महाराष्ट्र हिंसा व 200 साल पुरानी जंगः क्या वाकई कोरेगांव-भीमा की लड़ाई ब्राह्मण-दलित युद्ध था? तथ्य
जनता जनार्दन डेस्क ,
Jan 03, 2018, 21:56 pm IST
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नई दिल्ली: इस पहली जनवरी से पहले इतिहासकारों और छात्रों को छोड़कर शायद ही किसी ने भीमा-कोरेगांव की लड़ाई के बारे में सुना जो, पर नए साल के मौके पर महाराष्ट्र के पुणे जिले में भीमा-कोरेगांव की लड़ाई का जश्न मनाने के लिए एक कार्यक्रम का आयोजन किया गया लेकिन ये कार्यक्रम हिंसक झड़प में तब्दील हो गया. इस झड़प में एक व्यक्ति की मौत हो गई और इलाके में तनाव फैल गया. यह जश्न अंग्रेजों की जीत को लेकर मनाया गया था.
दलित संगठन, पेशवा बाजीराव द्वितीय की सेना पर अंग्रेजों की जीत को शौर्य दिवस के तौर पर हर साल धूमधाम से मनाते हैं. सोमवार को भी रिपब्लिक पार्टी ऑफ इंडिया (अठावले) ने कोरेगांव भीमा युद्ध के 200 साल पूरे होने पर यह विशेष कार्यक्रम आयोजित कराया था. कोरेगांव की लड़ाई 1 जनवरी 1818 में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी और मराठा साम्राज्य के पेशवा गुट के बीच, कोरेगांव भीमा में लड़ी गई थी. यह वह जगह है जहां पर उस वक्त अछूत कहलाए जाने वाले महारों (दलितों) ने पेशवा बाजीराव द्वितीय के सैनिकों को लोहे के चने चबवा दिए थे. दरअसल ये महार अंग्रेजों की ईस्ट इंडिया कंपनी की ओर से लड़ रहे थे और इसी युद्ध के बाद पेशवाओं के राज का अंत हुआ था. जानकार बताते हैं कि पेशवा बाजीराव द्वितीय की अगुवाई में 28 हजार मराठा पुणे पर हमला करने की योजना बना रहे थे. रास्ते में उन्हें 800 सैनिकों से सजी कंपनी फोर्स मिली, जो पुणे में ब्रिटिश सैनिकों की ताक़त बढ़ाने के लिए जा रही थी. पेशवा ने कोरेगांव में मौजूद कंपनी फ़ोर्स पर हमला करने के लिए अपने 2 हजार सैनिक भेजे. कप्तान फ्रांसिस स्टॉन्टन की अगुवाई में ईस्ट इंडिया कंपनी की इस टुकड़ी ने क़रीब 12 घंटे तक अपनी पोजीशन संभाले रखी और मराठों को कामयाब नहीं होने दिया. बाद में मराठों ने फैसला बदला और कदम खींच लिए. क्योंकि उन्हें इस बात का डर था कि जनरल जोसफ़ स्मिथ की अगुवाई में बड़ी ब्रिटिश टुकड़ी वहां पहुंच जाएगी जिससे मुकाबला आसान नहीं होगा. इस टुकड़ी में भारतीय मूल के जो फौजी थे, उनमें ज़्यादातर महार दलित थे और वो बॉम्बे नेटिव इनफ़ैंट्री से ताल्लुक रखते थे. ऐसे में दलित कार्यकर्ता इस घटना को दलित इतिहास का अहम हिस्सा मानते हैं. जेम्स ग्रांट डफ ने अपनी किताब 'ए हिस्टरी ऑफ द मराठाज' में इस लड़ाई का ज़िक्र किया है. इसमें लिखा है कि रात भर चलने के बाद नए साल की सुबह दस बजे भीमा के किनारे पहुंचे जहां उन्होंने करीब 25 हजार मराठों को रोके रखा. वो नदी की तरफ मार्च करते रहे और पेशवा के सैनिकों को लगा कि वो पार करना चाहते हैं लेकिन जैसे ही उन्होंने गांव के आसपास का हिस्सा कब्ज़ाया, उसे पोस्ट में तब्दील कर दिया. हेनरी टी प्रिंसेप की किताब हिस्टरी ऑफ़ द पॉलिटिकल एंड मिलिट्री ट्रांजैक्शंस इन इंडिया में इस लड़ाई में महार दलितों से सजी अंग्रेज़ टुकड़ी के साहस का ज़िक्र मिलता है. इस किताब में लिखा है कि कप्तान स्टॉन्टन की अगुवाई में जब ये टुकड़ी पुना जा रही थी, तो उस पर हमला होने की आशंका थी. खुली जगह पर फंसने के डर से बचने के लिए इस टुकड़ी ने कोरेगांव में पहुंचकर उसे अपना किला बनाने का फैसला किया. अगर ये टुकड़ी खुले में फंस जाती तो मराठों के हाथों बुरे हालात में फंस सकती थी. अलग-अलग इतिहासकारों के मुताबिक इस लड़ाई में 834 कंपनी फौजियों में से 275 मारे गए, घायल हुए या फिर लापता हो गए.इनमें दो अफसर भी शामिल थे. इंफ़ैंट्री के 50 लोग मारे गए और 105 जख़्मी हुए. ब्रिटिश अनुमानों के मुताबिक पेशवा के 500-600 सैनिक इस लड़ाई में मारे गए या घायल हुए. जो इतिहाकार महारों और पेशवा फौज के बीच हुए इस युद्ध को अंग्रेजों के खिलाफ भारतीय शासकों के युद्ध के तौर पर देखते हैं तथ्यात्मक रूप से वो गलत नहीं हैं, लेकिन जहन में एक सवाल जरूर उभरता है कि अंग्रेजों के साथ मिलकर महारों ने पेशवाओं के खिलाफ क्यों लड़ाई की थी? इतिहासकारों के मुताबिक दरअसल महारों के लिए यह अंग्रेजों की नहीं, बल्कि खुद की अस्मिता की लड़ाई थी. महारों के पास ब्राह्मण व्यवस्था के खिलाफ उतरने का यह एक शानदार मौका था, क्योंकि पेशवाओं ने इन महारों को उस समय जानवरों से भी निचले दर्जे में रखा था और उनके साथ बुरा सलूक किया था. प्राचीन भारत में सवर्ण, दलित समुदाय के साथ जिस तरह का व्यवहार किया करते थे, वही व्यवहार पेशवाओं ने महारों के साथ किया था. पेशवाओं ने महारों के साथ जिस तरह का बर्ताव किया, इतिहासकार उसके बारे में भी बताते हैं. शहर में घुसते वक्त महारों को अपनी कमर पर झाड़ू बांधकर रखनी होती थी, ताकि उनके कथित अपवित्र पैरों के निशान इस झाड़ू से मिटते चले जाएं. इतना ही नहीं महारों को अपनी गर्दन में एक बर्तन भी लटकाना होता था ताकि उनका थूका हुआ जमीन पर न पड़े और कोई सवर्ण अपवित्र न हो जाए. ये प्राचीन भारत से चले आ रहे वो नियम थे, जिसके खिलाफ समय-समय पर आवाजें उठती रहीं, लेकिन इन दलित विरोधी व्यवस्थाओं को बार-बार स्थापित किया गया. इसी व्यवस्था में रहने वाले महारों के पास सवर्णों से बदला लेने का अच्छा मौका था और इसीलिए महार अंग्रेजों की ईस्ट इंडिया कंपनी में शामिल होकर लड़े. एक तरफ वो पेशवा सैनिकों के साथ लड़ रहे थे दूसरी तरफ इस क्रूर व्यवस्था का बदला भी ले रहे थे. इतिहासकार और आलोचक प्रो. रुषिकेश काम्बले कोरेगांव भीमा का दूसरा पक्ष भी बताते हैं। उनका दावा है कि कि महारों ने मराठों को नहीं बल्कि ब्राह्मणों को हराया था. ब्राह्मणों ने छुआछूत जबरन दलितों पर थोप दिया था और वो इससे नाराज थे. जब महारो ने ब्राह्मणों से इसे खत्म करने को कहा तो वे नहीं माने और इसी वजह से वो ब्रिटिश फौज से मिल गए. ब्रिटिश फौज ने महारों को ट्रेनिंग दी और पेशवाई के खिलाफ लड़ने की प्रेरणा दी. मराठा शक्ति के नाम पर जो ब्राह्मणों की पेशवाई थी ये लड़ाई दरअसल, उनके खिलाफ थी और महारों ने उन्हें हराया. ये मराठों के खिलाफ लड़ाई तो कतई नहीं थी. अब जब कोरेगांव की लड़ाई के 200 साल पूरे होने पर वो जश्न मना रहे थे तो वो ईस्ट इंडिया कंपनी का जश्न नहीं बल्कि उस कुप्रथा के खिलाफ जीत का जश्न मना रहे थे. कुछ दलित नेता इस लड़ाई को उस वक्त के स्थापित ऊंची जाति पर अपनी जीत मानते हैं. हालांकि, कुछ संगठन इसे ब्रिटिशों की जीत मानते हुए, इसका जश्न मनाने का विरोध करते हैं. |
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