पुरस्कार वापसी या प्रचार पिपासा!
अनंत विजय ,
Sep 10, 2015, 15:39 pm IST
Keywords: Kannada writer Professor MM Kalburgi Murder literary Cultural Social media कन्नड़ लेखक प्रोफेसर एम एम कालबुर्गी हत्या साहित्यक सांस्कृतिक सोशल मीडिया
नई दिल्ली: कन्नड़ के लेखक प्रोफेसर एम एम कालबुर्गी की हत्या के विरोध में साहित्यक और सांस्कृतिक जगत उद्वेलित है । सोशल मीडिया से लेकर सड़क तक इस हत्या के विरोध में प्रदर्शन आदि भी हो रहे हैं । हत्यारों को पकड़ने और उसको सजा देने की मांग लगातार जोड़ पकड़ रही है । कर्नाटक में 30 अगस्त को प्रोफेसर एमएम कालबुर्गी की हत्या के बाद धीरे-धीरे विरोध के स्वर तेज होते जा रहे हैं।
विरोध का स्वर इस बात को लेकर भी तीखा है कि प्रोफसर कालबुर्गी वामपंथी विचारक लेखक थे और उनकी हत्या का आरोप हिंदूवादी संगठन पर लग रहा है । इस बहाने से वामपंथ के अनुयायियों को हिंदुत्ववादियों पर हमला करने का अवसर मिल गया है । गांधी के इस देश में किसी की भी हत्या का इससे भी तीव्र विरोध होना चाहिए । हत्या के विरोध में सिर्फ किसी खास विचारधारा के लोगों के प्रदर्शन की बजाए पूरे समाज को उठ खड़ा होना चाहिेए । सभ्य समाज में हिंसा के लिए कोई स्थान नहीं होना चाहिए । प्रोफसर कालबुर्गी छिहत्तर साल के बुजुर्ग लेखक थे और कर्नाटक के धारवाड़ में सेवानिवृत्ति के बाद अपनी जिंदगी गुजार रहे थे । उन्हें पहले भी कुछ स्वयंभू हिंदू संगठनों से धमकियां मिली थीं क्योंकि वो अपने विचारों से रैशनलिस्ट माने जाते रहे हैं । धर्म आदि पर उनके विचार बहुधा धार्मिकता और अंधविश्वास आदि पर चोट करती थी । दो हजार चौदह में भी प्रोफेसर कालबुर्गी ने मूर्ति पूजा के विरोध में एक बेहद आपत्तिजनक बयान दिया था । तब उन्होंने कहा था कि बचपन में वो भगवान की मूर्तियों पर पेशाब करके ये देखा करते थे कि वहां से कैसी प्रतिक्रिया मिलती है । यह विचार एक ऐसा छोर है जो कि मूर्तिपूजकों की भावनाओं को आहत कर सकता है । भवनाएं आहत होने पर कानून में उसके लिए प्रावधान है, इसका यह मतलब नहीं है कि किसी का कत्ल कर दिया जाए । विचारों की लड़ाई में खूव खराबे या हिंसा को कोई स्थान नहीं होना चाहिए । चंद सिरफिरे लोग ही इस तरह की हरकतें करते हैं । इसके पहले भी लिंगायत समाज के अराध्य बासव और उनकी पत्नी और बेटी के बारे में विवादित लेखन कर कालबुर्गी विवादों में घिरे थे । बाद में उन्होंने लिंगायत समुदाय के तगड़े विरोध के बाद खेद आदि भी जताया था । यह विरोध का लोकतांत्रिक तरीका था और इसका हक हमारा संविधान हमें देता है । अभिव्यक्ति की आजादी की गारंटी संविधान उस वक्त तक ही देता है जबतक कि उस आजादी से किसी अन्य शख्स के अधिकारों का हनन ना हो । दरअसल होता यह है कि कई बार हम अभिव्यक्ति की आजादी के हक को माते हुए अभिव्यक्ति की अराजकता तक जा पहुंचते हैं । विचारों की लड़ाई में बहुधा हम इस महीन सी लाइन के पार भी चले जाते हैं, उसका विरोध भी होता है, मंथन भी होता है, तर्क वितर्क होते हैं । हमें यह मालूम है कि मंथन से विष भी निकलता है लेकिन विचारों के मंथन से जो विष निकलता है वो जानलेवा नहीं होता है । होना भी नहीं चाहिए । जिस दिन विचार मंथन से निकलनेवाला विष जानलेवा हो जाएगा उस दिन ना तो हमारे समाज में विचार के लिए जगह बच पाएगी और ना ही अभिव्यक्ति की आजादी का माहौल रहेगा । हमें इतिहास को नहीं भूलना चाहिए कि किस तरह से सोवियत रूस और चीन में विचारों को लेकर हत्या का खेल खेला गया । किस तरह से विरोधी विचारधारा वाले लेखकों और पत्रकारों को यातनाएं दी गईं, किस तरह से राजसत्ता के द्वारा उनकी या तो हत्या कर दी गई या फिर उनको देश छोड़ने पर मजबूर होना पड़ा था। चीन में तो अब भी यह आजादी हासिल नहीं है । प्रोफेसर कालबुर्गी की हत्या के बाद एक बार फिर से फेसबुकिए वामपंथी चिंतकों ने फासीवाद के आसन्न खतरे पर शोर मचाना शुरू कर दिया । दरअसल हमारे देश में वामपंथ के अनुयायी होने का दंभ भरनेवाले जो लोग चिंतक, विचारक आदि बने घूम रहे हैं उनको लगता है कि इस तरह की बातों से ही उनकी दुकानदारी कायम रह सकती है । पहले भी वो ऐसा कर अपनी प्रासंगिकता बचाए रखने में कामयाब रहे हैं । इस तरह के फेसबुकिए वामपंथियों को अब हिंदी के जादुई यथार्थवादी कहानीकार उदय प्रकाश में एक नया नायक नजर आने लगा है । दरअसल उदय प्रकाश ने प्रोफेसर कालबुर्गी की हत्या के विरोध में साहित्य अकादमी पुरस्कार राशि समेत लौटाने का एलान कर दिया है । फेसबुक पर उदय प्रकाश ने लिखा- ‘पिछले समय से हमारे देश में लेखकों, कलाकारों, चिंतकों और बौद्धिकों के प्रतिजिस तरह का हिंसक, अपमानजनक, अवमानना पूर्ण व्यवहार लगातार हो रहा है, जिसकी ताज़ा कड़ीप्रख्यात लेखक और विचारक तथा साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित कन्नड़ साहित्यकार श्रीकलबुर्गी की मतांध हिंदुत्ववादी अपराधियों द्वारा की गई कायराना और दहशतनाक हत्या है, उसने मेरेजैसे अकेले लेखक को भीतर से हिला दिया है। अब यह चुप रहने का और मुँह सिल कर सुरक्षित कहींछुप जाने का पल नहीं है। वर्ना ये ख़तरे बढ़ते जायेंगे। मैं साहित्यकार कुलबर्गी जी की हत्या के विरोधमें ‘मोहन दास’ नामक कृति पर 2010-11 में प्रदान किये गये साहित्य अकादमी पुरस्कार को विनम्रतालेकिन सुचिंतित दृढ़ता के साथ लौटाता हूँ। अभी गॉंव में हूँ। 7-8 सितंबर तक दिल्ली पहुँचते ही इससंदर्भ में औपचारिक पत्र और राशि भेज दूँगा। मैं उस निर्णायक मंडल के सदस्य, जिनके कारण‘मोहन दास’ को यह पुरस्कार मिला, अशोक वाजपेयी और चित्रा मुद्गल के प्रति आभार व्यक्त करते हुए,यह पुरस्कार वापस करता हूँ। आप सभी दोस्तों से अपेक्षा है कि आप मेरे इस निर्णय में मेरे साथ बने। अब जरा विचार कीजिए । उदय प्रकाश जिनकी लंबी कहानी मोहनदास को उपन्यास मानकर अकादमी ने पुरस्कृत कर उपकृत किया, लिहाजा उन्होंने उस वक्त के निर्णायकों का आभार जताया है । दूसरी बात यह है कि कि उन्होंने जिस बिनाह पर साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाने का एलान किया है वो दरअसल विरोध नहीं बल्कि प्रचार की बुनियाद पर खड़ा है । उनके शब्दों को देखते हैं – श्री कालबुर्गी की मतांध हिंदुत्ववादी अपराधियों द्वारा की गईकायराना और दहशतनाक हत्या है, उसने मेरे जैसे अकेले लेखक को भीतर से हिला दिया है। उदय प्रकाश जी इतिहास या अतीत को बेहद सुविधाजनक तरीके से भुला रहे हैं । जब ये मतांध हिंदुवादी शब्द बोलेते हैं तो पूरे हिंदी साहित्य में उनकी वो तस्वीर कौंध जाती है जब वो गोरखपुर के सांसद महंथ आदित्यनाथ के हाथों सम्मानित हो रहे होते हैं । महंथ आदित्यनाथ के हाथों मिले सम्मान को अपने साहित्यक मस्तक पर कलगी की तरह लगाकर घूम रहे उदय प्रकाश जब साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाने की बात करते हैं तो बात हजम नहीं होती । कम से कम विरोध की वजह तो हल्की हो ही जाती है । बेहतर होता कि उदय जी महंथ आदित्यनाथ के हाथों मिले पुरस्कार को मतांध हिंदीवादी ताकतों के विरोधस्वरूप लौटाते फिर आगे कोई कदम उठाते । साहित्य अकादमी लगभग सरकारी संस्थान है जो करदाताओं के पैसे से चलता है । पुरस्कार आदि भी उसी राशि से प्रदान किए जाते हैं । उदय प्रकाश का सहित्य अकादमी का पुरस्कार लौटाने का फैसला नीतिगत दोष का भी शिकार है । परंपरा यह रही है कि सरकारी नीतियों आदि के विरोध में सरकारी पुरस्कार लौटाए जाते रहे हैं । उदय प्रकाश के इस कदम पर तमाम छोटे-बड़े और मंझोले वामपंथी विचारक लहालोट होकर उनको लाल सलाम कर रहे हैं । उनके साहस की दाद दे रहे हैं । दरअसल वामपंथियों के साथ ये बड़ी दिक्कत है कि वो इतिहास को सुविधानुसार विस्मृत कर देते हैं या फिर उसकी शवसाधना में जुट जाते हैं । दोनों ही स्थिति खतरनाक है । उदय प्रकाश के मामले में भी वामपंथी विचारकों ने अपनी सुविधा के लिए उस तस्वीर को विस्मृत कर दिया या फिर सायास उसको धुंधला करने की कोशिस कर रहे हैं जहां उदय प्रकाश महंथ आदित्यनाथ से पुरस्कृत हो रहे हैं । विचारो की इस लड़ाई में तथ्यों और इतिहास को भुलाने या सुविधानुसार इस्तेमाल करने का यह वामपंथी खेल बेहद खतरनाक है जो लोकतंत्र में जनता को बरगलाती है । जनता को बरगलाने का यह खेल अंतत: लोकतंत्र को कमजोर करता है जो कि वामपंथियों के बड़े डिजाइन का हिस्सा है । लोकतंत्र में उनकी आस्था कभी रही नहीं है । मार्क्स के अनुयायियों ने उनके सिद्धातों को इस तरह से आगे बढ़ाया कि लोगों की आस्था उसमें उत्तरोत्तर कम होती चली गई । वामपंथ जनता की बात तो करता है परंतु जनता को तमाम अधिकारों से वंचित रखने का कुत्सित खेल भी खेलता है । रूस और चीन इसके ज्वलंत उदाहरण हैं । इन दो उदाहरणों के अलावा कुछ कहने की आवश्यकता बचती नहीं है । कालबुर्गी के हत्या के विरोध में खड़े लोगों की मंशा को भी परखने की जरूरत है । हत्या पर राजनीति ना हो , हत्यारों को गिरफ्तार किया जाए और उसको कड़ी से कड़ी सजाय हो, मंशा ये होनी चाहिए।
अनंत विजय
लेखक अनंत विजय वरिष्ठ समालोचक, स्तंभकार व पत्रकार हैं, और देश भर की तमाम पत्र-पत्रिकाओं में अनवरत छपते रहते हैं। फिलहाल समाचार चैनल आई बी एन 7 से जुड़े हैं।
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