टेलीविजन के इस बदलाव को मानिये तो सही
जनता जनार्दन संवाददाता ,
Jul 28, 2011, 19:26 pm IST
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मुंबई धमाकों के बाद मीडिया को लेकर मन आशंका से भर गया था। लगा फिर वही बकवास सुनने को मिलेगी। कुछ 'समझदार' लोग फिर मीडिया का मर्सिया पढ़ेंगे। मन में 26/11 के बाद टीवी पर हमले का मंजर घुमड़ रहा था। टीवी पर आरोप लगे थे कि उसने बेशर्मी से मरे हुए, खून से लथपथ लोगों की तस्वीरें दिखाईं, कमांडो कार्रवाई की जिंदा तस्वीरें दिखाकर कमांडोज की जान से खिलवाड़ किया, मुंबई के गुनहगार आतंकवादियों का लाइव फोन इन इंटरव्यू कर के देश के लहूलुहान मानस पर नमक छिड़का, आधी अधूरी जानकारी लोगों तक पहुंचाकर जांच को भटकाने की कोशिश की, झूठे राष्ट्रवाद की आड़ में लोगों को भड़काया और उन्हें सरकार के खिलाफ सड़क पर उतरने के लिए मजबूर किया। और ये सब तब हुआ जब टीवी के चंद बड़े लोग खुद ग्राउंड जीरो से रिपोर्टिंग कर रहे थे। मुझे याद है आउटलुक पत्रिका के एडिटर विनोद मेहता का वो बयान। उन्होंने कहा कि 'एडिटर को कौन एडिट करेगा'।
इस बार टीवी पर ये आरोप नहीं लगे। हालांकि अभी भी राहुल बोस जैसे लोग कहते हैं कि कुछ चैनलों ने लोगों की नाराजगी को कुरेद कुरेद कर उन्हें सरकार के खिलाफ उलटा-पुलटा कहने के लिए प्रेरित किया। अमिताभ बच्चन को इस बात पर आपत्ति थी कि चैनल इस विपदा की घड़ी में भी अपनी मार्केटिंग करने से नहीं चूके। हर छोटी सी खबर और हर मामूली तस्वीर को दिखाकर कहा कि ये सिर्फ उनके पास है, एक्सक्लूसिव। 26/11 के समय भी मैं ऐसे टिप्पणीकारों के राय से सहमत नहीं था और न ही आज मैं राहुल बोस और अमिताभ बच्चन की बात को तवज्जो देता हूं। तब भी मैंने कहा था कि टीवी ने बहुत संयम से काम लिया है और वही दिखाया जो उनसे अपेक्षित था। आतंकी हमले से त्रस्त लोग क्या सोच रहे हैं, ये अगर टीवी नहीं दिखाता तो सिस्टम में जवाबदेही नहीं आती। ये टीवी कवरेज का असर था कि लोगों के गुस्से से डर कर केंद्र सरकार को तत्कालीन गृहमंत्री शिवराज पाटिल का इस्तीफा लेना पड़ा। महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री और उपमुख्यमंत्री को त्यागपत्र देना पड़ा। हालांकि मैं ये मानता हूं कि इतनी बड़ी घटना टीवी के लिए भी नई थी। उसको कवर करने के लिये टीवी शायद पूरी तरह से तैयार भी नहीं था। लेकिन ये कहना कि वो गैरजिम्मेदार हो गया था और उसे सिर्फ अपनी टीवी रेटिंग की चिंता थी ये आरोप सिरे से गलत था। 26/11 ने पहली बार दंभी सत्ता प्रतिष्ठान के मन में जनता का खौफ बैठाया। उसने ये महसूस किया कि अगर अब भी कारगर कदम नहीं उठाए गए, आतंकवादी हमले नहीं रुके तो उसे लेने के देने पड़ सकते हैं। लोग सरकारों की काय़रता और बेवकूफियों को बर्दाश्त करने के लिए तैयार नहीं हैं। उसके बाद सरकारें जागीं, खासतौर से केंद्र सरकार। आतंकवाद देश के एजेंडे पर आया। देश में नई बहस शुरू हुई और ये सोच भी कुछ भी ये हमले बंद होने चाहिए। पी. चिदंबरम को वित्त से हटा कर गृहमंत्री बनाया गया। बजट में आतंकवाद से निपटने के लिए अतिरिक्त पैसों की व्यवस्था की गई। खुफिया तंत्र को मजबूत करने के लिए ठोस कदम उठाए गए, पुलिस व्यवस्था में सुधार की प्रक्रिया तेज हुई, नए आधुनिक यंत्रों और हथियारों की खरीद फरोख्त का सिलसिला शुरू हुआ। एनआईए का गठन हुआ। देश भर में एनएसजी के अलग-अलग केंद्र बनाए गए। नेट ग्रिड बन रहा है। यानी ढेरों कदम उठे। ऐसे में लोगों को टीवी का शुक्रगुजार होना चाहिए। 26/11 के बाद काफी बदलाव आया है। सरकार के स्तर पर भी और टीवी के अंदर भी। सरकारों ने टीवी को नकारने की जगह उसकी उपस्थिति को स्वीकार किया है। उसने ये सीखने की कोशिश की ऐसी घटनाओं के दौरान उसे कैसे टीवी से 'इंटरैक्ट' करना चाहिए। क्योंकि अखबार दिन में एक बार निकलता है जबकि टीवी हर सेकंड। उसकी जरूरत अखबार से अलग है। उसे सही और स्पष्ट सूचना चाहिए और तुरंत चाहिए। वो 24 घंटे इंतजार नहीं कर सकता। 26/11 के दौरान टीवी पर आरोप लगने का एक बड़ा कारण था सरकार के पास सूचना देने का कोई सिस्टम न होना। अलग-अलग सरकारी एजेंसियों का अपनी तरह से सूचना देना। दिल्ली में गृह मंत्रालय कुछ कहता था, मुंबई में मुख्यमंत्री कुछ और। मुंबई पुलिस का कहना कुछ होता था और एनएसजी का कुछ और। इस बार चिदंबरम खुद मुंबई पहुंचे। हर दो घंटे पर पत्रकारों को जानकारी देने की व्यवस्था की गई। इसलिए इस बार सूचना को लेकर ज्यादा अफरातफरी नहीं मची। दूसरा कारण ज्यादा बुनियादी है। 26/11 के समय टीवी संकट के दौर से गुजर रहा था। चैनल में खबरों का संकट था और बाहर साख का संकट। टीवी में 'आत्मविश्वास की कमी' थी। भूत-प्रेत-पिशाच, नाग-नागिन और दूसरे किस्म की बेवकूफियों को टीवी पर परोसने के कारण हर तरफ से उसकी थू थू हो रही थी। लोगों ने मान भी लिया था कि टीवी वाले रेटिंग के लिये कुछ भी कर सकते हैं। इसलिए 26/11 के बाद टीवी को उसके अच्छे काम की तारीफ नहीं मिली। लेकिन 26/11 के बाद टीवी में काफी बदलाव आया। वो खबरों के काफी करीब आया है। उसका आत्मविश्वास लौटा है। आईपीएल हो य़ा फिर CWG, आदर्श घोटाला हो या टू जी स्पैक्ट्रम कांड, उसकी मुहिम ने देश मे फैले भ्रष्टाचार के खिलाफ माहौल बनाने में मदद की और सत्ता तंत्र के अंदर एक खौफ पैदा किया कि अगर गलत करते हुए पकड़े गए तो टीवी छोड़ेगा नहीं, वो उनको कलमा़डी, शशि थरूर, ललित मोदी, अशोक चव्हाण,ए राजा, कनिमोड़ी और दयानिधि मारन बना देगा और अन्ना हजारे के रूप में मसीहा खड़ा कर देगा। करुणानिधि अकारण नहीं कहते कि मीडिया सबसे ताकतवर है और वो कुछ भी कर सकता है। इस नए आत्मविश्वास ने उसे खुद पर भरोसा करने की हिम्मत दी है। उसमे ये भरोसा पैदा हुआ है कि वो खबरों को चुने और खबरों के रूप में गंध को काटकर फेंक दे। यानी ये कहा जा सकता है कि टीवी पहले से ज्यादा मैच्योर हुआ है। वैसे मैच्योरिटी का भी क्या कहें कि जब मैच्योर माने जाने वाले चेन्नई के एक अखबार और दिल्ली के कई राष्ट्रीय दैनिकों ने वो तस्वीरें छाप दीं जो टीवी ने नहीं दिखाईं और अगर टीवी ने दिखाई होतीं तो फिर उस पर 26/11 वाले आरोप लगते कि वो संवेदनशील नहीं है। ऐसे में मुंबई हमले के बाद मन की आशंका कुछ समय बाद ही सुकून में तब्दील हो गई। लेकिन अभी भी जश्न मनाने का वक्त नहीं है। गलतियां अभी भी हो रही हैं, क्योंकि TRP की जंग अभी भी जारी है।
आशुतोष
वरिष्ठ पत्रकार और स्तंभकार आशुतोष तीखे तेवरों वाले खबरिया टीवी चैनल IBN7 के मैनेजिंग एडिटर हैं। IBN7 से जुड़ने से पहले आशुतोष 'आजतक' की टीम का हिस्सा थे। वह भारत के किसी भी हिन्दी न्यूज़ चैनल के प्राइम टाइम पर देखे और सुने जाने वाले सबसे चर्चित एंकरों में से एक हैं। ऐंकरिंग के अलावा फील्ड और डेस्क पर खबरों का प्रबंधन उनकी प्रमुख क्षमता रही है। आशुतोष टेलीविज़न के हलके के उन गिनती के पत्रकारों में हैं, जो अपने थकाऊ, व्यस्त और चुनौतीपूर्ण ज़िम्मेदारियों के बावजूद पढ़ने-लिखने के लिए नियमित वक्त निकाल लेते हैं। वह देश के एक छोर से दूसरे छोर तक खबरों की कवरेज से जुड़े रहे हैं, और उनके लिखे लेख कुछ चुनिंदा अख़बारों के संपादकीय पन्ने का स्थाई हिस्सा हैं।
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