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जीना है तो सोचें अवश्य: रोशनी के पहियों पर हमने रख दिया अँधेरे का रथ! 

जीना है तो सोचें अवश्य: रोशनी के पहियों पर हमने रख दिया अँधेरे का रथ! 
इन दिनों दुनिया भर के अख़बार हर मोबाइल में घूम रहे हैं। ऐसा लग रहा है कि हर देश कलह, वेदना, आँसू और असंतोष के अनचीन्हे रास्तों पर है। हर देश अपने भीतर एक अघोषित गृहयुद्ध युद्ध लड़ रहा है। अख़बार में, रेडियो पर, वेबसाइट्स पर, मोबाइल फोन्स पर, ट्विटर, फेसबुक और इन्स्टाग्राम पर! ऐसा लगता है, लोगों ने अपनी आत्माओं और अपने दिलो-दिमाग़ को बिना सोचे-समझे कुरुक्षेत्र बना लिया है। हर जगह घृणा, जुगुप्सा, मान-अपमान और असंतोष का दरिया फूटा पड़ा है। हर व्यक्ति परस्पर सहमा-सहमा है। 
 
कई बार यह परिदृश्य डराने लगता है। किसी को भी न ज़मीन की सुध है और आसमान की। देशों की तो बात ही छोड़ दें। आजकल भारत का बहुत महिमागान करने वाले एनआरआई कभी इस देश की व्यवस्था को गाली देकर बाहर भागे थे; लेकिन अब पूरी दुनिया ही भारत-पाकिस्तान वाली घृणा को जी रही है तो उन्हें लग रहा है कि अपना घर ही सबसे सुकून भरा है। लेकिन धरती पर हर जगह हमने एक भय पैदा कर दिया है। धरती को, अपने देश या आसपास को हम इतना अप्रिय क्योंकर बना रहे हैं! 
 
क्या इतनी शक्ति और बुद्धि है हममें कि हम एक नई दुनिया बसा लें? क्या हम सूर्य पर कोई बस्ती बसा लेंगे? क्या हम किसी मंगल पर चले जाएंगे? क्या हम किसी चंद्रमा को पृथिवी की दूसरी आवासीय योजना का हिस्सा बना पाएंगे? अगर आज की मानसिकता के साथ हम मंगल पर चले भी गए तो वहाँ हम अमंगल ही लेकर जाएंगे! ज़रूरी है, पहले हम धरती पर जीने और रहने का सलीका सीखें। 
 
आख़िर आज दुनिया के लाेग यह क्यों नहीं समझते कि हमें घृणा नहीं अपार प्रेम की आवश्यकता है। हमें वह घृणा नहीं चाहिए, जो सरहदें खड़ी करती हैं। हमें हदें मिटाने वाले सघन प्रेम की आवश्यकता है। ऐसा प्रेम जो भरोसे और विश्वास में पगा हो। हमें अपने चारों तरफ फैले विभ्रम के जाले हटाने की ज़रूरत है। आप बताइए कि ऐसा कौनसा कालखंड है, जिसमें युद्ध, घृणा, अविश्वास और गृहयुद्धों के बाद शांति, सौहार्द या बंधुता की राह नहीं गही गई हो!
 
यह देहों और देशों के बीच की दूरियां मिटाने का समय है। ये आज जो सोशल डिस्टेंसिंग की पुकार है, वह बनावटी है और डरावनी है। दूरियां न देहों के बीच अच्छी हैं और न देशों के बीच। डर निकटता का नहीं होना चाहिए। डर होना चाहिए पाप का, मन में मैल का, तन की अस्वच्छता का! आत्मा की निर्मलता अगर है और देह शुद्ध है तो आप आलिंगन करो न! लेकिन देह का आलिंगन अगर देशों के आलिंगन में परिवर्तित नहीं हुआ तो इसका कोई मतलब नहीं है। अब समय आ गया है कि सारे देश मिलकर सारे बॉर्डर उठाएं। समस्त देश अपनी-अपनी सेनाओं को राष्ट्र रक्षा के नाम पर रक्तपिपासु नहीं, पुष्पवल्लरियों से देशों की सीमाओं को महका कर सारे दर्द मिटाकर इस दुनिया को 'स्वर्गादपि गरीयसी' बनाने के महान काम में योद्धा की भूमिका में उतारें। हर मन, मस्तिष्क और आत्मा में यही स्वर गुंजायमान होना चाहिए कि दूरियां दूर हों और नजदीकियों को कंठहार बनाया जाए। 
 
अगर दूरियां होंगी और हमारे भीतर प्रेम बरस नहीं रहा होगा तो हम एक जीवन क्या लाख जीवन में भी यह नहीं समझ पाएंगे कि हमारे चारों तरफ जो ग़लत हो रहा है, वह ग़लत भी है क्या! शांति की राहें आसान नहीं हैं, लेकिन यह भी सच है कि आप रक्त सींचकर शांति नहीं ला सकते। रक्त तो रक्त की ही वर्षा करेगा। तेरे आंसू और मेरे आंसू से तो पीड़ा की माला ही गुंथेगी! हम तलातुम से कब तक रस्साकशी करेंगे? अगर आकाश में सितारे इतने ख़ूबसूरत और इतने ग्रह अपने-अपने भीषण गुरुत्वीय बल के बावजूद इतनी सहजता से पूरे ब्रह्मांड में अनुपम संतुलन से हैं तो इस धरती के मुट्ठी भर देश क्या ऐसी ही सहजता और स्पृहणीय सौहार्द से नहीं रह सकते? 
 
सितारों में हम अपना भविष्य देखते हैं, लेकिन सच ये है कि सितारों की पुकार आसमान से ज़्यादा तो ज़मीन सुनती है। मगर आज इस ज़मीन की सभ्यता अपने बाल बिखेरे हुए घृणा और मौत का नाच-नाच रही है। किसी दूसरे देश के प्रति लड़कर जीतना तो दूर की बात है, अभी तो हमीं आपस में लड़ रहे हैं। ऐसा सिर्फ़ हमारे यहां ही नहीं, हर देश में हो रहा है। लोगों के दिलो-दिमाग़ में घृणा बुरे भविष्य के कंचे खेल रही है। हर सुबह और हर शाम कोई दोग़लापन लिए प्रकट होती है। लोग धरती की अमृत जैसी फिज़ाओं में जाने कब से ज़हर घोल रहे हैं। चँद्रमा इतना नायाब है और धरती इतनी ख़ूबसूरत; लेकिन हम अंधेरों को दूर करने के लिए रखे गए चरागों से अपनी रूह और सोच को रौशन करने के बजाय जला रहे हैं। हमारे बेहतर भविष्य का जो पहिया था, जिस पर जीवन की उम्मीदें थीं, उसे हमने मौत के रथ में लगा दिया है। जाने यह रथ हमें किस अंधकूप में ले जाकर गलाएगा!


#वरिष्ठ पत्रकार त्रिभुवन की वाल से.
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