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विश्व पर्यावरण दिवस 2018: जब जीवन ही न होगा, तो कहां होंगे हम

विश्व पर्यावरण दिवस 2018: जब जीवन ही न होगा, तो कहां होंगे हम विश्व पर्यावरण दिवस 5 जून को हर साल हमें इस बात का मौका देता है कि हम देखें, समझें और जानें कि प्रकृति के संरक्षण में हर व्यक्ति, परिवार, गांव, शहर, जाति, राज्य, देश और समूचे विश्व की क्या भूमिका है. सारी दुनिया में विश्व पर्यावरण दिवस मनाया जाता है. इस दिन सरकारें, स्वयंसेवी संस्थान और पर्यावरण के प्रति जागरूक लोग स्टाकहोम, हेलसेंकी, लंदन, विएना, क्योटो जैसे सम्मेलनों में पारित प्रस्तावों और मॉन्ट्रियल प्रोटोकाल, रियो घोषणा पत्र, संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम आदि को याद करते हैंं, गोष्ठियां, परिचर्चाएं, रैलियां,  मेले, प्रतियोगिताएं और सम्मेलन आदि आयोजित होते हैं, जिसमें पिछले प्रयासों का लेखाजोखा, अधूरे कामों पर चिंता और समाज को जागरूक करने के लिए नए कार्यक्रमों की दुहाई दी जाती है, और फिर मामला ढाक के तीन पात हो जाता है. सरकारी स्तर पर यह जलसे इसलिए होते हैं कि साल 1972 में मानव पर्यावरण पर स्टोकहोम में संयुक्त राष्ट्र ने एक सम्मेलन कराया था और यह तय किया था कि अंतर्राष्ट्रीय पर्यावरण चेतना और पर्यावरण आंदोलन के लिए हर साल यह दिवस मनाया जाए, ताकि समकालीन पीढ़ियों को धरती पर पर्यावरण से जुड़ी समस्याओं का पता चल सके और उसे निदान सुझाया जा सके.

भारत की तत्कालीन प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी ने इसी सम्मेलन में कहा था कि 'गरीबी ही सबसे बड़ा प्रदूषण है'. उनका कहना था कि विकासशील देशों की पर्यावरणीय समस्याओं का संबंध गरीबी है. वह बताना चाहती थी कि विश्व में संसाधनों और संपत्तियों के असमान वितरण से विकासशील देश तेजी से आगे बढ़ना चाहेंगे, नतीजा प्रकृति के दोहन के रूप में सामने आएगा, अगर इसे रोकना है तो संसाधनों का समान बंटवारा न केवल देशों के स्तर पर बल्कि व्यक्तियों के स्तर पर भी होना चाहिए. संयुक्त राष्ट्र ने उनके इस विचार को 'टिकाऊ विकास' की अवधारणा में शामिल कर लिया. यह अवधारणा बताती है कि वही विकास टिकाऊ हो सकता है, जो वर्तमान और आनेवाली पीढ़ियों, दोनों में असमानता को दूर करे. स्टोकहोम सम्मेलन से हुआ यह कि पर्यावरणीय चिंताएं अंतर्राष्ट्रीय मंचों का महत्त्वपूर्ण हिस्सा हो गईं और राष्ट्रीय स्तर पर सरकारों ने पर्यावरणीय समस्याओं को कम-ज्यादा सही, समझा और उसके निपटारे के लिए प्रयास किया जाने लगा.,

स्टोकहोम सम्मेलन ने पर्यावरणीय चेतना लाने के लिए 'विश्व पर्यावरण दिवस मनाने' का फैसला चार मुख्य उद्देश्यों को सामने रख कर किया, जिसमें पहला था, पर्यावरणीय समस्याओं को मानवीय चेहरा प्रदान करना; दूसरा, लोगों को टिकाऊ और समतापूर्ण विकास का कर्ताधर्ता बनाना और इसके लिए उनके ही हाथों में असली सत्ता सौंपना; तीसरा, इस धारणा को बढ़ावा देना था कि पर्यावरणीय समस्याओं के प्रति लोक-अभिरुचियों को बदलने में समुदाय की केंद्रीय भूमिका होती है; और चौथे उद्देश्य में,  विभिन्न देशों, उद्योगों, संस्थाओं और व्यक्तियों की साझेदारी को बढ़ावा देना शामिल था, ताकि सभी देश और समुदाय तथा सभी पीढ़ियां सुरक्षित एवं उत्पादनशील पर्यावरण का आनंद उठा सकें. तभी से यह प्रयास जारी है. हमारे लिए यह गौरव की बात है कि इस साल भारत 'विश्व पर्यावरण दिवस 2018' पर आयोजित हो रहे अंतर्राष्ट्रीय समारोह की मेज़बानी कर रहा है, जिसका विषय है,'प्लास्टिक प्रदूषण को हराएं.' वाकई प्लास्टिक प्रदूषण से जुड़े तथ्यों को देखें तो, तस्वीर कुछ यों उभरती है. प्रत्येक वर्ष पूरी दुनिया में 500 अरब प्लास्टिक बैगों का उपयोग किया जाता है. हर वर्ष, कम से कम 8 मिलियन टन प्लास्टिक महासागरों में पहुंचता है, जो प्रति मिनट एक कूड़े से भरे ट्रक के बराबर है. पिछले एक दशक के दौरान उत्पादित किए गए प्लास्टिक की मात्रा, पिछली एक शताब्दी के दौरान उत्पादित की गई प्लास्टिक की मात्रा से अधिक थी. हमारे द्वारा प्रयोग किए जाने वाले प्लास्टिक में से 50% प्लास्टिक का सिर्फ एक बार उपयोग होता है. हर मिनट 10 लाख प्लास्टिक की बोतलें खरीदी जाती हैं और हमारे द्वारा उत्पन्न किए गए कुल कचरे में 10% योगदान प्लास्टिक का है.

भारत को यह मौका प्रकृति से अपने लगाव के चलते मिला. जैसा कि संयुक्त राष्ट्र के पर्यावरण मामलों के अध्यक्ष एरिक सोलहाइम ने कहा था संयुक्त राष्ट्र दुनिया भर की सरकारों से, उद्योग जगत से, समुदायों और सभी लोगों से आग्रह करता है कि वे साथ मिलकर प्लास्टिक कचरे का स्थाई विकल्प खोजें और एक बार उपयोग में आने वाले प्लास्टिक के उत्पादन और उपयोग को जल्द से जल्द रोकें क्योंकि यह हमारे महासागरों को प्रदूषित कर रहा है, समुद्री जीवन को नष्ट कर रहा है और मानव स्वास्थ्य के लिए खतरा बन गया है. केंद्रीय पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्री डॉ. हर्ष वर्धन का तर्क था कि भारतीय दर्शन और जीवनशैली हमेशा से प्रकृति के साथ सहअस्तित्व के सिद्धांत पर केंद्रित रही है और हम पृथ्वी ग्रह को अधिक साफ-सुथरा और हरा-भरा बनाने के लिए प्रतिबद्ध हैं. भारत ने जलवायु परिवर्तन और कम कार्बन वाली अर्थव्यवस्था की ओर रुझान की आवश्यकता के मुद्दे पर वैश्विक नेतृत्व का प्रदर्शन किया है, और अब भारत प्लास्टिक प्रदूषण के खिलाफ बड़ी कार्यवाही करने की दिशा में मदद कर रहा है. प्लास्टिक प्रदूषण दुनिया भर के लिए संकटपूर्ण है और जीवन के हर पहलू को प्रभावित कर रहा है. यह हमारे पीने के पानी में और हमारे भोजन में मौजूद है. यह हमारे समुद्र तटों और महासागरों को नष्ट कर रहा है. हमारे महासागरों और ग्रह को बचाने के लिए जोर लगाने का बीड़ा अब भारत के पास है. उन्होंने यह भी कहा कि हरियाली की सामाजिक जिम्मेदारी को निभाते हुए, अगर हर कोई प्रतिदिन हरियाली से जुड़ा कम से कम एक अच्छा काम भी करता है तो अपने ग्रह पर हरियाली के अरबों अच्छे कार्य होंगे. भारत सरकार ने विश्व पर्यावरण दिवस से पहले ही संपूर्ण भारत में सार्वजनिक जगहों, राष्ट्रीय उद्यानों और जंगलों से प्लास्टिक की सफाई और साथ ही साथ समुद्र तटों की सफाई की शुरुआत की कर दी थी.

पर क्या इतना काफी है.धरती मां आज कराह रही हैं. इस धरा पर उनकी सबसे बौद्धिक प्रजाति 'इनसान' ने उनका कबाड़ा कर दिया है. यह क्रम बदस्तूर जारी है, विकास के नाम पर बरबादी की इस इबारत में तमाम कोशिशों के बावजूद कोई खास बदलाव नहीं आया है. सभ्यताओं के विकास ने प्रकृति से हमारा लगाव तो छीना ही, हमारे अपने-अपने स्वार्थ ने दिनोंदिन पर्यावरण और मनुष्य के बीच की खाईं को बढ़ाया ही. आज अपनी हर सांस के साथ हम प्रकृति से खिलवाड़ करते दिखते हैं. हरियाली, धरती, हवा, पानी और आसमान के बाद अब अंतरिक्ष तक में हमारा दखल प्रदूषण का वह बढ़ावा है, जिससे कोई निस्तार फिलहाल नहीं दिखता. कहने को हम आगे बढ़ रहे हैं, पर ध्यान से देखें- समझें तो हकीकत कुछ और ही है. आलम यह है कि बिना तेज आवाज के हम सुन नहीं पाते, बिना बिजली और पंखे के रहना मुश्किल, बिना ट्युबलाइट और बल्ब के रातों को दिखना बंद है, बिना बाईक और कार के चलना मुश्किल. और तो और बिना कैलकुलेटर के अब हम गुणा-गणित नहीं कर पाते, और अब तो टेलीफोन के नंबर भी हमें याद नहीं रहते...तो कहीं ऐसा तो नहीं कि संसाधनों ने हमें अक्षम बना दिया है और सुविधा के नाम पर हम उसी तरह अकर्मण्य हो रहे हैं, जैसे तरक्की के नाम पर धरती को हमने बेबस कर रखा है और उसका दोहन जारी है. क्या हमारे विकास का एक भी अंश बिना धरती के संभव है? अगर नहीं तो फिर हम इस धरती की रक्षा, उसके पर्यावरण के बचाव और अंततः इस पर जीवन की रक्षा के लिए कर क्या रहे हैं?
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