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40 वर्ष बाद...हाथों में हिंदी की सरस्वती

40 वर्ष बाद...हाथों में हिंदी की सरस्वती सरस्वती। आपने सही पढ़ा। हां! वही सरस्वती जिसके संपादन से महावीर प्रसाद द्विवेदी को "आचार्य" पद प्राप्त हुआ। हिंदी साहित्य के प्रथम आचार्य माने और जाने गए। ऐसी "पद प्रतिष्ठा" उनके पहले हिंदी साहित्य में किसी को भी प्राप्त नहीं हुई। महाप्राण निराला उन्हें ‘आचार्य’ कहते-लिखते थे। जाने-माने आलोचक डॉ. नामवर सिंह ने भी इस बात पर मुहर लगाई कि महावीर प्रसाद द्विवेदी ही हिंदी के प्रथम ‘आचार्य’ माने गए। उनके पहले इस ‘पद’ पर केवल संस्कृत के विद्वान ही प्रतिष्ठित किए जाते रहे।
   
वैसे तो सरस्वती के प्रकाशन का सफर 80 वर्ष का है लेकिन सरस्वती को प्रसिद्धि आचार्य द्विवेदी द्वारा किए गए संपादन के कालखंड में ही मिली। 1903 से 1920 तक आचार्य जी ने सरस्वती का कुशलता-सफलतापूर्वक संपादन किया। मनोयोग से किए गए कार्य की बदौलत ही "सरस्वती" हिंदी की सरस्वती बन पाई। महाप्राण निराला ने ‘खड़ी बोली के कवि और कविता’ नामक निबंध में इस तरह प्रमाणित भी किया था-"आज सरस्वती के जोड़ की हिंदी में कई पत्रिकाएं हैं पर उस समय ‘सरस्वती’ ही हिंदी की सरस्वती थी।"
   
इंडियन प्रेस इलाहाबाद से सरस्वती का प्रकाशन 1900 से प्रारंभ हुआ।  इसके प्रथम संपादक बाबू श्यामसुंदर दास हुए। इंडियन प्रेस-प्रयाग (ता इलाहाााद) के मालिक बंग भाषी बाबू चिंतामणि घोष ने काशी नागरी प्रचारिणी सभा से हिंदी में पत्रिका निकालने के संकल्प का हवाला देते हुए कोई अच्छा संपादक देने का अनुरोध किया। नागरी प्रचारिणी सभा ने बाबू श्याम सुुंदरदास का नाम सुझाया लेकिन उन्होंने अपनी व्यस्तता का हवाला देते हुए ज्यादा समय न दे पाने की मजबूरी जताई। इस पर बाबू चिंतामणि घोष ने उनकी सहायता में चार अन्य संपादक- किशोरी लाल गोस्वामी, कार्तिक प्रसाद खत्री, जगन्नाथदास रत्नाकर एवं बाबू राधाकृष्ण दास नियुक्त कर दिए। यह व्यवस्था दो वर्ष तक चली। सरस्वती में खड़ी बोली हिंदी में पहली कविता भी सहयोगी संपादक किशोरी लाल गोस्वामी की प्रकाशित हुई थी।
   
बाबू श्याम सुंदर दास की व्यस्तता के चलते बाबू चिंतामणि घोष सरस्वती के लिए सुयोग्य संपादक की तलाश में थे। इस बीच एक घटनाक्रम ऐसा हुआ जिसने चिंतामणि घोष की संपादक की तलाश पूरी कर दी। रेलवे की नौकरी करते हुए आचार्य द्विवेदी ने सरस्वती में अशुद्धियों पर एक आलोचनात्मक पत्र में कड़ी टिप्पणी लिखकर भेजी। यह पत्र लिखने के बाद आचार्य द्विवेदी के मन में यह विचार आया कि इंडियन प्रेस उन्हें कभी सरस्वती की सेवा का अवसर प्रदान नहीं करेगा लेकिन हुआ इसके उलट ही। यह पत्र पढ़ कर चिंतामणि घोष ने उन्हें सरस्वती का संपादन सौंपने का निश्चय कर लिया। उसी दौर में आचार्य द्विवेदी का झांसी में अपने रेलवे के अधिकारी से वाद-विवाद हो गया। उन्होंने रेलवे की नौकरी से इस्तीफा दे दिया. इसकी जानकारी होने पर  चिंतामणि घोष ने आचार्य द्विवेदी से सरस्वती का संपादन संभालने का अनुरोध किया। वर्ष 1903 में महावीर प्रसाद द्विवेदी ने रेलवे की डेढ़ सौ रुपए मासिक और 50 रुपए भत्ते ( कुल ₹200 ) वाली नौकरी से इस्तीफा देकर 20 रुपए मासिक और तीन रुपए डाक खर्च (23 रुपए मासिक) पर सरस्वती का संपादन संभाल लिया। हालांकि रेलवे ने उन्हें फिर से ज्वाइन करने का प्रस्ताव दिया लेकिन उनकी धर्मपत्नी ने ‘थूक कर चाटा नहीं जाता’ की नसीहत देकर पुन: ज्वाइन करने से रोक दिया। अपनी और धर्मपत्नी की मिली-जुली भावना को आचार्य द्विवेदी ने अपने लेख में लिखा भी है।
 
1920 तक अनवरत संपादन करने के बाद अपने स्वास्थ्य कारणों की वजह से आचार्य द्विवेदी शिक्षा से सरस्वती से मुक्त हो गए। त्यागपत्र देने के बाद 1921 के प्रथम अंक में आचार्य द्विवेदी ने अपना ‘विदाई’ लेख लिखा।  उन्होंने तमाम साहित्यकारों द्वारा अपने को हिंदी की सेवा का तमगा दिए जाने को विनम्रता से इनकार करते हुए साफ-साफ लिखा था कि हिंदी की असली सेवा तो गैर हिंदी भाषी बाबू चिंतामणि घोष ने की है। हमने तो  हिंदी के माध्यम से जीविकोपार्जन किया। स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति के बाद पदुमलाल पुन्नालाल बक्शी, देवी दत्त शुक्ल, उमेश चंद्र मिश्र पंडित, देवी दयाल चतुर्वेदी ‘मस्त’,  देवी प्रसाद शुक्ल, पंडित श्रीनारायण चतुर्वेदी और निशीथ कुमार राय ने सरस्वती का संपादन किया। वर्ष 1980 तक सरस्वती येन-केन प्रकारेण प्रकाशित होती रही। अपरिहार्य कारणों से 1980 के बाज सरस्वती का प्रकाशन बंद हो गया।
   
40 वर्षों बाद सरस्वती फिर से प्रकाशित हो रही है। फर्क बस इतना है कि पहले सरस्वती मासिक थी और अब त्रैमासिक लेकिन प्रकाशक इंडियन प्रेस इलाहाबाद ही है। इसका ‘प्रवेशांक’ आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी पर केंद्रित है। 325 पृष्ठों वाला यह प्रवेशांक "पुनर्नवा" नाम से निकला है। इसके संपादन का दायित्व संभाल रहे हैं केंद्रीय हिंदी संस्थान आगरा में हिंदी के प्रोफेसर श्री देवेंद्र कुमार शुक्ला। सहायक संपादक के तौर पर अनुपम  परिहार दायित्व पूर्ति में लगे हुए हैं। श्री शुक्ल बताते हैं कि चार अंको की सामग्री पहले से तैयार रख ली गई है। हालंकि, आचार्य द्विवेदी छह अंकों की सामग्री पहले से तैयार रखते थे।

चीन में पड़ा था सरस्वती के पुर्नप्रकाशन का "बीज"

बकौल, सरस्वती के नवनियुक्त संपादक प्रो. देवेंद्र कुमार शुक्ल-‘ बीजिंग विश्वविद्यालय-चीन में हिंदी के विजिटिंग प्रोफेसर के तौर पर नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा आचार्य द्विवेदी के सम्मान में भेंट किए गए ‘आचार्य अभिंनदन ग्रंथ’ की महात्मा गांधी और महीयसी महादेवी वर्मा द्वारा हस्ताक्षरित एक प्रति पुस्तकालय में देखने को मिली। उसी पुस्तकालय में सरस्वती के पहले अंक का आवरण भी देखने को मिला। उसी वक्त सरस्वती के पुनर्प्रकाशन का मन में ख्याल आया।’ वह बताते हैं कि 2012 में बीजिंग में ही रवींद्र नाथ टैगोर पर एक सेमिनार आयोजित किया गया था। उस सेमिनार में टैगोर की बायोग्राफर उमादास गुप्ता, रवींद्रनाथ  टैगोर के भाई अवनींद्र नाथ ठाकुर के पौत्र और इलाहाबाद विश्वविद्यालय में रसायन विभाग के विभागाध्यक्ष रहे प्रो. महेशचंद्र चट्टोपाध्याय से भेंट हुई। इन विद्वानों ने सरस्वती के पुन: प्रकाशन की चर्चा को बल देकर प्रेरित किया। पो. चट्टोपाध्याय ने सरस्वती के पुर्नप्रकाशन की बात फेसबुक पर भी लिखी लेकिन उस समय चीन में फेसबुक और गूगल पर प्रतिबंध था और आज भी है। प्रो. चट्टोपाध्याय ने इस संकल्प पर एक पत्र भी भेजा। प्रो. शुक्ल बताते हैं कि भारत लौटने के बाद वर्ष 2013 में उन्होने इलाहाबाद जाकर इंडियन प्रेस के एसपी घोष से मुलाकात भी की। इंडियन प्रेस में बाबू चिंतामणि घोष की आदमकद मूर्ति देखकर रोमांच सा हुआ। सरस्वती का एक बार फिर निकलना था तो संयोग पर संयोग बनते गए। वह बताते हैं कि वर्ष 2015-16 में इलाहाबाद के एंग्लो- बंगाली इंटर कॉलेज में ‘टैगोर और चीन’ विषय पर व्याख्यान देने का अवसर मिला। इस कॉलेज के अध्यक्ष प्रो. महेशचंद्र चट्टोपाध्याय ही थे। वहीं एक बार फिर चर्चा हुई। एसपी घोष से फिर मिले। यही सरस्वती को सहायक संपादक के रूप में युवा लेखक अनुपम परिहार भी प्राप्त हो गए. इंडियन प्रेस की सहमित मिलने के बाद सरस्वती के संपादक ने अपने कई विदेशी शिष्यों से सरस्वती के पुनर्प्रकाशन पर चर्चा की। चीन के शिष्य च्यांग चिंग ख्वे समेत कई शिष्यों ने प्रोत्साहित किया और ‘सरस्वती’ पुनर्प्रकाशित हो गई।

सरस्वती शीर्षक के बदले देनी पड़ी हिंदी की दीक्षा

सरस्वती के पुनर प्रकाशन  और  शीर्षक  आवंटन की कहानी बड़ी रोचक है.  इंडियन प्रेस की हरी झंडी मिलने के बाद  सरस्वती के नए संपादक प्रो. देवेंद्र शुक्ल ने नई दिल्ली के आरएनआई विभाग में सरस्वती के शीर्ष को प्राप्त करन का आवेदन किया। आरएनआई का दफ्तर केंद्रीय हिंदी संस्थान के कार्यालय के पास में ही था। 40 वर्ष तक लागतार बंद रहने की वजह से आरएनआई सरस्वती शीर्षक अपनी घोषणाओं से हटा चुकी थी।  उनके लिए यह एक नई मुसीबत थी। उस वक्त आरएनआई के रजिस्ट्रार जनरल दक्षिण भारतीय आईएएस अधिकारी मिस्टर गणेशन थे। सरस्वती शीर्षक के लिए प्रोफेसर शुक्ला ने उनसे मुलाकात की। उन्होने सरस्वती का पुराना शीर्षक आवंटित करने की एक शर्त रखी-‘हमें हिंदी सिखाओ।’ रजिस्ट्रार जनरल यह शर्त प्रोफेसर शुक्ला ने सहर्ष स्वीकार कर ली 15 दिन तक हिंदी सिखाने के एवज में मिस्टर गणेशन ने सरस्वती का वही पुराना शीर्षक आवंटित करा दिया। हालांकि, इस काम में ही एक साल लग गया।
   
विश्वास है कि 40 वर्षों बाद एक बार फिर पाठकों के हाथ में आई "सरस्वती" अपने नए सुयोग्य संपादक  प्रोफेसर देवेंद्र शुक्ला  के नेतृत्व में पुराने वैभव को प्राप्त करेगी. आचार्य द्विवेदी के अनुयायियों के लिए तो यह खार विशेष है ही और हिंदी के पाठकों को भी प्रफुल्लित करने वाली भी। आइए! हम सब बाबू श्यामसुंदर दास के संपादन से शुरू हुई और महावीर प्रसाद द्विवेदी को आचार्य पद दिलाने वाली "सरस्वती" को एक बार फिर हाथों हाथ लेकर हिंदी भाषी समाज में प्रतिष्ठित करें और प्रार्थना करें कि हिंदी की यह सरस्वती अब कभी विलुप्त ना हो और निरंतर हम हिंदी वालों का पथ प्रदर्शन करती रहे..
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