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एयर इंडिया से लेकर एचपीसीएल-ओएनजीसी सौदाः मोदी पर दिखने लगी वाजपेयी की छाया

एयर इंडिया से लेकर एचपीसीएल-ओएनजीसी सौदाः मोदी पर दिखने लगी वाजपेयी की छाया नई दिल्लीः नरेंद्र मोदी सरकार की तरफ से उठाए जा रहे सुधारवादी कदमों को लेकर शोर बढ़ता जा रहा है लेकिन इस हालत में भी आपको यह अहसास हो सकता है कि ऐसा तो पहले भी घटित हो चुका है। मोदी सरकार ने जिस तरह के कदम उठाए हैं और जिस तरह के सुधारों की राह पर कदम बढ़ाया है उसे देखकर आपको अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के दौर की याद आ ही जाएगी। हालांकि मोदी सरकार के फैसले पिछली शताब्दी के अंतिम वर्षों में उठाए गए सुधारवादी कदमों से कुछ भिन्न भी हैं।
 
मोदी सरकार ने तीन सप्ताह पहले एयर इंडिया के रणनीतिक विनिवेश को मंजूरी दी थी। इसे अमलीजामा पहनाने का जिम्मा वित्त मंत्री अरुण जेटली की अगुआई वाले मंत्री समूूह को दिया गया है। उस समय काफी खुशी जताई गई थी क्योंकि आर्थिक जगत की नजर में यह फैसला आर्थिक सुधारों खासकर निजीकरण की दिशा में सरकार के आगे बढऩे की मंशा दिखाता है।
 
सरकार के सुधारवादी रुख को लेकर पैदा हुआ उत्साह अभी थमा भी नहीं था कि केंद्रीय मंत्रिमंडल ने सरकार के नियंत्रण वाली दिग्गज तेल कंपनी ओएनजीसी को एक अन्य सरकारी तेल कंपनी एचपीसीएल की 51 फीसदी हिस्सेदारी खरीदने की सैद्धांतिक मंजूरी दे दी। अगर 1999 और 2000 के दौर को याद करें तो यह समझना आसान हो जाएगा कि 2017 में लिए गए ये दोनों फैसले आखिर क्यों वाजपेयी सरकार के कदमों की याद दिलाते हैं?
 
एयर इंडिया की बिक्री
 
वर्ष 1996 में गठित विनिवेश आयोग की सिफारिशों को आधार बनाते हुए वर्ष 2000 में वाजपेयी सरकार ने एयर इंडिया और इंडियन एयरलाइंस की रणनीतिक बिक्री की संभावनाओं पर विचार किया था। उस समय इंडियन एयरलाइंस और एयर इंडिया का अलग वजूद था और काफी समय बाद वर्ष 2007 में दोनों को मिलाकर एयर इंडिया के रूप में पुनर्गठित किया गया था।
 
वाजपेयी सरकार के वित्त मंत्री यशवंत सिन्हा इन दोनों सरकारी विमानन कंपनियों के रणनीतिक विनिवेश को लेकर काफी गंभीर थे और इस तरह के बिक्री सौदों में तेजी लाने के लिए उन्होंने एक नए मंत्रालय का भी गठन किया था। हालांकि सरकारी एयरलाइंस की खरीद का कोई भरोसेमंद प्रस्ताव नहीं मिलने और इसकी बिक्री पर नए सिरे से विचार करने के चलते वह संभव नहीं हो पाया था। नतीजा यह हुआ कि इन एयरलाइंस की रणनीतिक बिक्री का विचार ही छोड़ दिया गया।
 
इसके बाद के 17 वर्षों में एयर इंडिया को हजारों करोड़ रुपये का घाटा उठाना पड़ा जिसकी वजह से उसमें आम करदाताओं का पैसा लगाने की भी जरूरत पड़ी। फिर मौजूदा सरकार के वित्त मंत्री अरुण जेटली ने इस संकटग्रस्त एयरलाइन का रणनीतिक खरीदार खरीदने की कोशिश शुरू कर दी। यह एक तरह से 17 साल पुरानी कहानी का दोहराव ही लगता है लेकिन इस बार फर्क यह है कि संभावित खरीदार अधिक गंभीर हैं और वे बोली लगाने को भी तैयार हैं। लेकिन इसके लिए उनकी शर्त यह है कि सरकार बिक्री के पहले एयर इंडिया की परिसंपत्ति और देनदारियों को अलग-अलग बांट दे। उसकी बड़ी देनदारियों और कर्मचारियों की फौज को देखते हुए कहा जा सकता है कि सरकार के लिए ऐसा कर पाना काफी चुनौतीपूर्ण होगा। अब तो यह समय ही बताएगा कि मोदी सरकार इस अड़चन को दूर कर पाती है या इतिहास खुद को ही दोहराता है?
 
ओएनजीसी-एचपीसीएल सौदा
 
ओएनजीसी को एचपीसीएल की बहुलांश हिस्सेदारी खरीदने की मंजूरी देने का फैसला भी अतीत से जुड़ा हुआ है। वाजपेयी सरकार ने भी ओएनजीसी, इंडियन ऑयल कॉर्पोरेशन (आईओसी) और गेल के शेयर बेचने की पहल की थी। वाजपेयी सरकार ने 1999-2000 के दौरान इन तीनों तेल कंपनियों को एक दूसरे के शेयर खरीदने के लिए कहा था। तत्कालीन वित्त सचिव विजय केलकर के दिमाग की इस उपज को वित्त मंत्री यशवंत सिन्हा का भी समर्थन हासिल था।
 
उस समय ओएनजीसी ने आईओसी में 9.1 फीसदी और गेल में 4.8 फीसदी शेयर खरीदे थे। इसी तरह आईओसी ने ओएनजीसी में 9.6 फीसदी और गेल में 4.8 फीसदी शेयर लिए थे। गेल ने ओएनजीसी में 2.4 फीसदी शेयर हासिल किए थे। इन कंपनियों ने एक-दूसरे के जो शेयर खरीदे वे सभी सरकार के पास थे और इसके लिए अंदरूनी स्रोतों का इस्तेमाल किया था। इस पूरी कवायद के अंत में सरकार को विनिवेश से 4,643 करोड़ रुपये मिले थे। मौजूदा मापदंड से देखें तो यह राशि काफी कम लग सकती है लेकिन वह सरकार को विनिवेश प्रक्रिया से प्राप्त कुल राशि का करीब तीन-चौथाई हिस्सा था। मोदी सरकार ने इस बुधवार को एचपीसीएल में अपनी 51 फीसदी हिस्सेदारी ओएनजीसी को बेचने का जो फैसला किया उससे मौजूदा बाजार मूल्य के आधार पर उसे करीब 30,000 करोड़ रुपये की राशि हासिल होने की उम्मीद है। यह वर्ष 2017-18 के लिए घोषित विनिवेश लक्ष्य के 40 फीसदी से भी अधिक होगा।  
 
लेकिन इसे लेकर किसी तरह का भ्रम न पालिए। फिलहाल एचपीसीएल में बहुलांश हिस्सेदारी की ओएनजीसी को बिक्री से केंद्र सरकार को अपना विनिवेश लक्ष्य हासिल करने में मदद मिलेगी। वाजपेयी सरकार की ही तरह मोदी सरकार को भी इससे अपना राजकोषीय घाटा कम करने में मदद मिलेगी। लेकिन दोनों मामलों में फर्क यह है कि वाजपेयी के समय की विनिवेश प्रक्रिया से उन तेल कंपनियों के स्वामित्व ढांचे में कोई बदलाव नहीं हुआ था लेकिन इस बार एचपीसीएल का विनिवेश होने के बाद वह ओएनजीसी की अनुषंगी इकाई बन जाएगी। यह एक बड़ा बदलाव होगा क्योंकि ओएनजीसी के शेयर अधिग्रहण से कई तरह की दूसरी संभावनाएं भी पैदा हो सकती हैं। जैसे, ओएनजीसी आगे चलकर अपनी एक अन्य अनुषंगी इकाई एमआरपीएल के अलावा एचपीसीएल का भी अपने में विलय कर सकती है जिससे यह तेल क्षेत्र की बहुत बड़ी कंपनी जाएगी, उसका वित्तीय ढांचा भी मजबूत होगा और तेल उत्खनन, शोधन एवं वितरण तीनों ही क्षेत्रों में बाजार पर पकड़ मजबूत हो जाएगी।
 
दो सवाल
 
लेकिन इन कंपनियों के विलय से दो प्रासंगिक सवाल खड़े होंगे। पहला, क्या एचपीसीएल के अल्पांश शेयरधारक भी बदलेंगे? ऐसा लगता है कि ओएनजीसी को 25 फीसदी शेयर आधार से अधिक हिस्से के हस्तांतरण में अनिवार्य ओपन ऑफर देने से छूट दी जाएगी? इस तरह की रियायतें असामान्य नहीं हैं लेकिन उन पर बारीक नजर रखी जाएगी क्योंकि इसे अन्य सार्वजनिक उपक्रमों की रणनीतिक बिक्री के समय एक मिसाल के तौर पर भी देखा जाएगा। आने वाले दिनों में एयर इंडिया को भी इसी राह पर चलना पड़ सकता है। दूसरा, सरकार एचपीसीएल में अपनी बहुलांश हिस्सेदारी ओएनजीसी के सुपुर्द करने के लिए कितना कंट्रोल प्रीमियम वसूलेगी? ओएनजीसी जिस कीमत पर एचपीसीएल की 51 प्रतिशत हिस्सेदारी हासिल करेगी उसमें कंट्रोल प्रीमियम भी शामिल होगा। सरकार ने जब मारुति का बहुलांश नियंत्रण जापान की कंपनी सुजूकी मोटर कॉर्पोरेशन को हस्तांतरित किया था तो कंट्रोल प्रीमियम भी वसूला था। यह कहा जा सकता है कि जब सरकार ओएनजीसी में बहुलांश शेयरधारक है तो उसे कंट्रोल प्रीमियम देनेे की कोई जरूरत नहीं है। बहरहाल एचपीसीएल और ओएनजीसी अलग-अलग कंपनी हैं और उनके मालिकाना स्वरूप में बदलाव होगा तो सरकार को अपना बहुलांश शेयर बेचने से मिलने वाला कंट्रोल प्रीमियम वसूलने से वंचित नहीं किया जा सकता है। वाजपेयी सरकार के फैसलों की मोदी सरकार पर दिख रही छाप एक अन्य वजह से भी महत्त्वपूर्ण है। पिछले महीनों में मोदी सरकार पर यह आरोप लगते रहे हैं कि वह संप्रग सरकार के समय की ही योजनाओं को अलग नाम और स्वरूप में लागू कर रही है। इनमें नकद लाभ हस्तांतरण योजना, आधार और स्मार्ट सिटी परियोजना भी शामिल है। हालांकि निजीकरण या शेयरों की खरीद-फरोख्त से संबंधित कदम पहले वाजपेयी सरकार ने उठाए थे एवं मोदी सरकार यह दावा कर सकती है कि उसने इन विचारों को संप्रग से नहीं उधार लिया है।  स्रोतः बिजिनेस स्टैंडर्ड/ ए के भट्टाचार्य
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