स्वामी सहजानन्द सरस्वती: जिनके जीवन गाथा में निहित है जगत सन्देश
गोपाल जी राय ,
Feb 21, 2019, 17:15 pm IST
Keywords: Article Shajanand Inside Story Birth Anniversary Death Anniversary स्वामी सहजानन्द सरस्वती देवा गांव में 22 फरवरी 1889
स्वामी सहजानन्द सरस्वती का जन्म उत्तरप्रदेश के गाजीपुर जिले के देवा गांव में 22 फरवरी 1889 को महाशिवरात्रि के दिन हुआ था। चूंकि बचपन में ही उनकी माताजी का स्वर्गवास हो गया था, इसलिए पढ़ाई के दौरान ही उनका मन आध्यात्म में रमने लगा। फिर वह क्षण भी आया जब गुरु दीक्षा को लेकर उनके बाल सुलभ मन में धर्म की कतिपय विकृति के खिलाफ आंतरिक विद्रोह पनपा।
दरअसल, सनातन धर्म के अंधानुकरण के खिलाफ उनके मन में जो भावना पली बढ़ी थी, उसने सनातनी मूल्यों के प्रति उनकी आस्था को और गहरा किया। यूं तो वैराग्य भावना को देखकर बाल्यावस्था में ही उनकी शादी कर दी गई। लेकिन, संयोग ऐसा रहा कि सदगृहस्थ जीवन शुरू होने के पहले ही इनकी पत्नी का स्वर्गवास हो गया। इसके बाद उन्होंने विधिवत संन्यास ग्रहण की और दशनामी दीक्षा लेकर स्वामी सहजानंद सरस्वती हो गए।
कहा जाता है कि इसी दौरान स्वामी जी को काशी में समाज की एक और कड़वी सच्चाई से सामना हुआ। क्योंकि काशी के कुछ पंड़ितों ने उनके संन्यास का यह कहकर विरोध किया कि ब्राह्मणेतर जातियों को दण्ड धारण करने का अधिकार नहीं है। लेकिन स्वामी सहजानंद सरस्वती ने इसे चुनौती के तौर पर स्वीकार किया और विभिन्न उपयुक्त मंचों पर शास्त्रार्थ करके कालप्रवाह वश यह साबित कर दिया कि भूमिहार भी ब्राह्मण मूल की ही एक समृद्ध शाखा हैं और उनसे सम्बन्धित हर योग्य व्यक्ति संन्यास धारण करने की पात्रता रखता है।
कालांतर में किसानों की दुर्दशा देखकर स्वामीजी ने बिहार में एक असरदार किसान आंदोलन शुरू किया। तत्कालीन प्रसंगों से सम्बन्धित इतिहास गवाह है कि राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के नेतृत्व में जब असहयोग आंदोलन शुरू हुआ तो बिहार में भी उसने गति पकड़ी। क्योंकि बिहार में स्वामी सहजानंद सरस्वती ही उसके केन्द्र में थे। कहा जाता है कि संत होते हुए भी उन्होंने जगह-जगह घूमकर अंग्रेजी राज के खिलाफ लोगों को खड़ा किया। दरअसल, यह वह समय था जब स्वामी जी भारत वर्ष को समझ रहे थे और किसान हित में अपनी भूमिका तय कर रहे थे।
इसी क्रम में उन्हें एक अजूबा अनुभव हुआ। वह यह कि किसानों की हालत तो गुलामों से भी बदतर है। इसलिए युवा संन्यासी का मन एक बार फिर नये संघर्ष की ओर ऐसा उन्मुख हुआ कि वे किसानों को लामबंद करने की अपनी मुहिम में जुट गए और मरते दम तक इसे एक प्रतिष्ठित स्थान दिलवाया। यदि भारतीय राजनीति क्षुद्र स्वभाव की नहीं होती तो जब जब किसान हित की बात सोची जाती, तब तब उन योजनाओं को स्वामी सहजानन्द सरस्वती के नाम पर ही शुरू किया जाता। क्योंकि भारत के इतिहास में सर्वप्रथम संगठित किसान आंदोलन खड़ा करने और उसका सफल नेतृत्व करने का एक मात्र श्रेय यदि किसी को जाता है तो वह स्वामी सहजानंद सरस्वती जी को ही जाता है।
यह कौन नहीं जानता कि आजादी के लिए संघर्षरत कांग्रेस में रहते हुए भी स्वामी जी ने किसानों को जमींदारों के शोषण, दमन, उत्पीड़न और आतंक से मुक्त कराने का अपना अभियान जारी रखा। यही वजह है कि उनकी बढ़ती लोकप्रियता और सामाजिक सक्रियता से घबरा कर अंग्रेजों ने उन्हें कारागार में डाल दिया। लेकिन इससे स्वामी जी को और मजबूती मिली। खास बात यह रही कि जेल यात्रा के दौरान गांधी जी के कांग्रेसी अनुयायियों की सुविधाभोगी प्रकृति और उपभोगी प्रवृति को देखकर स्वामी जी दिल से हैरान रह गए थे। यही वजह है कि स्वभाव से विद्रोही चेतना के प्रतीक रहे स्वामी जी का कांग्रेस से मोहभंग होना शुरू हो गया।
इतिहास साक्षी है कि सन 1934 में जब बिहार प्रलयंकारी भूकंप से तबाह हुआ, तब स्वामी जी ने बढ़-चढ़कर राहत और पुनर्वास के काम में भाग लिया। इससे उनकी प्रसिद्धि खूब बढ़ी। इससे उत्साहित होकर स्वामी सहजानंद सरस्वती ने किसानों को हक दिलाने के लिए आजीवन संघर्ष को ही अपने जीवन का दीर्घकालिक लक्ष्य घोषित कर दिया। तब उन्होंने एक यादगार नारा दिया- "कैसे लोगे मालगुजारी, लठ हमारा जिन्दाबाद।" कहते हैं कि बाद में उनका यही नारा देशव्यापी किसान आंदोलन का सबसे प्रिय नारा बन गया।
अमूमन वे कहते थे कि अधिकार हम लड़ कर लेंगे और जमींदारी का खात्मा करके रहेंगे। इस बात में कोई दो राय नहीं कि स्वामी जी का ओजस्वी भाषण किसानों के दिलोदिमाग पर गहरा असर डालता था। यही वजह है कि काफी कम समय में ही किसान आंदोलन पहले पूरे बिहार में और फिर पूरे देश में फैल गया। बताया जाता है कि तब बड़ी संख्या में किसान लोग स्वामीजी को सुनने आते थे।
देखा जाए तो अपने सक्रिय सामाजिक और संतत्व जीवन के अंतिम दिनों में उन्होंने कांग्रेस के समाजवादी नेताओं से हाथ मिला लिया। उसके बाद अप्रैल, 1936 में कांग्रेस के लखनऊ सम्मेलन में अखिल भारतीय किसान सभा की स्थापना हुई, जिसमें स्वामी जी को उसका पहला अध्यक्ष चुना गया। उस दौर में एम जी रंगा, ई एम एस नंबुदरीपाद, पंड़ित कार्यानंद शर्मा, पंडित यमुना कार्यजी, आचार्य नरेन्द्र देव, राहुल सांकृत्यायन, राम मनोहर लोहिया, जयप्रकाश नारायण, पंडित यदुनंदन शर्मा, पी. सुन्दरैया और बंकिम मुखर्जी जैसे कई नामी गिरामी चेहरे किसान सभा से जुड़े थे जिनका सफल नेतृत्व और मार्गदर्शन उन्होंने किया।
यह स्वामी जी की जनप्रियता का ही तकाजा था कि उनके नेतृत्व में किसान रैलियों में जुटने वाली भीड़ कांग्रेस की सभाओं में शिरकत करने वाली भीड़ से कई गुना ज्यादा होती थी। उनके संगठन की लोकप्रियता का अंदाजा सिर्फ इसी बात से लगाया जा सकता है कि 1935 में इसके सदस्यों की संख्या अस्सी हजार थी जो 1938 में बढ़कर 2 लाख 50 हजार हो गयी। इसलिए किसान आंदोलन के सफल संचालन के लिए उन्होंने पटना के समीप बिहटा में अपना आश्रम स्थापित किया। वह सीताराम आश्रम आज भी है।
आपको पता होना चाहिए कि नेताजी सुभाष चंद्र बोस से भी स्वामी जी की गहरी नजदीकियां थीं। लिहाजा किसान हितों के लिए आजीवन संघर्षरत रहे स्वामी सहजानंद सरस्वती ने नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के साथ कई रैलियां की। विशेष बात यह कि जब आजादी की लड़ाई के दौरान स्वामी जी की गिरफ्तारी हुई तो नेताजी ने 28 अप्रैल को 'ऑल इंडिया स्वामी सहजानंद डे' घोषित कर दिया। उनके अलावा, बिहार के प्रमुख क्रांतिकारी लोक कवि बाबा नागार्जुन भी स्वामी जी के व्यक्तित्व से अति प्रभावित हुए थे। उन्होंने वैचारिक झंझावातों के दौरान बिहटा आश्रम में जाकर स्वामी जी से मार्गदर्शन प्राप्त किया था।
आमतौर पर स्वामी सहजानंद सरस्वती संघर्ष के साथ ही सृजन के भी प्रतीक पुरूष हैं। तभी तो अपनी अति व्यस्त दिनचर्या के बावजूद उन्होंने दो दर्जन से ज्यादा अविस्मरणीय पुस्तकों की रचना की। एक तरफ सामाजिक व्यवस्था पर उन्होंने 'भूमिहार ब्राह्मण परिचय', 'झूठा भय मिथ्या अभिमान', 'ब्राह्मण कौन', 'ब्राह्मण समाज की स्थिति' जैसी कालजयी पुस्तकें हिन्दी में लिखी, तो दूसरी ओर 'ब्रह्मर्षि वंश विस्तर' और 'कर्मकलाप' नामक दो ग्रंथों का प्रणयन संस्कृत और हिन्दी में किया। उनकी आत्मकथा 'मेरा जीवन संघर्ष' के नाम से प्रकाशित है।
'आजादी की लड़ाई और किसान आंदोलन के संघर्षों की दास्तान', उनकी 'किसान सभा के संस्मरण', 'महारुद्र का महातांडव, जंग और राष्ट्रीय आजादी', 'अब क्या हो', 'गया जिले में सवा मास' आदि पुस्तकों में दर्ज हैं। उन्होंने 'गीता ह्रदय' नामक भाष्य भी लिखा। किसानों को शोषण मुक्त करने और जमींदारी प्रथा के खिलाफ लड़ाई लड़ते हुए स्वामी जी 26 जून, 1950 को महाप्रयाण कर गए। इससे किसानों का इकलौता रहनुमा भी चला गया और किसान अनाथ हो गए। आज तक उन्हें अपने नाथ का बेसब्री से इंतजार है।
यह ठीक है कि उनके जीते जी जमींदारी प्रथा का अंत नहीं हो सका। लेकिन यह उनके द्वारा ही प्रज्ज्वलित की गई ज्योति की लौ ही है जो आज भी बुझी नहीं है, और चौराहे पर खड़े किसान आंदोलन को मूक अभिप्रेरित कर रही है। यूं तो आजादी मिलने के साथ हीं जमींदारी प्रथा को कानून बनाकर खत्म कर दिया गया। लेकिन आज यदि स्वामीजी होते तो फिर लट्ठ उठाकर देसी हुक्मरानों के खिलाफ भी संघर्ष का ऐलान कर देते। दुर्भाग्यवश, किसान सभा भी है और उनके नाम पर अनेक संघ और संगठन भी सक्रिय हैं, लेकिन स्वामीजी जैसा निर्भीक नेता दूर-दूर तक नहीं दिखता। किसी सियासी मृगमरीचिका में भी नहीं।
यह कड़वा सच है कि उनके निधन के साथ ही भारतीय किसान आंदोलन का सूर्य अस्त हो गया। सुप्रसिद्ध लेखक और राष्ट्रकवि दिनकर के शब्दों में कहें तो 'पददलितों का संन्यासी' चला गया और किसानों को अब भी उनके, या उन जैसे किसी किसान रहनुमा के लौटने की आस है, क्योंकि इतिहास खुद को दुहराता है! नाउम्मीदी हम हिंदुस्तानियों में होती भी कहाँ है? इसलिए इंतजार की घड़ियां गिन-गिन कर लोग अपना काम चला रहे हैं और उनकी या उन जैसों की बाट जोह रहे हैं।। गोपाल जी राय/वरिष्ठ पत्रकार और स्तम्भकार लेखक सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय अंतर्गत डीएवीपी के सहायक निदेशक हैं. |
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