Wednesday, 22 January 2025  |   जनता जनार्दन को बुकमार्क बनाएं
आपका स्वागत [लॉग इन ] / [पंजीकरण]   
 

पल! जब चली गई एक उम्र, दो जिंदगी

पल! जब चली गई एक उम्र, दो जिंदगी सुनीता तिवारी हिन्दी की वह चर्चित पत्रकार और लेखिका हैं, जिन्हें उनके चंचल व मददगार स्वभाव के लिए समूची राजधानी के मीडिया जगत में जाना जाता है. हिंदुस्तान टाइम्स समूह से जुड़ी सुनीता के जीवन से जुड़ी यह घटना इतनी मार्मिक है, कि कहानी न होकर एक करुण आख्यान बन जाती है...सुनीता ने अपनी यह आपबीति फेसबुक पर पोस्ट की थी. उन्हीं की अनुमति से शब्दशः यहां.

                                               ************

आज मैं वह बताना चाहती हूं, जिसे जानने के लिए साल भर लोग मुझसे मिलने आते रहे। बड़ी उत्सुकता से जानना चाहते थे कि अचानक क्या हुआ, कैसे हुआ? जो पढ़ना चाहे, पढ़कर हाल जान सकता है, वैसे कोई मजबूरी नहीं है।

एक पल में चली गई एक उम्र, एक जिंदगी। आधी से अधिक उम्र अकेले-अकेले बिताने के बाद एक-दूसरे के साथ से खुश थे, बहुत खुश थे हम दोनों। अचानक परिवार वालों ने पिछले वर्ष वसंत पंचमी का शुभ दिन देखकर आनन-फानन में हमें विवाह के बंधन में बांध दिया।

पिछले लगभग तीस या इससे भी अधिक समय से हमारी एक-दूसरे से दुआ-सलाम होती थी। मगर एक-दूसरे के बारे में कुछ न जानते थे।

कई वर्ष पूर्व की बात है, संजय जी के बड़े भाईसाहब (सुशांत निगम) संजय जी द्वारा दिल्ली में कराई गई प्रेस कांफ्रेंस में आए थे। संजय जी ने मुझे भी आमंत्रित किया था। ऑफिस के बाद मैं वहां (कामानी ऑडिटोरियम, मण्डी हाउस) चली गई।

कार्यक्रम के बाद लौटने लगी, तो संजय जी ने अपने भइया से मुलाकात करवाई। हम बातें करने लगे। संजय जी अपने अतिथियों को विदा कर रहे थे। जब मुझे और भइया को बात करते हुए काफी समय हो गया, तो मैंने घड़ी देखकर कहा कि भइया, मुझे जाना है। रात हो रही है, मैं रात को ज्यादा देर से घर जाना पसंद नहीं करती। तब भइया ने कहा कि सुनीता, तुमसे बात करके अच्छा लग रहा है, पर हां, तुम चलो। अपना फोन नंबर शेयर करो, मैं फोन पर बात कर लूंगा।

हमने फोन नंबर एक्सचेंज किए। संजय जी को मैंने बाय कहा, भइया बाहर तक मुझे छोड़ने आए, मुझे बहुत अच्छा लगा। वह उनका एक नारी को सम्मान देना और चिंता करना अच्छा लगा।

घर पहुंचकर मैंने भी फोन करके उन्हें बता दिया कि थैंक्स भइया, मैं घर पहुंच गई हूं। अगले दिन मैं ऑफिस में खाना खाने के लिए हाथ धोने गई, तो एकाएक भइया का फोन आ गया।

चल निकला बातों का सिलसिला। काफी देर बात होती रही। फिर कहने लगे कि तुम्हारा व्यवहार बहुत अच्छा लगा है। संजय और तुम अकेले-अकेले जिंदगी जी रहे हो। मैं रात को सोचता रहा कि तुम दोनों शादी कर लो, तो कितना अच्छा हो।

मेरे तो पांव के नीचे से जमीन ही निकल गई। बोली कि भइया, आपको गलतफहमी हो गई है। मैं और संजय जी तो असल में दोस्त भी नहीं हैं। बस, एक-दूसरे को पहचानते हैं।

तब भी भइया ने कहा कोई बात नहीं, तो अब सोच लो। मैं शादी करना ही नहीं चाहती थी। बात आई-गई हो गई। संजय जी से कभी फोन पर बात तक नहीं होती थी, मगर भइया से कभी-कभी बात होने लगी।

भइया का प्यार से बोलना, बड़े भाई की तरह समझाना कि जैसे मैं संजय का भाई हूं, तुम्हारा भी भाई हूं। तुम दोनों शादी कर लो, तो बहुत अच्छे से जिंदगी बीतेगी। भइया ने भी मेरी भावना की कद्र की। शादी के लिए नहीं कहते, मगर फोन पर बात होती रहती। तब मेरे पापा बहुत बीमार थे। वह लगभग बिस्तर पर थे।

मैं बहुत बातूनी हूं। पूरा समय उनसे बात करती रहती थी। घर जाकर खाना-पीना, सुबह का नाश्ता सब उनके बिस्तर के पास बैठकर खाती, ताकि ज्यादा से ज्यादा समय उनके साथ बिता पाऊं।

सभी बहनों की शादी हो चुकी थी। अनुज, मम्मी और मैं ही पापा के पास थे। मैंने कहा कि मैं पापा को इस हाल में छोड़कर शादी करने के बारे में सोच भी नहीं सकती। उसके बाद संजय जी और मेरे कॉमन फ्रेंड्स ने भी हमें शादी के लिए कहा।

शादी करने का बिल्कुल इरादा नहीं था। इसलिए बातोंबातों में बात पलट देती। हम दोनों ही मीडिया की लाइन में वर्षों से हैं, तो हमारे कॉमन फ्रेंड्स भी 80 से अधिक हैं। वे मेरी तारीफ संजय जी से और उनकी तारीफ मुझसे करने लगे।
सब हमारा भला चाहते थे कि दोनों ही काफी हंसमुख हैं। इनका जीवन अच्छा कटेगा। चार साल पहले मेरे पापा की मृत्यु हो गई। उनसे कुछ महीने पहले संजय जी की मम्मी भी नहीं रहीं।

मैं परिवार में रह रही थी। जल्दी पापा के दुख से उबर आई। मगर संजय जी मुंबई में अकेले रहते थे, अपनी मम्मी को बहुत मिस करते थे। वह डिप्रेशन में चले गए। बहुत परेशान रहने लगे, एक दिन मुझे फोन मिला दिया।
बातों-बातों में कहा कि तुम मुझे गलत न समझना पर तुम्हारी सीधी-सरल बातों से मुझे बहुत राहत सी मिलती है। प्लीज, मुझसे फोन पर बात करती रहना।

...और मैं तो बचपन से ही सोशल वर्कर के नाम से मशहूर थी। किसी का एक्सिडेंट हो जाए, किसी को कहीं भी कोई मुश्किल आ जाए, तो बस सुनीता मौजूद होती थी। बस, मैं संजय जी का अकेलापन दूर करने के लिए उनसे काफी समय तक अपने ऑफिस की, उनके न्यूज पेपर की बातें करती रही।

मैं और वह मुंबई से फोन पर बातें करते रहे, बातों के सिलसिले बढ़ते गए। और एक-दूसरे को हम कुछ ज्यादा ही समझने लगे। एक दिन जब बात शादी तक आई, तो मैं सोच मैं पड़ गई।

फिर सोचा कि लोग इन्हें समझें या न समझें यह व्यक्ति तो दिल का हीरा है। बातों ही बातों में इतना हंसाते कि लगा ऐसे व्यक्ति के साथ बचा हुआ सफर अच्छे से कट सकता है।

शादी की इच्छा दोनों की ही न थी पर बढ़ती उम्र का डर भी सामने था। दोनों के घरों से परिवार वालों ने भी पूरा सहयोग दिया। सब बहुत खुश थे। हम केवल फोन पर बात करते थे, तो सात फेरे लेने के बाद एक-दूसरे के साथ सहज नहीं हो पा रहे थे।

उन्होंने पहली बात कही कि सुनीता मुझे लग रहा है कि मुझे राईट हैंड मिल गया। अब हम अपने पेपर ‘कीप इन टच’ को बहुत आगे बढ़ा सकते हैं। हमारी शादी का सुनकर लोग एकदम चौंक जाएंगे। देखना हमारी जोड़ी रेखा और अमिताभ की जोड़ी की तरह मशहूर हो जाएगी।

हमारी आंखों में ढेरों सपने थे। हजारों अरमान थे। दोनों ही विवाह से दूर रहने वाले अब विवाहित जीवन जीना चाहते थे।  ढलती उम्र में जीवन की शुरुआत थी। पर पलक झपकते ही रेत का टीला ढह गया। हम दोनों के नए कपड़ों और सामान से भरे सूटकेस पैक के पैक ही रह गए।

सब देखते के देखते रह गए। यह क्या हो गया? सब कुछ एक झटके में समाप्त हो गया।

मुझे याद है 13 फरवरी 2016 की रात को लगभग रात एक बजे मैं उन्हें एम्स के इन गेट से पूरे होशोहवास में लेकर गई थी। वह इमरजेंसी में खुद ही चलकर गए थे। और वहां फार्म आदि भरवाने में, ट्रीटमेंट शुरू होने में देर हुई या होनी कहें। कुछ ही देर में वह बेहोश हुए।

फिर तो पूरा दिन हम सभी परिवार वाले उनके मॉनिटर पर देखते रहे। हालत बिगड़ती चली गई। और 14 तारीख प्रेम दिवस (वेलेंटाइन डे) पर वह दुनिया को ही अलविदा कह गए। (तब उन्हें हम एंबुलेंस में आउट गेट से बाहर लाए थे।)

पोस्ट मार्टम के बाद उनका विसरा लिया जाना था, क्योंकि शादी के अगले ही दिन मृत्यु हो गई। अभी वह बेहोश बिस्तर पर लेटे थे। पुलिस वाले वहीं फाइलें ले आए। पुलिस केस बन गया।

मुझे वहीं रुकने का आदेश दिया गया। मैं रात भर से बिना नहाए, बिना खाए वहां बैठी थी। उस पर उनकी तबीयत ठीक हो जाएगी इस चीज की तसल्ली डॉक्टर दे नहीं रहे थे।

पुलिस वालों ने बारबे क्यू नेशंस से दो-तीन लोगों को हॉस्पिटल में ही बुला लिया। मुझ से कब खाना खाने गए थे, कौन-कौन गया था, कितने बजे थे। सब पूछा गया।

पूरा बयान लिया गया, फिर मुझसे लिखवाया गया। मेरे पूरे परिवार को शक की निगाहों से देखा गया। पूरी पूछताछ हुई। गाड़ियां भरकर पुलिस मेरे घर पहुंच गई।

एक तरफ मैं अपने प्यारे दोस्त, जिसके साथ अंत तक साथ चलने का वचन लिया था। उनकी जिंदगी की दुआ भगवान से मांग रही थी। बार-बार बेहोश पड़े संजय जी के पैर छूकर उन्हें कहती थी कि आपको मेरे लिए ठीक होना ही होगा।

कभी डॉक्टर, तो कभी नर्स आवाज लगा देतीं कि संजय की वाइफ को बुलाओ। मैं अभी तक इस बात को रजिस्टर नहीं कर पाई थी कि हम दोस्त से आगे कुछ हो गए हैं। उसकी वजह थी मैं अभी उनके घर गई नहीं थी। हमें इकट्ठे रहने का मौका मिला नहीं था। हम दोस्तों सा ही व्यवहार कर रहे थे।
जब अंदर से वाइफ को बुलाओ कहते, तो मेरी बहन गीता मुझे झिंझोर कर कहती, जा तुझे बुला रहे हैं। बहुत कठिन था वह वक्त गुजारना। क्या होने वाला है, कोई नहीं जानता था।

मुझसे संजय जी के पापा का नाम पूछा गया। वह इस दुनिया में ही नहीं हैं। हमारी शादी के कोई कार्ड छपे नहीं थे, इसलिए मुझे नाम पता ही नहीं था। इमरजेंसी एडमिशन से पहले फार्म में इनके घर का पता लिखना था। मैं कभी मुंबई गई नहीं, मैं इनके घर नहीं गई। मैं पता भी नहीं बता सकी।

बस, आनन-फानन में अपनी मम्मी के घर का पता भरकर एडमिशन करवा दिया। संजय जी की मृत्यु के बाद कई दिन एफिडेविट बनवाते रहे कि इस मजबूरी में पता वहां का लिखना पड़ा।

फिर मेरा आधार कार्ड मांगा गया। जिसमें मेरी मम्मी के घर का पता था। संजय जी के आधार कार्ड पर उनके घर का पता था। दोनों पते अलग हैं, तो आज तक इतने चक्कर काटने के बाद भी, एक साल बाद भी संजय जी का डेथ सर्टिफिकेट मुझे नहीं दिया गया। उनके भइया को दिया गया।

विसरा की रिर्पोट भी भइया ने मुझे वाट्स एप से भेजी थी। प्रेस क्लब में कंडोलेंस मीटिंग के बाद मैं संजय जी का सारा सामान उनके भइया को थमाकर अपनी मम्मी के साथ लौट आई थी।

बाद में पुलिस स्टेशन जाकर भइया ने ही लिखा कि यह बेकसूर है। पर केस चलता रहा, विसरा की रिर्पोट का इंतजार लंबा चला। मैंने किसी से भी सिफारिश नहीं लगवाई। क्योंकि मैं अपनी नजरों में गिरना नहीं चाहती थी।

मैं निर्दोष थी, इसीलिए न्याय मिलने और बेकसूर बरी होने का इंतजार करती रही। पर फिर भी एक तो उनकी यादों की झलकियां, दूसरा धड़कनों का तेज हो जाना कि पता नहीं विसरा की क्या रिपोर्ट आएगी, क्योंकि हम भारत में रहते हैं, यहां कई केस ऐसे भी होते रहते हैं, जिनमें सच को सच साबित करने में उम्र गुजर जाती है। एक चमकती धारदार तलवार मेरे सिर पर टंगी रही।

दस महीनों बाद रिपोर्ट आई, तो एक किस्म की वह एलर्जी निकली. जिसके बारे में सुनकर लंदन में संजय जी के भइया को डॉक्टरों ने कहा था, फलां एलर्जी हुई है, बचना मुश्किल है। अगर बच भी गए, तो उम्र भर हाथ पर एलर्जी का टैग लगाकर रखना होगा।

मैं डॉक्टर से यही कह रही थी, कितना भी खर्च आए, चाहे इन्हें पैरालाइस हो जाए, मैं संभाल लूंगी। बस, किसी तरह जान बचा लो। संजय जी की मृत्यु के बाद मुझे जो भी मिलता, बेचारी के अंदाज में रहम खाता। दस तरह के सवाल पूछे जाने लगे।

मुझे समझ न आता कि मैं मिस हूं या सिर्फ मंदिर के फेरों के बाद मिसिस हूं। ना उनका घर, ना मम्मी-पापा, ना कोई लेना, ना देना। मस्त सी जिंदगी में ग्रहण लग गया।

जिनके साथ सारे रिश्ते शुरू होते हैं, वह हैं नहीं. कोई मुझे भाभी, कोई चाची, कोई कुछ कहने लगा। मगर वह रिश्ते जिनके कारण बने, उन्हें तो किसी से मिलवाने का मौका भी मिला ही नहीं।

एक दिन अचानक लाल जोड़ा पहनना, अगले दिन अस्पताल में फेरा, उसके अगले दिन पोस्ट मार्टम विंग के बाहर बॉडी मिलने का इंतजार करना, मगर विसरा पुलिस ने लेना था, इसलिए उसके अगले दिन बॉडी दी गई, फिर श्मशान भूमि में जाना।

उसके अगले दिन चौथे का हवन, उसके अगले दिन अस्थियां लेने निगम बोध घाट पर जाना। वहीं से गढ़ मुक्तेश्वर तक बर्फ में भीगी अस्थियां गोद में लेकर जाना। वहां विसर्जित करना...

इस दौरान ना जाने कितनी बार कौन-कौन सी प्रक्रिया से गुजरना। फिर वापस ऑफिस की ओर जाना। उस पर कभी किसी का यह अफवाह फैलाना कि यह तो प्री प्लान था। कभी यह कहना कि अरे, सुना है संजय निगम की वाईफ ने उसका मर्डर कर दिया है।

माना यह सब कहने वाले लोग सनसनी खबरों के प्रोग्राम ज्यादा देखते हैं। उनकी मानसिकता में यही बातें रची-बसी होंगी। उनके अपने परिवार में, उनके आसपास कोई एक घटना हुई होगी।

पर मेरा दावा है कि भारतीय नारी को पति को परमेश्वर मानने का बचपन से सबक मिलता है। उस पर जो भारतीय पत्नी दिन भर भूखी-प्यासी रहकर पति की लंबी उम्र की कामना करने के लिए करवा चौथ का व्रत हर साल रखती है। वह आधी उम्र अकेले ही गुजार कर, पूरे होशोहवास में विवाह करके, मर्डर कभी नहीं करेगी।

यह मैं इसलिए लिख रही हूं कि यह मेरा बहुत कड़वा अनुभव है। इन सब उलझनों ने मुझे बीमार कर दिया। अब मैं इलाज करवा रही हूं। मगर सबसे पहले अपने परिवार का धन्यवाद करूंगी, जिन्होंने मुझे फिर से नई जिंदगी दी। मुझे पल-पल खुश रखने की कोशिश की। मेरा बहुत ध्यान रखा।

साल भर सदमे के कारण रात-रात भर बैठे रहने से स्लिप डिस्क हो जाने पर इलाज करवाया। फिर संजय जी की रेखा मौसी का शुक्रिया जिन्होंने अगले ही दिन मेरी मम्मी को फोन करके कहा कि सुनीता के लिए बिंदी, बिछुए, चूड़ियां, रंगीन कपड़े लाना। इसे दूसरे रूप में देखकर संजय की आत्मा दुखेगी।

एक नारी ही दूसरी नारी का दर्द समझ सकती है। इन चीजों ने मुझे संभलने में काफी मदद की। अभी तक सुनती आई हूं कि नारी ही नारी की दुश्मन होती है। जबकि मुझे ज्यादा सहारा महिलाओं ने ही दिया। वह चाहे मेरी मां, बूआ, बहनें, भाभी, मौसी, सहेलियां, संजय जी की भाभी, उनकी बेटियां, मौसी जी, उनकी बहू, उनकी दीदी, मेरे पड़ोस में रहने वाली महिलाएं, मेरे साथ काम करने वाली महिलाएं, जानने वाली, पहचानने वाली महिलाओं ही क्यों न हों, उन्होंने मेरे आंसू समय-समय पर पोंछे।

ऐसा नहीं है कि पुरुषों के दिल पत्थर थे, उन्होंने भी मेरे दर्द को समझा। बहुत से मेरे जानने वाले, संजय जी के जानने वाले साल भर मेरे जख्मों पर मरहम लगाते रहे, उनमें से काफी लोगों को तो मैं जानती तक नहीं थी।

उनके मण्डी हाउस फिल्मी ग्रुप ने श्रद्धांजलि सभा की। मुझे वहां काफी सम्मान दिया गया। मुंबई में संजय जी को मरणोपरांत अवार्ड दिया गया। बचपन से मेरे साथ कुछ भी बुरा होता था, तो मैं कहती थी कि भगवान अच्छा ही हुआ मुझे एक अनुभव मिला। मेरे साथ ऐसा न होता, तो मैं दूसरे की तकलीफ को अच्छी तरह महसूस नहीं कर सकती थी।

पर इतने बुरे अनुभव के लिए मैं भगवान से भी झगड़ती रही। कभी कहती कि हे भगवान, मुझे आप पर रहम आ रहा है। पता नहीं हमारे कौन से बुरे कर्म थे। जिन्हें आप बख्श नहीं सकते थे। आपको भी हमें इतनी बुरी सजा देते हुए कितना कष्ट हुआ होगा।

अब मैं जब भी भगवान से प्रार्थना करती हूं, तो कहती हूं कि हे भगवान जो हमारे साथ किया, वह आगे किसी के साथ कभी न करना। संजय जी कितना असहाय महसूस करते थे। कितनी कष्टदायी जिंदगी जी रहे थे।

पिछले छह महीनों से लगातार लूज मोशन हो रहे थे। सोते वक्त अकसर नाक से खाना निकल जाता था। बहुत तकलीफ होती थी। पांव की हड्डी का ऑपरेशन अभी होना बाकी था। बीपी उनकी ज्यादा थी.

भले ही जरूरत के वक्त किसी ने मदद न की हो पर बिना सोचे-समझे बोलना है। अगला पल किसी को पता नहीं होता। अब उनकी मधुर यादों के साथ उनके लिए बस दुआ ही कर सकती हूं कि वह जहां भी हों, खुश रहें।

उन्हें वह हर चीज मिले, जिसका अभाव उन्हें पिछले जन्म में रहा। भगवान ने चाहा तो हम फिर से किसी जन्म में जरूर मिलेंगे। अब मेरे शुभचिंतकों का शुक्रिया अदा करना चाहूंगी, जिन्होंने मेरी जिंदगी के बारे में सोचा।

साल भर कभी कोई, तो कभी रिश्ता बताया कि दोबारा शादी कर लो। मैं उनकी भी शुक्रगुजार हूं। पर हाथ जोड़कर निवेदन है कि विवाह का इरादा तो पहले भी नहीं था, अब तो बिल्कुल भी नहीं सोच सकती।

मैं किसी का अपमान नहीं करना चाहती, किसी का दिल नहीं दुखाना चाहती, अगर गलती से किसी का दिल दुखा हो, तो क्षमा चाहती हूं। मैं अब ठीक हूं। अकेले भी काटते हैं सफर लोग, जब हमसफर बीच राह छोड़ जाए।
अन्य आधी दुनिया लेख
वोट दें

क्या आप कोरोना संकट में केंद्र व राज्य सरकारों की कोशिशों से संतुष्ट हैं?

हां
नहीं
बताना मुश्किल