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साहित्यकार भी, समाजसेवी भी और सबसे बढ़कर मां: महाश्वेता देवी

जनता जनार्दन संवाददाता , Jan 14, 2019, 18:20 pm IST
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साहित्यकार भी, समाजसेवी भी और सबसे बढ़कर मां: महाश्वेता देवी

आज महाश्वेता का जन्मदिन है. अगर वह जिंदा होतीं, तो 93 की होतीं. अपने नाम की ही तरह साफ, उजली और सफ्फ़ाक. उन्होंने ताउम्र लेखन व संघर्ष उनके लिए किया जो जूझ रहे थे अपनी पहचान के लिए. इसीलिए वह बड़ी साहित्यकार थीं. शिक्षक भी समाजसेवी भी. किसी एक खांचे में उन्हें अलग करना मुश्किल है. वह मां थी, एक दो की नहीं हजार चौरासी की मां... अनगिनत की मां.

महाश्वेता देवी का जन्म 14 जनवरी, 1926 को ढाका में हुआ था. पिता मनीष घटक एक कवि और एक उपन्यासकार थे, तो माता धरित्री देवी भी लेखिका और सामाजिक कार्यकर्ता. सो बचपन से ही साहित्य, समाज और सेवा सर्वोपरि रही. शिक्षा तो घुट्टी में मिली ही थी. देश का विभाजन हुआ तो किशोरवय की महाश्वेता कोलकाता आ गईं.

यहां विश्वभारती विश्वविद्यालय, शांतिनिकेतन से अंग्रेजी प्रतिष्ठा में स्नातक और कोलकाता विश्वविद्यालय से अंग्रेजी में स्नातकोत्तर की डिग्री ली. वह जन्मजात एक शिक्षक और पत्रकार थीं. कलकत्ता विश्वविद्यालय में अंग्रेजी व्याख्याता के रूप में नौकरी की लेकिन 1984 में सेवानिवृत्त ले पूर्णकालिक लेखक बन गईं. 'झांसी की रानी' महाश्वेता देवी की प्रथम गद्य रचना थी, जो 1956 में छपी.

खुद महाश्वेता देवी के शब्दों में, 'इसको लिखने के बाद मैं समझ पाई कि मैं एक कथाकार बनूंगी.'  उनका पहला उपन्यास 'नाती' 1957 में छपा. वह कविता से शुरू कर कहानी और उपन्यास जगत में आईं और छा गईं. उन्होंने सौ के करीब उपन्यास और दर्जनों कहानी संग्रह लिखे. उनकी प्रमुख कृतियों में अग्निगर्भ, मातृछवि, नटी, जंगल के दावेदार, मीलू के लिए, मास्टर साहब शामिल है. साहित्य अकादमी से पुरस्कृत उनका उपन्यास 'अरण्येर अधिकार' आदिवासी नेता बिरसा मुंडा की गाथा है. उपन्यास 'अग्निगर्भ' में नक्सलबाड़ी आदिवासी विद्रोह की पृष्ठभूमि में लिखी गई चार लंबी कहानियां शामिल हैं.

महाश्वेता देवी की कई रचनाओं भारत की अधिसूचित जनजातियों, आदिवासी, दलित, शोषित, वंचित समुदाय के स्वर बहुत प्रभावी ढंग से उभरे हैं. उनकी कई रचनाओं पर फ़िल्म भी बनी, जिनमें उपन्यास 'रुदाली' पर कल्पना लाज़मी ने 'रुदाली' तथा 'हजार चौरासी की मां' पर इसी नाम से फिल्मकार गोविंद निहलानी ने फ़िल्म बनाई.

महाश्वेता देवी को 1979 में साहित्य अकादमी पुरस्कार, 1986 में पद्मश्री और 1997 में ज्ञानपीठ पुरस्कार, 2006 में पद्म विभूषण और 2011 में बंग बिभूषण पुरस्कार से सम्मानित किया गया था. वह ऐसी पहली लेखिका थीं, जिन्होंने दक्षिण अफ्रीकी अश्वेत आंदोलन के महान नेता नेल्सन मंडेला के हाथों ज्ञानपीठ पुरस्कार ग्रहण किया. इस पुरस्कार में मिले 5 लाख रुपए उन्होंने बंगाल की पुरुलिया आदिवासी समिति को दे दिया था.

उनकी अधिकांश किताबों के हिंदी में अनुवाद हो चुके हैं. जिनमें अक्लांत कौरव, अग्निगर्भ, अमृत संचय, आदिवासी कथा, ईंट के ऊपर ईंट, उन्तीसवीं धारा का आरोपी, उम्रकैद, कृष्ण द्वादशी, ग्राम बांग्ला, घहराती घटाएँ, चोट्टि मुंडा और उसका तीर, जंगल के दावेदार, जकड़न, जली थी अग्निशिखा, झांसी की रानी, टेरोडैक्टिल, दौलति, नटी, बनिया बहू, मर्डरर की मां, मातृछवि, मास्टर साब, मीलू के लिए, रिपोर्टर, रिपोर्टर, श्री श्री गणेश महिमा, स्त्री पर्व, स्वाहा और हीरो-एक ब्लू प्रिंट आदि शामिल हैं.

यह महाश्वेता देवी की अपनी अहमियत ही है कि आज उनके जन्मदिन पर पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने उन्हें अपनी प्रेरणा करार देते हुए ट्वीट किया, 'महाश्वेता दी की जयंती पर उनकी याद आ रही है. वह मुश्किल समय में मेरी और कई अन्य की असल प्रेरणा हैं. हम उन्हें याद करते हैं.' ममता बनर्जी ने आगे लिखा, 'साहित्य जगत में योगदान के अलावा जनजातीय एवं वंचित समुदायों के लिए उन्होंने जो काम किया, वह हमारे लिए प्रेरणादायी है.'

याद रहे कि साल 2011 में पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव से पहले 'परिवर्तन' की अपील करते हुए तृणमूल कांग्रेस सुप्रीमो का समर्थन किया था. उन्होंने नंदीग्राम आंदोलन में भी सक्रिय भागीदारी की थी और पूर्व की माकपा सरकार की औद्योगिक नीति के खिलाफ आंदोलन का नेतृत्व किया था.

पाठकों के लिए प्रस्तुत है महाश्वेता की जयंती पर उनकी ही एक चर्चित कविता.

आ गए तुम,

द्वार खुला है अंदर आओ…!

पर तनिक ठहरो,

ड्योढ़ी पर पड़े पायदान पर

अपना अहं झाड़ आना…!

मधुमालती लिपटी हुई है मुंडेर से,

अपनी नाराज़गी वहीं

उंडेल आना…!

तुलसी के क्यारी में,

 

मन की चटकन चढ़ा आना…!

अपनी व्यस्तताएं,

बाहर खूंटी पर ही टांग आना.

जूतों संग हर नकारात्मकता

उतार आना…!

बाहर किलोलते बच्चों से

थोड़ी शरारत मांग लाना…!

वो गुलाब के गमले में मुस्कान लगी है,

तोड़ कर पहन आना…!

लाओ अपनी उलझनें

मुझे थमा दो,

तुम्हारी थकान पर

मनुहारों का पंखा झुला दूं…!

देखो शाम बिछाई है मैंने,

सूरज क्षितिज पर बांधा है,

लाली छिड़की है नभ पर…!

प्रेम और विश्वास की मद्धम आंच पर

चाय चढ़ाई है,

घूंट घूंट पीना,

सुनो, इतना मुश्किल भी नहीं है जीना…!

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