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महात्मा गांधी को अपनी पत्नी व बेटों को अधिक समय देना चाहिए था: राजमोहन गांधी

महात्मा गांधी को अपनी पत्नी व बेटों को अधिक समय देना चाहिए था: राजमोहन गांधी नई दिल्ली: प्रख्यात बुद्धिजीवी व महात्मा गांधी के पोते राजमोहन गांधी का कहना है कि अपने लक्ष्य को साकार करने के लिए राष्ट्रपिता ने जो भी 'जरूरी व महत्वपूर्ण प्रयास' किए, उसकी एक बड़ी कीमत चुकानी पड़ी और उन्हें अपनी पत्नी तथा बेटों को अधिक समय देना चाहिए था।

राजमोहन ने अपनी नई पुस्तक 'वाई गांधी स्टिल मैटर्स' के विमोचन से पहले आईएएनएस को दिए साक्षात्कार में कहा, "उन्हें अपनी पत्नी तथा बेटों को अधिक समय देना चाहिए था और उनकी बात सुननी चाहिए थी। भारतीयों के अद्भुत मित्र व प्रेरणास्रोत होने के साथ-साथ गांधी एक बेहतरीन पति व शानदार पिता भी हो सकते थे।"

उन्होंने कहा, "लेकिन वह भी इंसान थे। उन पर भारत को गुलामी की जंजीरों से मुक्त कराने, सभी भारतीयों के बीच मित्रवत संबंध कायम करने और जहां तक संभव हो सके एक-दूसरे को माफ करने का जुनून था और वह इससे उबर नहीं पाए।"

लेखक के अनुसार, गांधी के परिवार के सदस्यों को इससे अक्सर ठेस लगी और इसकी टीस उनके हृदय में भी थी।

नई पुस्तक में गांधी के सर्वाधिक चर्चित व विवादास्पद विचारों, विश्वासों, कार्यो, सफलताओं तथा विफलताओं का भी जिक्र है।

लेखक ने लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता, बहुलवाद, समानता तथा अहिंसा को लेकर गांधी की प्रतिबद्धता, दुनिया को दिए उनके उपहार 'सत्याग्रह', जो भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में उनके संघर्ष की प्रमुख रणनीतियों में एक रहा, जातीय विभेद को लेकर उनके ऐतराज और विंस्टन चर्चिल, मोहम्मद अली जिन्ना तथा बी.आर. अंबेडकर के साथ उनके संबंधों के अतिरिक्त एक इंसान और पारिवारिक सदस्य के तौर पर उनकी विफलताओं का भी विश्लेषण किया है।

पर मौजूदा समय में महात्मा गांधी की प्रासंगिकता को लेकर वह क्या सोचते हैं?

इस पर वह कहते हैं, "यदि शत्रुता व वैमनस्य से मुक्त हृदय, जिसमें सभी भारतीयों के लिए जगह हो, की भावना अप्रासंगिक है तो गांधी का हमारे लिए कोई मूल्य नहीं है। यदि अभिजात्य वर्ग द्वारा गरीब समर्थित प्रतिबद्धता अप्रासंगिक है तो हम खुशी-खुशी उनकी उपेक्षा कर सकते हैं। यदि खुदगर्जी से भारत को खुशी मिलती है तो भी हमें गांधी को याद करने की आवश्यकता नहीं है। लेकिन हमें खुद से पूछना चाहिए कि आखिर दुनिया गांधी को क्यों याद करती है, जबकि उनके समकालीनों में से दुनियाभर की शख्सियतों को उस तरह याद नहीं किया जाता? आखिर गांधी को ही अक्सर कहीं उद्धृत क्यों किया जाता है, जबकि चर्चिल या (फ्रैंकलिन) रूसवेल्ट या उनके समय के किसी अन्य शख्स के साथ ऐसा नहीं है?"

उन्होंने बताया कि दो भारतीय-अमेरिकी न्यूयार्क के डॉक्टर अक्षय शाह और पेन्सिलवेनिया के डॉक्टर बरिंद्र देसाई ने उन्हें गांधी के जीवन व विचारों के कुछ मुख्य पहलुओं को बहुनस्ली व बहुराष्ट्रीय दर्शकों के सामने रखने के लिए बुलाया था, जिसने इस पुस्तक के लेखन के लिए उन्हें प्रेरित किया।

लेखक के अनुसार, गांधी के जीवन का मुख्य संदेश अपनी अंतरात्मा की सच्चाई को लेकर था।

उन्होंने कहा, "मेरे लिए यही उनके जीवन का मुख्य संदेश है। और चूंकि मैंने अपने मन व अंतरात्मा से सच्चा बना रहना चाहा, इसलिए मुझ पर उनके पोते के तौर पर किसी तरह का दबाव नहीं रहा। मैंने खुद से कभी नहीं पूछा कि मैं उनकी अपेक्षाओं के अनुसार जीवन जीता हूं या अन्य लोगों की उन अपेक्षाओं के तौर पर, जो वे उनके पोते से करते हैं।"

धर्मनिरपेक्षता तथा लोकतंत्र पर गांधी के दृष्टिकोण को साझा करते हुए और यह बताते हुए कि आज के विभाजनकारी दौर में उनके भाईचारे की सीख किस प्रकार कारगर हो सकती है, लेखक ने कहा कि करीब 108 साल पहले 1909 में उन्होंने 'हिन्द स्वराज' में स्पष्ट कर दिया था कि 'धर्म व राष्ट्रीयता दो अलग चीजें हैं' और 'कोई भी सफल या आधुनिक राष्ट्र इन्हें नहीं मिला सकता।'

लेखक के अनुसार, "वह अपने इस रुख से कभी पीछे नहीं हटे। 1948 में जब उनकी हत्या हुई, उन्होंने (जवाहरलाल) नेहरू, (सरदार) पटेल तथा अम्बेडकर जैसे नेताओं और ऐसी ही कुछ भारतीय शख्सियतों के जरिये यह सुनिश्चित करा लिया था कि हमारा गणराज्य कम से कम संवैधानिक रूप से धर्मनिरपेक्ष व निष्पक्ष बना रहेगा।"

जब उनके अपने ही शब्दों में उनसे पूछा गया कि क्या 'सत्ता के भूखे राजनेताओं' ने बापू का सिर नीचा किया तो उन्होंने कहा, "हमें यह पूछने की जरूरत नहीं है कि सत्ता के भूखे राजनेताओं या किसी अन्य ने बापू का सिर नीचा किया या नहीं? हम सभी को खुद से सवाल करना चाहिए कि क्या हम अपने सिद्धांतों के प्रति वफादार बने रहे? हमारे नेताओं को भी निश्चित रूप से खुद से पूछना चाहिए कि उन्होंने खुद को प्राथमिकता दी या देश को?"
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