हमारे जीवनादर्श राम-कृष्ण काल्पनिक नहीं: समकालीन हिंदी लेखन व पौराणिक आख्यान, बहसः भाग-3
जनता जनार्दन संवाददाता ,
Jun 02, 2017, 19:00 pm IST
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नई दिल्लीः हिंदी के युवा और बहुचर्चित आलोचक अनंत विजय के दैनिक जागरण में छपे लेख 'हिंदी में मिथकों से परहेज क्यों?' पर व्हाट्सएप के लब्धप्रतिष्ठित 'साहित्य' समूह में चली चर्चा में देश के सर्वाधिक प्रतिष्ठित विद्वतजनों में शुमार साहित्यकार, संपादक, पत्रकार, लेखक, प्राध्यापक, निर्देशक, समीक्षक सभी ने शिरकत की.
उस चर्चा को क्रमवार प्रस्तुत करने का क्रम जारी है. पहली कड़ी में हमने अनंत विजय जी का वह लेख उनके ब्लॉग हाहाकार से लेकर प्रस्तुत किया था. दूसरी कड़ी में उस लेख पर दिग्गजों के विचार शब्दशः दिए थे. उसी क्रम में राष्ट्रीय पुस्तक न्यास के वर्तमान अध्यक्ष, वरिष्ठ पत्रकार, विचारक और चिंतक बल्देव भाई शर्मा जी ने यह विचार रखे थे. आपके अवलोकनार्थ. अक्षरशः ****** बहुत अच्छा विचारपरक लेख है। एक अछूते विषय को आपने चर्चा के केंद्र में लाने का प्रयास किया है। इसमें आपकी सामाजिक पीड़ा झलकती है। पहले तो यह समझना बहुत जरूरी है कि राम, सीता, कृष्ण आदि मिथ नहीं हैं। औपनिवेशिक मानसिकता ने हमारे जीवनादर्शों को बड़ी चालाकी से मिथ यानी काल्पनिक बना दिया ताकि वे केवल कहानी भर रह जाएं, वे जीवन की प्रेरणा न रहें जिनसे भारतीय समाज संजीवनी पाता रहा है। विशेषकर लोककथाओं में श्रुत परम्परा से जो साहित्य पीढ़ियों से जीवंत था, उसे हिकारत से कपोल कल्पना बताकर हाशिए पर डाल दिया गया। लोक की अवमानना करना, उसे पोंगापंथ या दकियानूसी कहना बुद्धिजीवी होने का पैमाना बनता चला गया। भारतीय चिंतन में जो 'लोक' वैश्विक चेतना या सामाजिकता का परिचायक था उसे गांव-गंवार का प्रतीक बना दिया गया। इस तरह लोक को 'फोक' कहकर लोक कला, लोक संगीत, लोक नृत्य, लोक साहित्य, लोक कथा आदि आधुनिक विमर्श से बाहर या दूसरे दर्जे के होते चले गए। अब उसकी चर्चा मुख्य धारा के चिंतन की तरह नहीं, बल्कि बाजार और तमाशे के एक खास बौद्धिक नजरिए से होती है। जबकि लोक की व्यापकता को भवभूति कृत उत्तर रामचरितम् में राम के कथन 'आराधनाय लोकस्य' को रामराज्य और लोकतंत्र की मूल अवधारणा बनाकर प्रस्तुत किया गया है। विवेकानन्द ने सीता को समस्त स्त्री जाति का आदर्श बताया है और राम को वाल्मीकि ने रामो विग्रहवान् धर्मः यानी धर्म का जीवंत रूप बताया है। धर्म को भी कर्मकांड और ढोंग कहकर परिभाषित किया जाता है जबकि धर्म कोई पूजा-उपवास नहीं बल्कि मानवीय चेतना का आधार है। धर्म मनुष्यता का बोध है, वैश्विक चेतना का विस्तार है। जब कामायनी में मनु महाराज के अवतरण के बाद उन्हें जीवन का उद्देश्य बताया गया, तो प्रसाद लिखते हैं- औरों को हँसते देखो मनु, हंसो और सुख पाओ/ अपने सुख को विस्तृत कर लो, जग को सुखी बनाओ। वास्तव में यह कर्तव्य बोध ही धर्म है। पर आधुनिक विमर्श में मनु खलनायक बना दिए गए हैं और दुर्गा सप्तशती के महिषासुर वध को महिषासुर बलिदान बनाकर महिमामण्डित किया जाता है। स्वदेश फ़िल्म में एक गाने की पंक्ति है - मन से रावण जो निकाले राम उसके मन में हैं, लेकिन अपने अपने इज्म का झंडा फहराने के लिए आज महिषासुर व रावण को बुराई के प्रतीक की बजाय कुछ वर्गों या जातियों का प्रतीक बनाकर उन्हें प्रतिष्ठित किया जाता है। सरकारें राम के काल्पनिक होने का हलफनामा तक अदालत में देती हैं। आज बाजार नकारात्मकता को पोषता है क्योंकि नकारात्मकता ज्यादा बिकती और चर्चित होती है। लेकिन हमारे यहां समाजहित को ध्यान में रखकर कहा गया- यद्यपि सिद्धम् लोक विरुद्धम्, न करणीयम् न कथनीयम्। इसीलिए ऋषियों ने कहा- यानि अस्माकम् सुचरितानि तानि त्वया सेवितं यानी जो जो हमारे जीवन की अच्छी प्रेरक बातें हैं, उन्हीं का चिंतन करो क्योंकि वे भी मनुष्य हैं, उनकी बुराइयों की छीछालेदर करने से क्या हासिल होगा। सकारात्मकता भारतीय चिंतन की विशेषता है। इसीलिए तुलसीदास ने लिखा- कीरति भनति भूति भल सोई, सुरसरि सम सबकर हित होई। साहित्य या लेखन समाज हित में हो, सोई भला। विमर्श का अर्थ मानबिन्दुओं का खण्डन करना या साहित्य में वर्ग भेद खड़ा करना नहीं है। रामकथा पर विपुल साहित्य रचने के बाद भी मुख्यधारा में न गिना जाना साहित्य की सही दृष्टि नहीं है, क्योंकि राम ने जो जीवनमूल्य स्थापित किए उनके बिना तो मनुष्यता का ही अर्थ नहीं है। राम को किसी खास विचारधारा से जोड़कर देखना बौद्धिक दिवालियापन ही है। हर दौर में जीवन की परिस्थितियां बदलती हैं, जीवन का मूल उद्देश्य और अर्थ नहीं। धर्म को सनातन इसीलिए कहा गया है कि उसने शाश्वत जीवन दृष्टि को परिभाषित किया है। उसे केवल इसलिए मिथ कहना उचित नहीं है कि हमने उसे देखा नहीं। इस तरह तो एक दिन गांधी भी मिथ बन जाएंगे क्योंकि सत्य के प्रति इतना दृढ़ प्रतिज्ञ होना अविश्वसनीय होता जा रहा है। आइन्स्टाइन ने कहा भी है कि यह विश्वास करना मुश्किल होगा कि कभी हाड़ मांस का ऐसा आदमी हुआ था। लेकिन गांधी तो हुए हैं। पुराणों को मिथ कहा जाता है, लेकिन 'अष्टादश पुराणेषु व्यासस्य वचनम् द्वय, परोपकाराय पुण्याय पापाय परपीड़नम' का उल्लेख जीवन का शाश्वत सत्य है जो हर काल में प्रासंगिक है। इसलिए इन प्रसंगों और चरित्रों की व्याख्या उनके मूल भाव को ध्यान में रखकर किया जाना ही श्रेयष्कर है। उस पर लेखन से बचना या उसकी अनदेखी अथवा अपने इज्म या बाजार की जरूरत के अनुसार उसकी प्रस्तुति घातक है। यह मनुष्यता के प्रति अपराध है। |
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