2019 लोकसभा चुनाव से भारतीय लोकतंत्र एवं राजनीति का रोडमैप होगा निर्धारित
प्रोफेसर शशिकान्त पाण्डेय, डॉ अमित सिंह ,
Jan 13, 2019, 18:43 pm IST
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पूर्वप्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने वर्तमान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पर तंज कसते हुए कहा कि मैं ऐसा प्रधानमंत्री नहीं था जो मीडिया से बात करने से डरता हो। दरअसल, राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ के हिन्दीभाषी राज्यों में भाजपा की हार से राजनीतिक-परिदृश्य और भविष्य के चुनावी गणित में भारी बदलाव आया है। मार्च 2018 में त्रिपुरा में 25 साल पुरानी मार्क्सवादी दल को धूल चटाने वाली भाजपा का विजयी रथ थमने का नाम नहीं ले रहा था। अब राजनीतिक परिदृश्य, परिस्थिति और मनःस्थिति में नई संभावनाएँ आकार ले रही हैं। मसलन-राहुल गांधी की छवि बेहतर हुई है। कांग्रेस में एक नया आत्मविश्वास दिखाई दे रहा है। तीसरे-मोर्चे और चौथे मोर्चे की सुगबुगाहट और फुसफुसाहट शुरू हो गई है। लेकिन याद रखना होगा कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की व्यक्तिगत लोकप्रियता में कोई खास परिर्वतन नहीं आया है। दूसरा-राजस्थान और मध्य-प्रदेश में भाजपा और कांग्रेस के मध्य वोटों के प्रतिशत में मामूली अन्तर है। ऐसे में सरकार-विरोधी लहर, भ्रष्टाचार, उदासीन नौकरशाही, गलत टिकट वितरण, कार्यकताओं की उपेक्षा जैसे जमीनी कारण के अतिरिक्त दो-तीन ऐसी प्रवृत्तियाँ उभर कर आई हैं जो वर्ष 2019 के आगामी लोकतंत्र की दशा, दिशा और जीत को प्रभावित कर सकती है।
इन कारणों में सर्वाधिक महत्वपूर्ण है एसटी-एससी वोटरों की राणनीतिक वोटिंग। हमें यह याद रखना होगा कि वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव में एसटी-एससी की बहुलता वाले मध्य-प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान के 65 लोकसभा सीटों में कांग्रेस को केवल एक सीट पर जीत मिली थी, लेकिन वर्ष 2018 के विधान सभा चुनाव में कांग्रेस ने अपनी राजनीतिक जमीन पुख्ता की है तथा इन सीटां पर भाजपा को खासा नुकसान झेलना पड़ा है। राजस्थान के दलित बहुलता वाले 36 सीटां में वर्ष 2013 के विधान सभा चुनाव में भाजपा को 32 सीटों पर सफलता मिली थी। वहीं, 2018 के विधान सभा चुनाव में भाजपा को केवल 11 सीटों पर जीत हासिल हुई यानि करीब 21 सीटों पर कांग्रेस का लाभ हुआ। कुछ यही हालात मध्य प्रदेश का भी है। मध्य प्रदेश में 13 सीट में दलित मतदाता निर्णायक हैं। वर्ष 2013 के विधान सभा चुनाव में भाजपा को 13 में से 8 सीट पर जीत हासिल हुई थी लेकिन वर्ष 2018 के विधान सभा चुनावों में कांग्रेस को आठ सीटों पर सफलता मिली। अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति के वोटिंग पैटर्न का स्वाभाविक परिणाम यह रहा कि भाजपा की हिन्दूवादी राजनीति एवं रणनीति विफल होती दिखार्द दे रही है। यद्यपि लोकसभा और विधान सभा का चुनावी गणित एवं व्यवहार एक दूसरे से अलग होता है फिर भी इतना साफ है कि मध्यम वर्ग को अब राम-मन्दिर, राष्ट्रवाद और अक्रामक-हिन्दूवाद का मुद्दा अब रास नहीं आ रहा है। एसटी-एससी एक्ट के बाद भाजपा का व्यवहार सवर्णां एवं दलितों-दोनों को नाराज एवं क्षुब्ध कर चुका है। इस जातिगत पृष्ठभूमि में ’धर्म की राजनीति’ को एक बार फिर ’जाति की राजनीति’ फिकी कर रही है। अर्थात्, धार्मिक गोलबन्दी एवं ध्रुवीकरण का विजयी फार्मूला अब भाजपा को शायद वर्ष 2014 की तरह सत्ता की सवारी नहीं करा पायेगा ऐसी भविष्यवाणी की जा सकती है। भाजपा बनाम कांग्रेस और मोदी बनाम राहुल गांधी के चर्चित और लोकप्रिय विमर्श के बजाय भारतीय राजनीतिक परिदृश्य में किसानों की ऋणमाफी के मुद्दों के माध्यम से किसानों और किसानी मुद्दा भारतीय राजनीति के चुनावी-विमर्श में छा जाना वर्ष 2018 की सबसे सुखद राजनीतिक मोड़ है और उपलब्धि भी। सर्वविदित है कि वर्ष 1995 से 2018 तक करीब तीन लाख किसानों ने आत्महत्या की है। अफसोसजनक रूप से, ये मौत चुनावी मुद्दा नहीं बन पा रहे थें। राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में नये मुख्यमंत्रियों ने सत्ता संभालते ही पहला काम कर्जमाफी का किया। देखादेखी यही काम भाजपा ने गुजरात और असम में भी किया। इससे पहले उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने भी किसानों की कर्जमाफी का वायदा पूरा किया था। इन उदाहरणों का स्पष्ट संकेत है कि किसानों की ऋणमाफी का मुद्दा वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव में एक बड़ा मुद्दा बन कर उभर सकता है।
वर्ष 2018 महत्वपूर्ण संवैधानिक-निकायों एवं संस्थाओं के उथल-पुथल का साक्षी बना। बारह जनवरी को सर्वोच्च न्यायालय के चार जजों ने प्रेस कॉन्फ्रेंस कर बयान दिया कि लोकतंत्र खतरे में है। इस बयान के बाद समूचा भारत सकते में आ गया। संसद से सड़क तक इन बयानों से संबंधित चिन्ता, दुविधा और अकुलाहट दिखाई दी। आगे चलकर दीपक मिश्रा की सम्मानित विदाई और रंजन गोगोई का सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायधीश बनने से यह संकट टला। इस दौरान, तीन-तलाक, सबरीमाला, आधार-कार्ड और समलैंगिकता के संबंध में दिये गए सर्वोच्च न्यायालय के फैसलों ने साबित किया कि भारतीय लोकतंत्र उदारवादी दिशा में प्रगतिशील है। यद्यपि भीड़ की हिंसा, अर्बन-नक्सलवाद, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और राष्ट्रवाद का बहस भी राम-मंदिर की तरह चर्चा में आता-जाता रहा। सीबीआई के आला अफसरों में तुच्छ एवं क्षुद्र लड़ाई, रिजर्व-बैंक के गर्वनर उर्जित पटेल का इस्तीफा से भारतीय लोकतंत्र एवं जनमानस सकते में है। इस पृष्ठभूमि में वर्ष 2019 का लोकसभा का चुनाव महत्वपूर्ण एवं निर्णायक साबित होगा। इस चुनाव से केवल भारत के नए प्रधानमंत्री का चुनाव नहीं होगा बल्कि इससे भारतीय लोकतंत्र एवं राजनीति का नया रोडमैप भी निर्धारित होगा। वर्ष 2018 का स्पष्ट संकेत और संदेश यही है। * लेखक डॉ शशिकान्त पाण्डेय बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर केन्द्रीय विश्वविद्यालय, लखनऊ में प्रोफेसर और डॉ. अमित सिंह आर. एस. एम. (पी० जी०) कालेज, धामपुर में प्रवक्ता हैं. |
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