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वाराणसी हादसा: आस्था का समागम या मौत का संगम

वाराणसी हादसा: आस्था का समागम या मौत का संगम वाराणसी में एक धार्मिक आयोजन में शिरकत करने पहुंचे हजारों श्रद्धालुओं के बीच मची भगदड़ से 25 से अधिक बेगुनाह लोगों की मौत हो गई, जबकि सैकड़ों घायल हो गए.

आयोजन बाबा जयगुरुदेव के अनुयायियों की तरफ से वाराणसी के डुमरिया में किया गया था. वहां शाकाहार पर दो दिवसीय समागम आयोजित था. कहा जा रहा है कि राजघाट पुल से किसी महिला के नीचे गिरने के बाद मची भगदड़ के चलते इतने लोगों की जान चली गई.

पुलिस पर आरोप है कि पुल पर लगे जाम को मुक्त कराने के लिए लाठियां भांजी, जिससे यह हादसा हुआ. फिलहाल यह सब जांच का विषय है. लेकिन सवाल उठता है कि इतनी बड़ी भीड़ की अनुमति क्यों दी गई, क्या धर्म की आड़ में जिंदगी से खेलना जायज है?

हम धर्म और आस्था को लेकर इतने लचीले रुख क्यों अख्तियार करते हैं. जब लोगों को पर्याप्त सुरक्षा उपलब्ध कराने की हमारे पास व्यवस्था उपलब्ध नहीं है, उस स्थिति में इस तरह के आयोजनों की अनुमति ही क्यों दी जाती है. धार्मिक स्थलों या फिर राजनैतिक रैलियों में आम और बेसहारा आदमी ही मारा जाता है. कभी यह नहीं सुना गया कि आयोजन करने वाले लोगों या किसी संत या मठाधीश की जान गई.

हमें आम आदमी की सुरक्षा को लेकर क्यों इतने लापरवाह हो जाते हैं. धर्म की इस भीड़ से क्या मिला बजाए मौत. समागम में जो उपदेश दिए जाते हैं वह सांगठनिक और मीडिया के माध्यम से भी दिए जा सकते थे. इतनी भीड़ जुटाने की जरूरत क्या थी. जब जिला प्रशासन के पास पर्याप्त सुरक्षा व्यवस्था उपलब्ध नहीं थी, फिर इतने लोग वहां कैसे पहुंच गए.

अब घटना पर राजनीति भी शुरू हो गई है, क्योंकि इसका ताल्लुक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के संसदीय क्षेत्र से है. दूसरी तरफ कानून व्यवस्था राज्य की जिम्मेवारी है. इसके अलावा सबसे अहम बात है कि उप्र में कुछ महीनों के बाद विधानसभा चुनाव होना है. जाहिर सी बात है, राजनैतिक पार्टिया सियासी फायदे के लिए इसका इस्तेमाल करेंगी.

वह भी जब मरने वालों में सबसे अधिक पिछड़े और दलितों की संख्या हो, क्योंकि सियासत भी इन्हीं के इर्द-गिर्द घूमती है. वैसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने घटना पर दुख जताया है और मुआवजा राशि की भी घोषणा की है, लेकिन सवाल राजनीति का भी है.

देश और दुनिया में धार्मिक आयोजनों में भगदड़ और उसके बाद मौत की यह कोई नई घटना नहीं है. इस तरह की घटनाएं आम हैं. लेकिन इसके बाद भी हम कोई सबक नहीं सीखते बड़ा सवाल यह है. कुछ साल पहले उप्र के प्रतापगढ़ में कृपालु महराज के एक आयोजन में काफी लोगों की जान गई थी. पटना के गांधी मैदान में भी दो साल पूर्व दशहरा के दिन कई लोगों की जान गई थी.

अभी पिछले दिनों लखनऊ में बहुजन समाजवादी पार्टी (बसपा) की तरफ से आयोजित राजनीतिक रैली में भगदड़ की वजह से तीन से अधिक लोगों की जान चली गई. लेकिन इसके बाद भी हम भीड़ को अपनी तागत समझते हैं. यह सिद्धांत राजनीति और धर्म दोनों पर लागू होता है. भीड़ को नियंत्रित करने का दुनिया के पास कोई सुव्यवस्थित तंत्र नहीं है, जिससे दर्जनों बेगुनाहों की जान चली जाती है.

सरकार की ओर से लोगों को मुआवजा देकर अपने दायित्वों की इतिश्री कर ली जाती है. लेकिन व्यवस्था से जुड़े लोगों का ध्यान फिर इस ओर से हट जाता है. यही लापरवाही हमें दोबारा दूसरे हादसों के लिए जिम्मेदार बनाती है.

एक रिपोर्ट के अनुसार, 1980 से 2007 तक दुनिया भर में भगदड़ की 215 घटनाएं हुईं, जिसमें 7,000 से अधिक लोगों की मौत हुई. उससे दुगुने लोग जख्मी हुए.

साल 2005 में बगदाद में एक धार्मिक जुलूस के दौरान तकरीबन 700 लोग मारे गए, जबकि 2006 में मीना घाटी में हज के दौरान लगभग 400 लोगों की मौत हुई. 2015 में इसी तरह की घटना हुई थी, जिसमें 100 से अधिक लोग शैतान को पत्थर मारने के दौरान मची भगदड़ में मारे गए थे.

इंटर नेशनल जर्नल ऑफ डिजास्टर रिस्क रिडक्शन में प्रकाशित अध्ययन के अनुसार, देश में 79 फीसदी हादसे धार्मिक अयोजनों मंे मची भगदड़ और अफवाहों से होते हैं. 15 राज्यों में पांच दशकों में 34 घटनाएं हुई हैं, जिसमें हजारों लोगों को जान गवांनी पड़ी है. दूसरे नंबर पर जहां अधिक भीड़ जुटती हैं, वहां 18 फीसदी घटनाएं भगदड़ से हुई हैं. तीसरे पायदान पर राजनैतिक आयोजन हैं जहां भगदड़ और अव्यवस्था से तीन फीसदी लोगों की जान जाती है.

नेशनल क्राइम ब्यूरो के अनुसार, देश 2000 से 2012 तक भगदड़ में 1823 लोगों को जान गंवानी पड़ी है. 2013 में तीर्थराज प्रयाग में आयोजित महाकुंभ के दौरान इलाहाबाद स्टेशन पर मची भगदड़ के दौरान 36 लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ी, जबकि 1954 में इसी आयोजन में 800 लोगों की मौत हुई थी. उस दौरान कुंभ में 50 लाख लोगों की भीड़ आई थी.

साल 2005 से लेकर 2011 तक धार्मिक स्थल पर अफवाहों से मची भगदड़ में 300 लोग मारे जा चुके हैं. राजस्थान के चामुंडा देवी, हिमाचल के नैना देवी, केरल के सबरीमाला और महाराष्ट्र के मंडहर देवी मंदिर में इस तरह की घटनाएं हुई हैं. अभी कुछ महीने पहले दक्षिण भारत के एक देवी मंदिर में पटाखा विस्फोट से कई लोगों की मौत हो गई थी और मंदिर को भी नुकसान पहुंचा था.

भारत और दुनिया के गैर मुल्कों में धर्म और आस्था को लेकर लोगों का अटूट विश्वास है. धार्मिक भीरुता भी हादसों का कारण बनती हैं. धर्म की आस्था अधिक हावी होने से हम एक भूखे, नंगे और मजबूर की सहायता की बजाय दोनों हाथों से धार्मिक उत्सवों में दान करते हैं और अनीति, अधर्म और अनैतिकता का कार्य करते हुए भी हम भगवान और देवताओं से यह अपेक्षा रखते हैं कि हमारे सारे पापों को धो डालेंगे, जिसका नतीजा होता है कि हादसे बढ़ते हैं और लोग बेमौत लोग मारे जाते हैं.

निश्चित तौर पर धर्म हमारी आस्था से जुड़ा है, लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि हम धर्म की अंधश्रद्धा में अपनी और परिवार की जिंदगी ही दांव पर लगा बैठें. इसका हमें पूरा ख्याल करना होगा. तभी हम इस तरह के हादसों पर रोक लगा सकते हैं. अगर दुनिया के लोग धार्मिक आयोजनों पर बेहतर प्रबंधन नीति नहीं बनाते हैं तो हादसों में बेगुनाह लोग मरते रहेंगे और हम हाथ पर हाथ रख मौत का तांडव देखते रहेंगे.

इस तरह के आयोजनों पर पूर्ण प्रतिबंध लगना चाहिए. अगर ऐसा संभव नहीं है तो उस तरह की सुरक्षा व्यवस्था और दूसरे इंतजाम उपलब्ध कराए जाएं, जिससे इस तरह के हादसों से बचा जाए. इस तरह के आयोजनों को वोट बैंक से जोड़कर नहीं देखना चाहिए. इस तरह की घटनाओं के बाद धन और जन दोनों की हानि होती है और कई परिवारों के लिए यह सदमा जिंदगी भर का गम दे जाता है.

# लेखक प्रभुनाथ शुक्ल स्वतंत्र पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं
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