वाजपेयी ने मौत की आंखों में झांककर लिखी थी कविताएं
जनता जनार्दन डेस्क ,
Aug 17, 2018, 16:07 pm IST
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नई दिल्लीः पूर्व प्रधानमंत्री दिवंगत अटल बिहारी वाजपेयी जितने राजनेता के रूप में सराहे गए उससे कहीं ज्यादा अपनी कविताओं के लिए चर्चित रहे। जब उनके निधन की खबर आई तो बरबस उनकी कविताएं भी लोगों की आंखों के सामने तैरने लगे।
वाजपेयी ने कई दफे अभिव्यक्ति के लिए कविता को माध्यम बनाया। वर्ष 1988 में जब वह किडनी के इलाज के लिए अमेरिका गए तो प्रसिद्ध साहित्यकार धर्मवीर भारती को पत्र लिखा। उस पत्र में उन्होंने मौत की आंखों में झांककर 'मौत से ठन गई..' कविता के जरिये अपनी अभिव्यक्ति लिखी थी। वाजपेयी जी लंबे समय से बीमारी की वजह से खामोश थे। अगर उनके पास आवाज होती तो शायद आखिरी दिनों में मौत ठन गई सरीखी कविता के जरिये ही अभिव्यक्ति करते.. कविता का अंश कुछ यूं है.. ठन गई! मौत से ठन गई! जूझने का मेरा इरादा न था, मोड़ पर मिलेंगे इसका वादा न था, रास्ता रोक कर वह खड़ी हो गई, यों लगा जि़न्दगी से बड़ी हो गई। मौत की उमर क्या है? दो पल भी नहीं, जि़न्दगी सिलसिला, आज कल की नहीं। मैं जी भर जिया, मैं मन से मरूं, लौटकर आऊंगा, कूच से क्यों डरूं? धर्मवीर भारती को लिखे पत्र में वाजपेयी ने बताया था कि डाक्टरों ने सर्जरी की सलाह दी है। सर्जरी के नाम से उनके मन में एक प्रकार का ऊथल-पुथल मचा हुआ था और इस मनोदशा के बीच उन्होंने यह कविता लिखी थी। दिलचस्प पहलू यह भी है कि वाजपेयी को अमेरिका भेजने के पीछे तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी थे। राजीव ने संयुक्त राष्ट्र जाने वाले प्रतिनिधिमंडल में वाजपेयी का नाम शामिल किया था, ताकि वे वहां अपना इलाज करा सकें। वाजपेयी इस बात के लिए राजीव सराहना किया करते थे और कुछेक बार तो उन्होंने कहा भी था कि वे राजीव की वजह से जिंदा हैं। वाजपेयी की कविताएं जीवन का नजरिया भी हैं.. खून क्यों सफेद हो गया? भेद में अभेद हो गया। बंट गए शहीद, गीत कट गए, कलेजे में कटार दड़ गई। दूध में दराड़ पड़ गई। उनकी कविताएं समाज के ताने-बाने के बीच साथ मिलकर चलने की ओर इशारा भी करती हैं.. बाधाएं आती हैं आएं, घिरे प्रलय की घोर घटाएं, पांवों के नीचे अंगारे, सिर पर बरसें यदि ज्वालाएं निज हाथों में हंसते-हंसते आग लगाकर जलना होगा कदम मिलाकर चलना होगा। वाजपेयी ने अपनी कविता जरिये बापू से क्षमा भी मांगी और जयप्रकाश को राजनीतिक विरासत को आगे बढ़ाने का भरोसा भी दिया.. क्षमा करो बापू! तुम हमको, वचन भंग के हम अपराधी, राजघाट को किया अपावन, मंजि़ल भूले, यात्रा आधी। जयप्रकाश जी! रखो भरोसा, टूटे सपनों को जोड़ेंगे। चिताभस्म की चिंगारी से, अंधकार के गढ़ तोड़ेंगे। वाजपेयी ने कौरव और पांडव की उपमाओं के जरिये आज की सत्ता और जनता के बीच के संबंधों को व्याख्यायित करने की कोशिश की है जो आज के दौर में भी सटीक बैठती है.. कौरव कौन कौन पांडव, टेढ़ा सवाल है दोनों ओर शकुनि का फैला कूटजाल है धर्मराज ने छोड़ी नहीं जुए की लत है हर पंचायत में पांचाली अपमानित है बिना कृष्ण के आज महाभारत होना है, कोई राजा बने, रंक को तो रोना है और आज के सच को वाजपेयी ने कुछ इस तरह व्यक्त किया, जिन्होंने कभी लिखा था 'गीत नया गाता हूं' उन्होंने ही लिखा गीत नहीं गाता हूं.. बेनकाब चेहरे हैं, दाग बड़े गहरे हैं, टूटता तिलस्म, आज सच से भय खाता हूं। गीत नहीं गाता हूं। एक कवि के रूप में भी वाजपेयी ने 'क्रांति और शांति' दोनों ही राग को धार दी। उनकी कविताएं उन्हीं के शब्दों में जंग का ऐलान है, पराजय की प्रस्तावना नहीं। उनकी कविता हारे हुए सिपाही का नैराश्य-निनाद नहीं, जूझते योद्धा का जय-संकल्प है। वह निराशा का स्वर नहीं, आत्मविश्वास का जयघोष है। 'हार नहीं मानूंगा', 'गीत नया गाता हूं', 'ठन गई मौत से' जैसी कविताओं से उनका परिचय परिभाषित होता है और यह भी कि उनकी सोच कितनी व्यापक थी। 'मेरी इक्यावन कविताएं' उनके प्रखर लेखन का अद्भुत परिचय है। कभी कुछ मांगा भी तो बस इतना.. मेरे प्रभु! मुझे इतनी ऊंचाई कभी मत देना गैरों को गले न लगा सकूं इतनी रूखाई कभी मत देना। |
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