत आग्रह से ऊपर उठकर वर्गीय चेतना के आधार पर अपना वोट देता है. फलस्वरूप छोटे एवं सीमान्त दलों का मत प्रतिशत छह से सात प्रतिशत हीं रह जाता है. गौरतलब है कि लगभग समान वोट पाकर भी बसपा 2014 लोकसभा चुनाव में शून्य पर रहती है वहीँ 2019 में सपा के साथ गठबंधन करने पर 10 सीट पाती है और 4 प्रतिशत वोट की कमी के साथ सपा शून्य हो जाती है. कांग्रेस के प्रदर्शन में कोई विशेष विचलन नही होता है.
उपरोक्त सारे तथ्यों के अवलोकन पश्चात् ऐसा प्रतीत होता है कि 2022 का विधानसभा चुनाव भाजपा के लिए बहुत आसान होगा. परन्तु चुनावी राजनीति में इस प्रकार की भविष्यवाणी करना बेहद जोखिम भरा होता है. मौलिक प्रश्न यह है कि क्या मतदाता भाजपा सरकार के प्रदर्शन से खुश है? उतर बेहद स्पष्ट है – नहीं. कोरोना जनित विभीषिका, बेरोजगारी एवं रोजगार संकट, अभिव्यक्ति की आज़ादी पर पहरा और किसान आन्दोलन जैसे कुछ कारक भाजपा को जबरदस्त नुकसान पहुंचाते हुए दिख रहे हैं. यदि भाजपा के वोट प्रतिशत में 2017 के मुकाबले 10 प्रतिशत की कमी होती है और सपा को मिल जाती है तो दोनों दलों को लगभग 150 – 150 सीटें प्राप्त हो सकती हैं. परन्तु यदि वोटों में कमी 15 प्रतिशत के आसपास होता है तो भाजपा बुरी तरह पराजित होगी. इसलिए इस चुनाव में बसपा की भूमिका पुनः महत्वपूर्ण हो जाएगी भाजपा के दृष्टिकोण से. चुनाव पूर्व गठबंधन भाजपा के लिए छ से सात प्रतिशत जाटव वोट का इन्तिज़ाम अवश्य कर देगा. यदि किसी कारणवश गठबंधन नहीं होता है तो भाजपा के लिए चिंता साफ़ साफ़ दिख रही है. मुस्लिम एवं यादव मतदाता के साथ यदि दलित एवं अन्य पिछड़े वर्ग की कुछ जातियां सपा को वोट देती हैं तो स्थिति पलट भी सकती है. अभी तक के सामाजिक रुझान से परिस्थितियां इसी ओर इंगित कर रही हैं. ऐसा प्रतीत होता है कि कांग्रेस का प्रदर्शन कमोबेश पहले जैसा ही रहेगा. *डॉ संजय गुप्ता, एसोसिएट प्रोफेसर, राजनीति विज्ञान & चुनाव विश्लेषक, सी.एस.एस.पी, कानपुर. |
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