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जब तक जिंदा हूं, मानवता के ऊपर देशभक्ति की जीत नहीं होने दूंगा: टैगोर
जनता जनार्दन डेस्क ,
Feb 17, 2016, 17:20 pm IST
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![]() ऐसे में यह जानना भी दिलचस्प होगा कि भारत के लिए आजादी की इबारत लिखने वाले महानायक, जिन्होंने देश की स्वतंत्रता में किसी न किसी रूप से योगदान दिया, उनकी देशभक्ति को लेकर क्या राय थी। गीतांजलि महाकाव्य और राष्ट्रगान ‘जण गण मण’ लिखने वाले महान कवि रवींद्रनाथ टैगोर, मानवता को राष्ट्रीयता से कहीं ज्यादा ऊंचे स्थान पर रखते थे। नोबेल पुरस्कार विजेता अमर्त्य सेन ने अपनी किताब ‘Argumentative Indian’ में टैगोर संबंधित एक अध्याय ‘टैगोर और उनका भारत’ में टैगोर के राष्ट्रीयता और देशभक्ति से जुड़े विचारों का वर्णन किया है। प्रस्तुत है उसी अध्याय के कुछ संपादित अंश – सामाजिक कार्यकर्ता और पादरी सी एफ एंड्रूयज़, महात्मा गांधी और टैगोर के करीबी मित्रों में से एक थे। एंड्रूयज़ इन दोनों के बीच की चर्चा का वर्णन करते हुए बताते हैं– ‘दोनों के विचार कई मुद्दों पर बंटे हुए रहते थे। चर्चा का पहला विषय होता था मूर्ति पूजा। गांधी इसके पक्षधर थे, क्योंकि उन्हें लगता था कि जनता इतनी जल्दी किसी भी निराकार, अमूर्त रूप को स्वीकार करने के लायक नहीं हैं। वहीं टैगोर जनता को हमेशा बच्चा समझे जाने के पक्ष में नहीं रहते थे। गांधी यूरोप का उदाहरण देते थे जहां झंडे को आराध्य समझकर काफी कुछ हासिल किया गया। टैगोर इससे सहमत नहीं दिखते थे। दूसरा मुद्दा राष्ट्रीयता का होता था, गांधी इसका बचाव करते थे। वह कहते थे कि अंतरराष्ट्रीयता को हासिल करने के लिए राष्ट्रीयता से गुज़रना ज़रूरी है। जिस तरह शांति को हासिल करने के लिए युद्ध से गुज़रना आवश्यक है।’ टैगोर के मन में गांधी के लिए बहुत आदर था, लेकिन वह उनसे कई बातों पर उतनी ही असहमति भी दिखाते थे। राष्ट्रीयता, देशभक्ति, सांस्कृतिक विचारों की अदला बदली, तर्कशक्ति ऐसे ही कुछ मसले थे। हर विषय में टैगोर का दृष्टिकोण परंपरावादी कम और तर्कसंगत ज्यादा हुआ करता था, जिसका संबंध विश्व कल्याण से होता था। आज़ादी से जुड़े आंदोलनों को टैगोर का पूरा समर्थन था, लेकिन देशभक्ति को लेकर उनके मन में कुछ संदेह भी थे। टैगोर मानते थे कि देशभक्ति ‘चार दिवारी’ से बाहर विचारों से जुड़ने की आज़ादी से हमें रोकती है, साथ ही दूसरे देशों की जनता के दुख दर्द को समझने की स्वतंत्रता को भी सीमित कर देती है। आज़ादी के प्रति उनके जुनून में बेसबब परंपरावाद का विरोध भी शामिल था, जो उनके मुताबिक, किसी को भी अपने अतीत का बंदी बना लेता है। आजादी की लड़ाई के दौरान होने वाले आंदोलनों में अतिरेक राष्ट्रवादी रुख की टैगोर हमेशा निंदा करते थे। यही वजह थी कि वह समकालीन राजनीति से खुद को दूर भी रखते थे। वह आज़ाद भारत की कल्पना करते थे, लेकिन वह यह भी मानते थे कि घोर राष्ट्रवादी रवैये और स्वदेशी भारतीय परंपरा की चाह में पश्चिम को पूरी तरह नकार देने से कहीं न कहीं हम खुद को सीमित कर देंगे। यही नहीं स्वदेशी की इस अतिरिक्त चाह में हम अलग-अलग शताब्दी में भारत पर अपनी छाप छोड़ चुके ईसाई, यहूदी, पारसी और इस्लाम धर्म के प्रति भी असहिष्णु रवैया पैदा कर लेंगे। टैगोर लगातार अपने लेखन में देशभक्ति की आलोचना करते नजर आते थे। 1908 में ही वैज्ञानिक जगदीश चंद्र बोस की पत्नी अबला बोस की एक आलोचना का जवाब देते हुए उन्होंने इस मामले में अपना रुख साफ कर दिया था। टैगोर ने लिखा ‘देशभक्ति हमारा आखिरी आध्यात्मिक सहारा नहीं बन सकता, मेरा आश्रय मानवता है। मैं हीरे के दाम में ग्लास नहीं खरीदूंगा और जब तक मैं जिंदा हूं मानवता के ऊपर देशभक्ति की जीत नहीं होने दूंगा।' टैगोर का बंगाली उपन्यास (घर-बाहर) भी देशभक्ति की रूमानियत पर आधारित है। इस कहानी में नायक निखिल सामाजिक सुधार और महिला सशक्तिकरण के लिए आवाज़ उठाता है, लेकिन राष्ट्रवाद को लेकर थोड़ा नरम पड़ जाता है। उसकी प्रेमिका बिमला, उसके इस रुख से नाराज़ हो जाती है। वह चाहती है कि निखिल भी अंग्रेज़ों के खिलाफ नारे लगाए और अपनी देशभक्ति का परिचय दे। इस बीच बिमला को निखिल के दोस्त संदीप से प्यार हो जाता है, जो बहुत अच्छा भाषण देता है और एक देशभक्तिपूर्ण योद्धा की तरह नज़र आता है। बिमला के इस फैसले के बावजूद निखिल अपने विचार नहीं बदलता और कहता है ‘मैं देश की सेवा करने के लिए हमेशा तैयार हूं, लेकिन मेरी पूजा का हकदार सत्य है, जो मेरे देश से भी ऊपर है। अपने देश को ईश्वर की तरह पूजने का मतलब है, उसे अभिशाप देना। कहानी में आगे संदीप उन लोगों की तरफ नाराज़गी जताता है, जो आंदोलन में भाग नहीं ले रहे है और उनकी दुकानों पर हमला करने की योजना बनाता है। बिमला को संदीप की राष्ट्रवादी भावनाओं और इन हिंसक गतिविधियों के बीच का धागा समझ आता है। निखिल अपनी जान पर खेलकर पीड़ितों को बचाता है और इस तरह बिमला का राजनीति के प्रति प्रेम खत्म होता है। टैगोर के इस उपन्यास की कई खेमों में निंदा हुई, लेकिन कुछ विचारकों ने इसे एक ‘चेतावनी’ बताया जो पक्षपातपूर्ण रवैये से राष्ट्रवाद के भ्रष्ट होने की तरफ इशारा करता है। |
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