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अविश्वास प्रस्ताव पर बहसः सियासत के सांपों की सभा में सिर्फ़ जीभों की लपालप

अविश्वास प्रस्ताव पर बहसः सियासत के सांपों की सभा में सिर्फ़ जीभों की लपालप सियासत है तो बातों के अलावा और क्या हो सकता है। सत्ता ज़हर है तो यह ज़हर उलीचने वाले सांप कौन हैं, यह बताने की ज़रूरत नहीं। सब जानते हैं। एक से एक पैंतरेबाज़ और एक से बढ़कर एक। आपके पास चार साल पहले वोट थे 336 और अब रह गए हैं 325 वोट। और अविश्वास प्रस्ताव भी आपके ही सहयोगी लेकर आये।

हालांकि राहुल गांधी के अनाड़ीपन के ख़ूब मज़े लो, लेकिन तहों के नीचे दबी राजनीति को भी समझने की कोशिश करो। पंजाबी में एक कहावत है, कैणा धी नूं, सुणाणा नों नूं! कि कहना तो बेटी को, लेकिन सुनाना बहू को। कुछ ऐसा ही राजनाथसिंह ने किया। वे बोले : राहुल ने चिपको आंदोलन चला रखा है। अरे, राहुल तो आज किसी के गले पड़ा है, आप वाला तो आए दिन किसी न किसी के गले पड़ा रहता है। लेकिन उन्होंने एक बार गले लगने को चिपको आंदोलन का नाम दिया तो बार-बार, जगह-जगह और हर किसी के गले लगने वाले को आप फेबीकॉल आंदोलन का नाम देंगे?

अाप किसी को भाषण देना तो सिखा सकते हैं, लेकिन आचरण करना नहीं। आप किसी को कोई चीज़ रटा तो सकते हैं और उसका अभिनय भी सिखा सकते हैं, लेकिन जो ज्ञान चक्षु हैं, वे प्रत्यारोपित नहीं करवा सकते। यही प्राॅब्लम राहुल गांधी के साथ बहुत ज़्यादा है, लेकिन मोदी के साथ भी कम नहीं है। इस मामले में अटल बिहारी वाजपेयी का तो ख़ैर कोई ज़वाब था ही नहीं, राजनाथ सिंह और सुषमा का भी मुक़ाबला नहीं है। कांग्रेस के पास आज की तिथि में राहुल गांधी से लेकर नीचे तक एक भी अच्छा वक्ता नहीं है। भाजपा इस मामले में कांग्रेस से बहुत आगे है। उसके पास एक से बढ़कर एक वाग्वीर हैं।

लेकिन इन वाग्वीरों और अविश्वास से इस देश के आम नागरिक को क्या हासिल हुआ? भाजपा को लोगों ने पांच साल के लिए सत्ता सौंपी है। उसमें अगर ग़लत काम हो रहे हैं तो कांग्रेस के कार्यकर्ता क्यों मूर्च्छा में हैं? वे कहीं कुछ कर रहे हों, यह तो दिखता नहीं। एक प्रश्न है, अगर देश में कांग्रेस लौटेगी और भाजपा चली जाएगी तो इससे क्या हो जाएगा? भाजपा आ गई और कांग्रेस चली गई तो इससे क्या हो गया?

दरअसल बात है ज़मीनी स्तर पर सुधारों, बदलावों और लोगों के जीवन में अभिवृद्धि की। किसी राजनीतिक सत्ता परिवर्तन का अर्थ तब है जब पुन: लौटने वाली पार्टी अपनी जिन दुष्टताओं, विफलताओं और धत्कर्मों के कारण सत्ता से बाहर हुई थी, उन्हें दूर करने का वादा करके, नया मैकेनिज्म बनाकर और नई कार्यसंस्कृति लेकर लौटे। अगर आप वही कीचड़ के सने हुए इसलिए लौट आते हैं कि अभी की सरकार बहुत बदतर है या आप जैसी ही साबित हुई तो इसका अर्थ यही होता है कि हम कीचड़ को कीचड़ से रिप्लेस कर रहे हैं। और यही देश और समाज की बदहालियों का कारण है।

क्या देश को एक श्रेष्ठ राजनीतिक वातावरण की आवश्यकता नहीं है? लेकिन हमारे नेता क्या प्रदर्शित कर रहे हैं? राहुल गांधी एक ठीक-ठाक सा भाषण देते हैं और अपने लोगों को क्रांतिकारी दिखने लगते हैं। जो भी था, ठीक था। उनसे इतनी उम्मीद भी नहीं थी। लेकिन ये क्या, आप संसद में बैठक कर प्रधानमंत्री से मिलने जाते हैं, ये ठीक है, लेकिन ये क्या कि आप तो गले ही मिलने लगे। राहुल ने भाषण में मोदी जी की बहुत सी दुखती नसें दबाईं और इसका असर मोदी जी के भाषण में दिखाई भी बखूबी दिया। मोदी बार-बार चिहुंके।

लेकिन ये क्या कि आपके भाषण की तारीफ़ होती है और आप आंख मारने लगते हैं। अापने जो बेहतर किया था, जो मुद्दे उठाए थे, जिस बहस को जन्म दिया था, आपने जो अफ़साना तैयार किया था, उसे अपने ही हाथों ताराज कर दिया। अरे महाशय, आप संसद में किसी गंभीर विषय के लिए आए हैं, लोधी गार्डन में गुलगश्त करने नहीं। और फिर मीडिया और राजनीतिक प्रबंधक तो पहले ही आपका बंदोबस्त करने लगे हैं।

आैर अकाली दल की हरसिमरत को देखिए, उसे राहुल गांधी की कार्यशैली का एक अंदाज़ नशीला लगा, लेकिन पूरे पंजाब को नशे में डुबो देने वाले अपने अकाली दल के नेताओें के चेहरे नहीं दिखे।

दरअसल, राहुल गांधी उस बच्चे जैसे हैं, जो अभी सुदूर साहिल पर एक घरौंदा बनाने की कोशिश कर रहा है; लेकिन ये सियासत का समुंदर है और आप जानते हैं कि इस समुंदर में मोदी जैसी शोख़ लहरें किसी घरौंदे को बचाने के लिए क्यों ठहरेंगी?

और मोदी, वही पुरानी बातें, वही पुराने तंज। आप कब प्रधानमंत्री की भूमिका में आकर यह बताएंगे कि देश में जिस तरह का वातावरण बन रहा है, जो निराशा फैल रही है, जो नई चुनौतियां पैदा हो रही हैं, उनके लिए आपके पास भविष्य का रोडमैप क्या है? क्या आप सिर्फ़ नेहरू-गांधी परिवार को कोस-कोस कर ही अपना शासन चलाएंगे? इस देश को एक जिम्मेदार भाजपा, एक जिम्मेदार कांग्रेस, एक जिम्मेदार वामपंथी दल चाहिए, जो कम से कम अपने आप शासित होता हो और किसी बाहरी या संविधानेतर संगठन से संचालित, प्रशासित और शासित नहीं होता हो।

कवि इक़बाल अशहर की पंक्तियां हैं :

भीगी भीगी पलकों पर ये जो इक सितारा है
चाहतों  के  मौसम  का  आख़िरी  शुमारा है।

इसलिए अब समय आ गया है कि अगर हम सूरज को अाईना दिखाने की आकांक्षा पाले हुए हैं तो हमें रौशनी की सोहबत में रहना होगा आैर यह इच्छाशक्ति रखनी होगी कि हम सब बदलें और अतीत की घटनाओं से अपने वर्तमान के पापों से नहीं ढंकें।

# वरिष्ठ पत्रकार, चिंतक लेखक त्रिभुवन अपने स्तंभो और विचारों के साथ-साथ फेसबुक पर भी खासे चर्चित हैं. वहां उनकी टिप्पणियां खूब प्रतिक्रिया बटोरती हैं. मोदी सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव पर हुई बहस के बाद देश के राजनीतिक हालात पर लिखी गई यह टिप्पणी भी उनकी फेसबुक वॉल से ली गई है.
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