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क्या हम ज्ञान, विज्ञान, विवेक और अपने मानसिक स्वस्थता से विमुख नहीं हो रहे हैं?

क्या हम ज्ञान, विज्ञान, विवेक और अपने मानसिक स्वस्थता से विमुख नहीं हो रहे हैं? यह एक ख़तरनाक़ समानता है कि देश में निरीह मुस्लिमों के मॉब लिंचिंग मर्डर, ज्ञान-विज्ञान और विवेकवाद की बात करने वालों की हत्याएं और उन पर हमले और सुकुमार और असहाय बालिकाओं से नृशंस बलात्कार की घटनाएं एक साथ और एक ही तरह से चिंताजनक ढंग से बढ़ी हैं। यह सोचने की बात है कि क्या इन तीनों तरह की घटनाओं के बीच कोई अंतर्संबंध है? जी हां है। हम जिस रुग्ण मानसिकता का सामना कर रहे हैं, वह नाना रूप लेकर हमें संत्रस्त कर रही है और करेगी। इसलिए जो लोग अपनी धर्मांधता के चलते इसके मज़े ले रहे हैं या चुप बैठे हैं, वे इस देश के हितचिंतक नहीं हैं। उन सबको अपने आपको मनोचिकित्सकों को उसी तरह दिखाना चाहिए, जिस तरह हम अपने नियमित स्वास्थ्य की जांच कराते हैं।

हरियाणा में एक रंगासियार बाबा पहले भक्तिभाव का झांसा देकर महिलाओं को फांसता है और फिर उनमें से एक दो नहीं, 120 महिलाओं से बलात्कार करता है। हमारी संस्कृति पत्नी के अलावा बाकी सभी से बहन या मां जैसा व्यवहार करने की सीख देती है, लेकिन अगर हम इसे न भी मानें तो कम से कम एक मर्यादित व्यवहार तो होना ही चाहिए।

रंगासियार बाबा उन महिलाओं के विडियो टेप्स बनाता है और उन्हें ब्लैकमेल करता है। एक और रंगासियार बाबा एक बालिका से बलात्कार करता है और उम्रकैद की सज़ा पाता है। कई दूसरे रंगेसियार बाबा दूसरी तरह के धत्कर्म करते हैं। एक स्वयंभू संत अपने को राम और रहीम का अवतार घोषत कर देता है और घिनौने अपराध करते हुए पकड़े जाता है। इसके बावजूद हम देखते हैं, न्यायाधीश, चिकित्साधिकारी और बड़े-बड़े लोग इस रंगे सियार के  सामने श्रद्धावनत होने जेल तक में जाते हैं।

हम में कुछ इन घटनाओं की आलोचना करते हैं और कुछ चुप रहते हैं। और कुछ प्रश्न उठाते हैं कि इस देश में सिर्फ़ हिन्दू बाबाओं पर ही कार्रवाई हाेती है। हमें अपने शासक वर्ग ने पिछले 70 साल में इतना धर्मांध और विवेकहीन बना दिया है कि हम अपनी नन्ही और सुकुमार बेटियों के साथ अन्याय और अत्याचार करने वाले भेड़ियों को आज वंदनीय सा समझने लगे हैं। और उनके पक्ष में बेशर्मी और बेहयाई से तर्कवितर्क करते हैं। सच तो ये है कि भेड़िए भी ऐसा नहीं करते। सचमुच में तो ये इन्सानियत के नाम पर बदनुमा धब्बे हैं, जिनमें अक्सर हमारे राजनेता अपने फ़ायदे के लिए अपना-अपना रंग भरकर अपना गणित मज़बूत करते हैं।

कुछ दुष्ट ईसाई ननें बच्चों को बेचते हुए पाई जाती हैं। और हम पूरी ईसाइत को दुष्ट साबित करने में जुट जाते हैं। यहां तक कि मदर टेरेसा जैसी देवी तक को लांछित करने से बाज नहीं आते।

कुछ हिंसक दुष्ट और अत्याचारी इस्लामी नाम, लंबी दाढ़ी और सफाचट मूछ और पगड़ी धारण कर जे़हादी नारे लगाते हैं। इस धरती पर हिंसाचार मचाते हैं। हम पूरे धर्म को कठघरे में खड़ा कर देते हैं। न उन्हें किसी कुरआन का पता है और न किन्हीं मुहम्मद साहब का। वे वैसे ही पालतू और मानसिकदास हैं, जैसे हमारे इधर हैं। हर दुष्टता अपना तर्क गढ़कर कोशिश करती है कि वह हिंसा, रक्तपात और अमानवीयता को सही ठहराए। फिर चाहे वह किसी भी धर्म से जुड़ा आतंकवाद हो या किसी विचारधारा से। वह किसी राज्य की हिंसा हो या किसी माता-पिता-पति-गुरु-शिक्षक या बॉस की।

एक साधु एक धार्मिक यात्रा के बारे में कहता है कि यह वह चीज़ नहीं है, जो दिखाई दे रही है या बताई या समझी जा रही है। जैसे अमरनाथ यात्रा। हमारे बहुत से साधु-संन्यासी कहते रहे हैं कि यह शिव लिंग नहीं है। हमारे ज्योग्राफी या भूगोल पढ़ाने वाले शिक्षकों ने हमें पढ़ाया है कि शिव लिंग जैसी आकृतियां दरअसल स्टेलैग्माइट हैं, जो बर्फीली गुफाओं में अपने आप बन जाती हैं। आप चाहें तो आज ही और अभी भूगोल के किसी सुविज्ञ शिक्षक को कॉल करके या मिलकर पूछ सकते हैं कि स्टेलैग्माइट क्या होते हैं?

हमारे और आपको घरों के रेफ्रिजरेटर के डीप फ्रीजर में अक्सर ऐसी आकृतियां पाई जाती हैं। वह साधु कहता है कि हम भोलेपन में यह मान बैठते हैं कि यह कोई ईश्वरीय चीज़ है। लोग उनके इस तर्क पर कहते हैं, आप हमारी धार्मिक भावनाओं को ठेस लगाते हो। हम आपको सबक़ सिखाएंगे और उन्हें पीट डालते हैं। क्या इसका साफ़ सा मतलब ये नहीं कि हम विज्ञान के साथ हिंसक हो उठे हैं?

कबीर ने ऐसी ही कितनी ही चीज़ें कही हैं। जैसे कांकर पाथर जोरि कै मसीत लई चिनाय, ता चढ़ि मुल्ला बांग दे, क्या बहिरा हुआ खुदाय? आप देखिए, कबीर मुल्लों को मुर्गा तक कह देते हैं यानी कि आप बांग दे रहो हो। उन्होंने हिंदुओं को लेकर भी ऐसे कितने ही तंज कसे। कबीर ने कहा: ना जाने तेरा साहिब कैसा है। मसजिद भीतर मुल्ला पुकारै, क्या साहिब तेरा बहिरा है। चिंउटी के पग नेवर बाजे, सो भी साहिब सुनता है। पंडित होय के आसन मारै, लम्बी माला जपता है। अन्दर तेरे कपट कतरनी, सो भी साहब लखता है।''

दयानंद ने काशी में पाखंड-खंडिनी गाड़ी और हिन्दू धर्म के किसी भी संप्रदाय को बख्शा नहीं और एक-एक की जमकर ख़बर ली। यहां तक कि उन्होंने अंगरेज़ के शासन के बावजूद बाइबिल की अवैज्ञानिक बातों पर कड़े प्रहार किए, लेकिन किसी वायसरॉय या किसी कलेक्टर ने उन्हें कुछ नहीं कहा। बल्कि उन्हें सुरक्षा मुहैया करवाने तक को कहा। और आज हमारी सरकार? इस सरकार के आईएएस और आईपीएस? क्या इसदिन के लिए वे जन्मे थे कि किसी को सुरक्षा भी नहीं दिला पाएं और लोग मोबलिंचिंग करें? ये सबके सब भारतीय सिविल सेवा के इतिहास को आज शर्मसार करने जा रहे हैं। कानून और व्यवस्था की पूरी जिम्मेदारी है और हम नाहक ही नेताओं को गालियां दुकर अपना गुस्सा शांत कर रहे हैं।

दयानंद वह पहले शख्स थे, जिन्होंने दारुल उलूम के लिए 500 रुपए का चंदा आज से 140 साल पहले दिया और कामना की कि इस्लाम में भी धर्मसुधार आंदोलन या पुनर्जागरण का अभियान शुरू होगा। लेकिन नहीं हो पाया। उन्होंने मुस्लिम विद्वानों के बीच जाकर मक्का की प्राचीनतम मस्जिद को लेकर साफ़ कहा : आप लोग कहते हो, मुहम्मद साहब ने हमें प्रतिमा या मूर्तिपूजन से मुक्त कर दिया। अाप अपने आपको बुतपरस्त नहीं, बुतशिकन कहते हो; लेकिन आप सब तो मक्का जाकर उस प्राचीन मस्जिद में जाकर शीश नवाते हो। क्या यह ऐसा नहीं है कि आपने घर से बिल्ली तो निकाल दी, लेकिन ऊंट प्रवेश कर गया? ऐसा नहीं कि हिन्दू तो पाखंडी है और मुसलमान नहीं। या मुसलमान तो पाखंडी है या हिन्दू नहीं।  दरअसल ये आदमी ही फ़ितरती है। क्या ऐसा नहीं कि हमने सब धार्मिक यात्राअों को पाखंड में बदल दिया है। इस्लामिक विद्वानों के अनुसार हज दरअसल एक ऐसा जेहाद है, जो हमारी बुराइयों के लिए अपने भीतर लड़ते हैं। लेकिन क्या ऐसा है? जो हाजी हो गया मतलब वैसा हो गया जैसा एक सच्चा संन्यासी हो गया। लेकिन क्या होता है? संन्यासी हो गया मतलब एक सच्चा हाजी हो गया। लेकिन क्या ऐसा होता है?

दयानंद का तर्क था कि जब कुरआन के अनुसार अगर ईश्वर या अल्लाह निराकार है और वह सर्वव्यापक है तो फिर क्या मक्का और क्या हिंदुस्तान, वह सब जगह एक जैसा है।

ये तर्क वितर्क चलते रहे हैं। लेकिन इन दिनों जैसा हम लोगों का आचरण हो रहा है, क्या वह यह नहीं बताता कि हम अपना विवेक खो रहे हैं और हम स्वयं ही अपनी बुद्धि पर एक अवांछित अज्ञान की परत चढ़ाने को आतुर हैं। आज जो भीड़ दूध पीने के लिए गाय ले जा रहे अकबर की हत्या कर रही है, क्या वह कल किसी राम की सीता को भी अपनी हिंसा का शिकार नहीं बनाएगी? हमारी बहनें, हमारी बेटियां सीता सी ही तो पवित्र हैं। इस देश की ही नहीं, इस धरती की। सबकी सब। और अगर कोई और लोक है तो उसकी भी।

# वरिष्ठ पत्रकार, चिंतक लेखक त्रिभुवन अपने स्तंभो और विचारों के साथ-साथ फेसबुक पर भी खासे चर्चित हैं. वहां उनकी टिप्पणियां खूब प्रतिक्रिया बटोरती हैं. देश में बढ़ रही मॉब लिंचिंग और धार्मिक, सामाजिक असहिष्णुता, हिंसा की घटनाओं पर लिखी गई यह टिप्पणी उनकी फेसबुक वॉल से ली गई है.
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