सेना छोड़ भिक्षु बने संघसेन लेह में अब बांट रहे शिक्षा
जनता जनार्दन संवाददाता ,
Jul 20, 2011, 19:07 pm IST
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लेह: भिक्षु संघसेन को सैनिक का काम रास न आया तो वह बंदूक छोड़ भिक्षु बन गए लेकिन इससे भी उन्हें शांति न मिली तो उन्होंने जम्मू एवं कश्मीर के लद्दाख क्षेत्र के गरीब बच्चों को शिक्षित करने का निर्णय लिया। भिक्षु संघसेन चाहते हैं कि ये बच्चे भी बाकी की दुनिया के साथ कदम से कदम मिलाकर चल सकें।
संघसेन मानते हैं कि शिक्षा एक ऐसा हथियार है जिससे दुनिया को जीता जा सकता है। उन्होंने कहा, "मैं सैनिक था और हमारे प्रशिक्षक हमसे कहते थे कि आप दुनिया के बारे में क्या जानते हैं, आप तो 'पहाड़ी' हैं। उनकी इन टिप्पणियों पर मेरा खून खौल उठता था।" उन्होंने कहा, "मैं 1974 में 17 साल की आयु में सेना में शामिल हुआ था और वहां साढ़े चार साल तक सेवाएं दीं। एक बौद्ध भिक्षु से मिलने व बुद्ध के उपदेश सुनने के बाद मुझे महसूस हुआ कि मैं बौद्ध धर्म के अनुसार शुद्ध जीवन नहीं जी रहा हूं। मैंने सेना छोड़ने व एक भिक्षु बनने का निर्णय लिया।" तिरपन वर्षीय संघसेन ने कहा, "लेकिन एक भिक्षु का जीवन जीना ही पर्याप्त नहीं था।" संघसेन लद्धाख के तिमिसगैंग के रहने वाले हैं। वह 1986 में अपने राज्य वापस लौटे और उन्होंने महसूस किया कि इस क्षेत्र ने उन्नति को नजरअंदाज किया है। उन्होंने सबसे पहले 1992 में 25 लड़कियों के साथ लेह के देवाचन में एक शैक्षिक संस्थान 'महाबोधि रेजीडेंशियल स्कूल' शुरू किया। ये छात्राएं दूरदराज के इलाकों से थीं और संघसेन लड़कियों को सशक्त बनाना चाहते थे। पांच साल बाद उन्होंने लड़कों को भी दाखिला देना शुरू कर दिया। संघसेन ने इस स्कूल की तीन और शाखाएं शुरू कीं। इनमें से एक शाखा उनके गृह नगर तिमिसगैंग में है, जहां 130 छात्र पढ़ाई कर रहे हैं। दूसरी शाखा बोधखरबू में हैं, वहां 116 छात्र हैं। तीसरी शाखा नेई में है और वहां 36 छात्र हैं। संघसेन ने बताया कि इन स्कूलों में औपचारिक शिक्षा दी जाती है ताकी यहां से निकले बच्चे यदि सामान्य जीवन में लौटना चाहें तो लौट सकें। उन्होंने दृष्टिबाधित बच्चों के लिए भी एक विद्यालय खोला है। संघसेन के इन स्कूलों के प्रति जागरूरता पैदा करने और इनके लिए धन जुटाने के मकसद से फिल्म निर्देशक हरीश शर्मा इन पर एक वृत्तचित्र फिल्म बना रहे हैं। |
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