सत्ता का राजपथ, जहां गांधी से लेकर शंबूक वध वाले देवताओं तक की सोच पर भारी पड़ते हैं अंबेडकर
त्रिभुवन ,
Jun 20, 2017, 12:59 pm IST
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भीमराव अंबेडकर ने जिस क्रांतिकारी सोच के बीज को भारतीय संविधान से लेकर भारतीय राजनीति की आत्मा तक में बो दिया, उसे न चाहते हुए भी, और अपनी मानसिकता पर लाख प्रहार सहने के बाद भी भारतीय राजनीतिक दलों के नेता उतारते को बेबस हैं। राष्ट्रपति पद के लिए रामनाथ कोविंद का नाम इसी का जीता-जागता प्रमाण है।
भाजपा और संघ से मेरे बहुतेरे मित्र जुड़े हैं। इनमें एक क्लास ऐसी है, जो चाहती है कि आरक्षण खत्म हो जाए और दलितों को उनकी प्रतिभा और हैसियत के अनुसार ही गले लगाया जाए। इसी हिसाब से वे नौकरियों में हिस्सा पाएं। भाजपा और संघ से उनके जुड़े होेने की एक वजह यह भी है कि वे मानते हैं कि संघ और भाजपा ही आरक्षण समाप्त कर सकते हैं। बाकी कोई दल ऐसा नहीं है, जो यह हिम्मत दिखा सके। उनकी इस सोच ने भारतीय सवर्ण समाज के युवाओं को भाजपा और संघ का ऐसा प्रेमी बना दिया है, जो शायद अब और कोई भंग नहीं कर सकता। भाजपा के लिए यह बहुत बड़ी कामयाबी है। क्योंकि वह पूरा राजनीतिक खेल पूरे दांवपेंच से खेल रही है। लेकिन सत्ता का नशा ऐसा है कि उसकी राह पर चल पड़ने के बाद राजनीति की धमनियों में वही डीजल काम आता है, जिसे फूंककर आज तक कांग्रेस से लेकर आम आदमी पार्टी तक सभी अपनी-अपनी हैसियत के अनुसार प्रदूषण फैलाती रही हैं। इसमें कभी रामनाथ कोविंद तो कभी केआर नारायण काम आते रहते हैं। अब भाजपा के पास केअार नारायण जैसी प्रतिभा नहीं है तो क्या हुआ, कोविंद हैं। क्या करें, उनके पास मनमोहनसिंह नहीं हैं, लेकिन बेचारे नरेंद्र मोदी से ही काम चला रहे हैं। आज पूरे देश में और मीडिया के सभी गोखों में मोदी का यशोगान हो रहा है। लेकिन यह सिर्फ़ नरेंद्र मोदी की प्रतिभा नहीं, उस अंबेडकर की बिछाई वह बारूदी सुरंग का कमाल है, जो उच्च जातियों के किलों को ध्वस्त करते हुए अपनी सोच को हिंदुत्व के खोल के भीतर अब आगे बढ़ा रही है। ब्राह्मण जवाहरलाल नेहरू, कायस्थ राजेंद्र प्रसाद और इनके ऊपर वैश्य माेहनदास कर्मचंद गांधी के साथ देश का शासन शुरू करने वाली कांग्रेस में जगजीवन राम जैसे प्रतिभावान नेता रोते ही रह गए, लेकिन उन्हें प्रधानमंत्री नहीं बनाया गया। बाकी विपक्ष को भी कभी वैश्य मोरारजी पसंद आए तो कभी जाट चरणसिंह और कभी क्षत्रिय चंद्रशेखर। और भी ऐसे ही नाम। भाजपा के हाथ भी सत्ता आई तो ब्राह्मण अटल बिहारी को लाया गया, लेकिन सत्ता में पार्टी की चूलें डगमग-डगमग होती रहीं। नतीजा ये निकला कि संघ और भाजपा ने सवर्णवाद से हटकर पिछड़ा और दलित पर फोकस किया और हालात बदल दिए। आप देखिए, यह अंबेडकर की सोच की कितनी बड़ी जीत है कि आने वाले दिनों में पूरा देश एक कोली रामनाथ कोविंद और एक घांची नरेंद्र मोदी के आगे नतमस्तक होगा। समस्त ब्राह्मण, समस्त क्षत्रिय और समस्त वैश्य। अंबेडकर, जिन्होंने हिन्दू धर्म को छोड़ा, इसे दुनिया का सबसे निकृष्ट और आततायी धर्म करार दिया, इस धर्म के शीर्ष देवताओं को सार्वजनिक रूप से गरियाया, यहां तक कि राम को भी नहीं बख्शा और उन पर वह सब कहा, जो अगर अरुंधति रॉय या कोई और कह दे तो पूरा संघ परिवार खाल खींच ले। लेकिन अंबेडकर और अंबेडकर की उस सोच का वे क्या करें, जिसने एक संपूर्ण हिन्दू क्रांति को ब्राह्मणवाद और सवर्णवाद के राजपथ से उतारकर दलितप्रियता और पिछड़ामोह की एक कच्ची राह पर डाल दिया है। अंबेडकरवाद ने हिंदुत्ववाद के भीतर फुदक रहे सवर्णवाद को पलीता दिखा दिया है और अब यह राजनीति इसी राह पर आगे बढ़ेगी। आप मानें या न मानें, लेकिन यह वही सोच थी, जिसने आडवाणी सहित तमाम उच्च वर्णीय भाजपा नेताओं को कूड़ेदान के ढ़ेर पर फिंकवा दिया। भले हिंंदुत्व का कितना भी राग कितने भी उच्च स्वरों से गाया जाए, लेकिन उस समय लगता है कि दलितों का दिखावटी ही सही, कुछ न कुछ भला सवर्णवाद भी करने को बेबस है, जब देखते हैं कि राजस्थान में संघ के तीनों प्रांतों से ब्राह्मणों और क्षत्रियों को विदा कर बिलकुल अछूत और पिछड़ी जातियों से लोगों को ऊपर लाने का एक प्रहसन किया जा रहा है। चलिए दिखावटी ही सही, मिट्टी के ही सही, आपने कुछ उपेक्षितों की प्रतिमाएं तो सत्ता के अपने देवालय में सजाईं। यही वह बिंदु है, जहां अंबेडकर अकेले गांधी से लेकर देवताओं की उस सोच तक पर भारी पड़ते हैं, जिसने कभी श्रेष्ठता हासिल कर लेने भर की आशंका से शंबूक का वध कर दिया था। देखिए, आज के बदले हालात, जहां रामराज्य लाने के लिए शंबूकों की तलाश हो रही है और उनसे डरा हुआ संपूर्ण ऋषिकुल कातर दृष्टि से एक कोने में मौन साधे खड़ा है। # छपाई की दुनिया के धांसू पत्रकार त्रिभुवन अपनी बेबाक मारक टिप्पणियों की बदौलत, सोशल मीडिया पर भी खासे सक्रिय हैं. यह टिप्पणी उनकी फेसबुक वॉल से ली गई है. |
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