किशोर न्याय विधेयक-2015 को लेकर बंटा सा दिख रहा है समाज
जनता जनार्दन डेस्क ,
Dec 26, 2015, 17:05 pm IST
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नई दिल्ली: किशोर न्याय विधेयक-2015 के राज्यसभा में पारित होने पर देश दो हिस्सों में बंट गया है। समाज का एक वर्ग इसके पक्ष में है जबकि दूसरा तमाम तरह की खामियां गिनाकर इसका विरोध कर रहा है।
दंड या सजा का प्रावधान का मकसद मुख्य रूप से कानून तोड़ने वाले को सुधारना होता है लेकिन कई मामलों में कानून तोड़ने या अपराध करने वाला व्यक्ति सजा के दौरान सुधरने की बजाय और बिगड़ जाता है। कई मामलों में सजायाफ्ता कैदी समाज के लिए खतरा बनकर जेल से रिहा हुए हैं। अब यह चर्चा हो रही है कि आखिरकार ऐसे कैदियों या सजायाफ्ता लोगों से कानून किस तरह से निपटे। देश को झंकझोर देने वाले निर्भया सामूहिक दुष्कर्म मामले में आरोपी किशोर इस चर्चा के केंद्र में है। इस किशोर के रिहा होने के बाद समाज में जो असंतोष पनपा उसी के बाद राज्यसभा ने किशोर न्याय विधेयक-2015 को पारित किया। इस किशोर को लेकर समाज दो हिस्सों में बंटा दिख रहा है। एक वर्ग यह कह रहा है कि वह किशोर समाज के लिए बड़ा खतरा बनकर निकला है जबकि दूसरे वर्ग का कहना है कि किशोर होने के कारण उसे इससे सख्त सजा नहीं दी जा सकती था। सच्चाई यह है कि वह किशोर कमजोर कानून के कारण रिहा हुआ है। किशोर न्याय विधेयक-2015 का विरोध करने वाले कार्यकर्ताओं और विभिन्न संगठनों का कहना है कि इसे आनन-फानन में पारित किया गया है और इससे बाल अधिकारों का हनन तो हुआ ही है साथ में समाज में कुछ भ्रांतियां भी फैली हैं। किशोर न्याय विधेयक में संशोधन कर किशोर अपराधी की उम्र 18 साल से घटाकर 16 की गई है। अब समस्या यह है कि यदि किशोर द्वारा किया गया अपराध जघन्य की श्रेणी में आता है और भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) में उस अपराध की सजा सात साल से अधिक है तो ऐसी स्थिति में 16 से 18 साल की उम्र वाले किशोर को वयस्क माना जाएगा और उस पर वयस्कों के समान ही मुकदमा चलेगा। इसका विरोध करते हुए बाल अधिकार कार्यकर्ता पी.जयकुमार कहते हैं कि सिर्फ एक मामले के आधार पर देश के सभी किशोरों का भविष्य तय करने का यह फैसला बिल्कुल भी सही नहीं है। देश में बाल सुधार एवं संरक्षण की दिशा में कार्यरत एक बड़ा तबका हाथ में बैनर लिए इसके विरोध में सड़कों पर उतरा आया है। इन्हीं में से एक ‘खुशी’ संगठन की कार्यकर्ता लक्ष्मी कुमारी ने आईएएनएस को बताया कि बाल यौन अपराध संरक्षण (पोस्को) का भी भरसक दुरुपयोग हो रहा है। उसे रोकने के लिए सरकार अब तक क्या कर पाई है? क्या सरकार इस बात की गांरटी देती है कि देश में किशोरों की उम्र सीमा घटाने से अपराध पर रोक लग जाएगी? नारी कार्यकर्ता और ‘संगत’ साउथ एशियन फेमिनिस्ट नेटवर्क की सलाहकार कमल भसीन भी कहती हैं कि कानून बदलने के बजाए मानसिकता बदलने की जरूरत है। वह कहती हैं कि समाज में जिस तरह महिलाओं के प्रति अपराध बढ़ रहे हैं और उनमें किशोरों की संलिप्तता बढ़ रही है, ऐसी स्थिति में कानून में बदलाव लाने से कहीं अच्छा है कि समाज अपनी मानसिकता में बदलाव लाए। बाल अधिकारों के लिए कार्यरत कार्यकर्ताओं का कहना है कि संयुक्त राष्ट्र कन्वेंशन ऑन चाइल्ड राइट्स पर दुनियाभर के 190 देशों ने हस्ताक्षर किए हैं और इस घोषणा पत्र में 18 साल तक की आयु के बच्चों को नाबालिग की श्रेणी में रखा गया है। ऐसे में कुछ शर्तो के साथ देश में नाबालिग की उम्र घटाकर 16 करना उचित नहीं है। दूसरी ओर, बाल अधिकारों पर कई अभियान चला चुके सुमित कांत कहते हैं कि इस विधेयक की बहुत जरूरत है क्योंकि देश में 16 से 18 साल की उम्र के बीच के अपराधियों की संख्या में इजाफा हुआ है। नेशनल अपराध ब्यूरो के आंकड़ों से भी पता चलता है कि 2013 में दर्ज नाबालिगों आरोपियों में 66 प्रतिशत की उम्र 16 से 18 साल के बीच थी। 2010 से 2014 के बीच देश में नाबालिगों द्वारा अपराध के 1 लाख 41 हजार 52 मामले दर्ज किए गए हैं।बाल अधिकारों की पैरवी करने वाले उज्जवल खुराना कहते हैं कि किशोर कानून में बदलाव की जगह बालसुधार गृह में सुधार करने की जरूरत है। दिल्ली महिला आयोग (डीसीडब्ल्यू) की अध्यक्ष स्वाति मालीवाल ने आईएएनएस को बताया कि सीधी सी बात है कि अपराध करने पर सजा मिलती है और यदि किशोर भी अपराध करते हैं तो उन्हें उनकी उम्र का हवाला देकर छूट नहीं दी जानी चाहिए। जैसा कि निर्भया कांड में नाबालिग किशोर के साथ हुआ। मानवाधिकार कार्यकर्ता शांति कहती हैं कि अब तक किशोरों को लचर कानून का फायदा मिलता रहा है लेकिन इस विधेयक को राष्ट्रपति मंजूरी मिलने के बाद इस व्यवस्था में सुधार देखने को मिलेगा। यह भी सच है कि इससे अपराधों पर लगाम नहीं लगेगी लेकिन फिर भी समाज में किशोरों के बीच एक सख्त संदेश जाएगा। स्वाति मालीवाल हालांकि कहती हैं कि इस विधेयक में अभी भी कुछ खामियां हैं, जिन पर काम किया जाना है लेकिन यह विधेयक आज के समय की जरूरत बन गया है। यदि सख्ती से समाज में बदलाव आता है तो इसमें बुरा ही क्या है। ऐसा नहीं है कि सिर्फ बड़े-बड़े अभियानों और संगठनों से जुड़े लोग ही इस विधेयक का समर्थन कर रहे हैं। दिल्ली के करोल बाग में रहने वाली आम गृहिणी पुष्पा झा भी विधेयक का समर्थन करते हुए कहती हैं कि इंटरनेट के इस दौर में बच्चे अब समय से पहले ही परिपक्व हो रहे हैं। उनमें हर छोटी से लेकर बड़ी चीजों को अनुभव करने का क्रेज रहता है, जो समाज के लिए काफी घातक है। कठोर नियम और कानून बनाए जाने की जरूरत है, इस पर तो कोई विवाद ही नहीं होना चाहिए। |
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