ओड़िया कहानी: खोज
मूलः वरदा प्रसन्न महांति, अनुवाद- सुजाता शिवेन ,
Dec 31, 2020, 9:31 am IST
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टेबल पर कुहनी टिकाये, सिर को झुकाकर जाने कब से बैठा हुआ था विकास. नहीं अभी और कुछ नहीं किया जा सकता है. सिर के कारखाने में अभी गड़बड़ी नजर आ रही थी. ठीक से चल नहीं रही हैं सभी मशीनें. बहुत महत्त्वपूर्ण बात लिखनी है उसे, पूरी तरह से अपना मत रखना है उसे. 'भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास' जैसा एक बड़ा और जटिल विषय लिया है उसने अपने शोध के लिए.
क्यों उसने यह विषय चुना वह खुद नहीं जानता है. अंग्रेज तथा ब्रिटिश साम्राज्य के प्रशंसक भारतीय इतिहासकारों के तर्क का खंडन करना होगा उसे. भारत में क्या राष्ट्रीयता कभी नहीं थी? तो फिर स्वाधीनता आंदोलन का उत्स कहां से आया ? भारत की स्वाधीनता क्या विदेशी शासकों का निःस्व भारतीयों के लिए एक उदारता भरा दान था ? कलम रख दिया टेबल पर विकास ने और पैर को जितना पसार सकता था पसार कर अधलेटा सा होकर बैठा रहा कुर्सी पर. आराम कुर्सी तो है नहीं इसलिये कितनी भी कोशिश कर ले आराम नहीं मिलता था उसे. चेहरा घुमाकर खिड़की से बाहर की तरफ देखने लगा. कांच के भीतर से कोलाहल भरा रास्ता नजर तो आ रहा था पर आवाज अंदर नहीं आ रही थी. बाहर की दुनिया अजीब सी है. टेबल पर, कुछ बंद कुछ खुली किताबें बिखरी पड़ी हैं. उन पर एक उदास नजर फेर लिया विकास ने. प्रयाग विश्वविद्यालय के शोध विभाग का वह सा बड़ा कमरा था जहां बैठा हुआ था विकास. कमरे में आलमारियों की पंक्ति किताबों से भरी हुई. दस-बारह कुर्सियां बिछी हुई हैं. विकास जिस टेबल पर बैठता है वह खिड़की के पास है. यहीं बैठकर सुबह से रात तक विकास शोध का काम करता है. यही गवेषणा ही उसके लिये सब कुछ है. यहीं वह जो कुछ पाना चाहता उसकी कल्पना करने की कोशिश करता, और उसी कोशिश में वह आनंद ढूंढ़ता. आठ महीना हो गया है उसे शोध करते हुए. यह रास्ता संकट भरा तो नहीं है पर लंबा बहुत है. फिर भी इस पर चलना उसने पसंद किया है. घड़ी में जब तीन बजता, वह चाय पीने के लिये बाहर जाता. विश्वविद्यालय के चौक के पास भट्टजी की चाय की दुकान है. बाहर से देखने पर खास कुछ नजर नहीं आता, बस द्वार पर लिखा हुआ लकड़ी के पट्टे पर दुकान का नाम लिखा हुआ है; उसी को देखने से वहां दुकान है इसका पता चलता था. लेकिन अंदर जाने पर दुकान के बारे में जो धारणा बनी होती वह धूलधूसरित हो जाती. वहां लोगों की भीड़ नजर आती. कुछ लड़के ग्राहकों की सेवा टहल में दौड़-धूप करते नजर आते. विकास ने अपने लिये एक जगह तय कर लिया था. उत्तर की तरफ कोने में जाकर वह बैठ जाता था. वहीं ऊपर दीवार पर एक घड़ी टंगी हुई थी जो अपनी स्वाभाविक गति में चलती रहती. विकास की नजर कुर्सी पर बैठने और उठने के समय बराबर उस घड़ी पर पड़ती. ज्यादातर वह टेबल उसे खाली मिल जाती. पर आज ऐसा नहीं हुआ. वहां दो युवक पहले से बैठे मिले. फिर भी उसकी पसंद वाली कुर्सी खाली थी, इसलिये वहीं जाकर, उन दोनों युवाओं से अनुमति लेकर, वह बैठ गया. वे दोनों आपस में बात कर रहे थे.काला कोट पहना युवक अपने साथी से बोल रहा था, ''पर तुम्हें पोस्ट ग्रेजुएट करना नहीं चाहिए था. रुड़की में अगर नहीं हो पाया तो बैंगलूरू या खड़गपुर में क्यों कोशिश नहीं किया? एमएससी करने के बाद क्या करना चाहते हो? अगर आईएएस करने का उद्देश्य है तो अच्छी बात है. नहीं तो अध्यापन करना चाहते हो तो बहुत ही बेवकूफी होगी.'' पास की टेबल पर नजर पड़ी तो शर्मा ने अभिवादन किया. शर्मा के साथ कभी कभार यहीं उसकी मुलाकात हो जाती थी. बहुत सलीकेदार नहीं था वह. खाने-पीने का भी समय एक जैसा नहीं होता. विकास कभी उसे सुबह तो कभी इस समय भात खाते देखता था. राजनीतिशास्त्र में वह शोध खत्म कर थीसिस जमा कर चुका है. तीन महीने बाद दीक्षांत समारोह में उसे डिग्री मिल जायेगी.हाथ उठाकर अभिवादन का उत्तर देकर विकास ने पूछा, ''और कहो शर्मा, भविष्य में अब आगे क्या करना चाहते हो ?'' ''अभी तो डिपार्टमेंट से ही आ रहा हूं. अध्यापक भटनागर सर से तकरीबन घंटे भर बात हुई. उन्होंने मुझे समझाया कि यहां तो विभाग में नौकरी नहीं मिलेगी. बतौर अध्यापक छात्परों को शोध करने के लिये प्रेरित करना हमारा कर्त्यव्य है. पर शोध करके पेट पाला नहीं जा सकता. इसके बाद आईएएस का लक्ष्य रखो. अभी तो तुम्हारे पास मौका है. एक बार किस्मत आजमा के देख लो. उनकी बात सुनकर लग रहा है कि, मुझे इस बारे में काफी सोचना पड़ेगा.''चाय पीने के बाद वापस वह उसी कमरे की उसी शोध कक्ष वाली टेबल पर बैठ गया. उसे वही सारी बातें बार बार याद आ रही थीं. मन खिन्न सा हो गया था उसका. शाम घिरने लगी. कमरे में अंधेरा फैलने लगा. साढ़े छह बजे चपरासी पांडे आकर एक-एक बत्ती जलाने लगा. विकास के टेबल पर जब वह बत्ती जलाने आया तो उसने मना कर दिया. कुछ देर बाद अचानक चौंक पड़ा विकास. न जाने कब मीरा पास की कुर्सी पर आकर बैठ गई थी. ''चुपचाप क्यों बैठे हैं ? मन ठीक नहीं है शायद.'' ''आप कब आईं ? माफ करिये...''मिस मीरा सेठ. पिछले साल अर्थशास्त्र से एम.ए. पास कर अभी शोधकार्य कर रही हैं. गोरी रंगत, लंबी चोटी, गुलाबी होंठ और सफेद साड़ी में लिपटी बहुत सीधी सादी महिला हैं मीरा. कोई बनावटीपन नहीं है. आंखों पर सोने के फ्रेम का चश्मा. ''मिस्टर महापात्र बहुत परिश्रम कर रहे हैं आप. इसलिये मन थक जा रहा है आपका. इतनी तकलीफ क्यों दे रहे हैं अपने शरीर को? चाहते हैं कि काम जल्दी खत्म हो जाये. पर कोई फायदा नहीं है. कुछ भी कर लीजिए दो साल से पहले आपको कोई डिग्री नहीं देगा. ''विकास सीधे मीरा की तरफ देखने लगा.मीरा बोली, ''आज घर से ख़त आया है. बहुत नाराज हैं मां और बाबा. मुझे जल्दी ही शोध छोड़कर घर लौट जाना होगा. घर में कोई नहीं है. मां बहुत परेशान हैं. उन्होंने लिखा है कि, नौकरी करना तेरा उद्देश्य नहीं है, तो फिर शोध करने से क्या फायदा ? इस तरह से कैसे चलेगा ? हमसे ऐसे कितने दिन और दूर रहोगी ?'' माता-पिता की अकेली संतान है वह. बाबा उसके ऊंचे ओहदे पर हैं. घर में कोई कमी नहीं है. पढ़ाई उसका शौक भर है. घर-गृहस्थी, पति, बच्चे, प्यार भरा संसार सभी उसे पुकार रहे हैं. विवाह कर लेगी वह. घर बसा लेगी.विकास भरे दिल से कब तक वैसे ही बैठा रहा जान नहीं पाया. मीरा शायद खिन्न होकर चली गई थी. पांडे की पुकार सुनकर नींद टूटी उसकी. शोध केंद्र खाली हो चुका है. कोई भी नहीं है. पांडे बोला, ''नौ बज चुके हैं. बंद करने का समय हो गया है. शायद आप का मन ठीक नहीं है.'' आंखें मलते हुए उठा विकास. गले में मफलर को लपेटकर कोट के पॉकेट में हाथ डाला और धीमे कदमों से बाहर निकलकर सड़क पर आ गया. मन में उसके आज हजारों चिंतायें हैं. चारों तरफ लोगों को यूं पलायन करते देखकर मन आहत है उसका. शर्मा जो लक्ष्य लेकर शोध कर रहा था उससे दूर होता जा रहा था वह. पर वह ऐसा नहीं कर पायेगा. जीवन का एकमात्र लक्ष्य है साधना और अध्यवसाय. मीरा की बात अलग है. उसके जैसे कई नये चेहरे यहां नजर आते हैं, पर एक-दो महीने बाद कहां चले जाते हैं, पता ही नहीं चलता. पर इन सब के बावजूद वह शोध करना नहीं छोड़ सकता. वह भागेगा नहीं, पलायन नहीं करेगा वह. जीवन में पराजय आये पर पलायन करना हितकारी नहीं है. *** #ओड़िशा राज्य के सार्वजनिक उपक्रम कलिंग आयरन वर्क्स और फेरो में वरिष्ठ प्रबंधक के पद से सेवानिवृत्त हुए वरदा प्रसन्न मोहंती एक सजग और सुधी साहित्यप्रेमी हैं. लंबे समय से राजधानी क्षेत्र में निवासरत मोहंती शौकिया तौर पर कभी-कभार ओड़िया में कहानियां लिखते हैं. उनकी यह कहानी 'खोज' उनके ओड़िया कथा संकलन 'मैं क्यों कहानी लिखूंगा' से ली गई है. हिंदी में अनूदित उनकी यह पहली कहानी है, जिसका अनुवाद सुजाता शिवेन ने किया है. |
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