वाकई, मॉल के पास तक ही रहता है संविधान का राज
बी.पी.गौतम ,
Mar 15, 2015, 15:49 pm IST
Keywords: Country Society Film Entertainment Movement Movement through Country and the state of society Social change Dalits and Women Backward thinking
नई दिल्ली: फिल्में सिर्फ मनोरंजन भर का साधन नहीं हैं। आंदोलन का भी माध्यम हैं फिल्में। देश और समाज की दशा प्रदर्शित कर सामाजिक परिवर्तन में बड़ी सहायक रही हैं फिल्में। दलितों और महिलाओं के साथ पिछड़े वर्ग की सोच बदलने में फिल्मों की भूमिका अहम रही है। हाल-फिलहाल एनएच- 10 नाम की फिल्म चर्चा में है।
फैंटम प्रोडक्शन्स, इरोज इंटरनेशनल और क्लीन स्लेट फिल्म्स के बैनर तले बनी इस फिल्म के कृषिका लुल्ला, अनुष्का शर्मा, कर्नेश शर्मा, विकास बहल, विक्रमादित्य मोटवाने और अनुराग कश्यप निर्माता हैं। नवदीप सिंह निर्देशक हैं और अनुष्का शर्मा, नील भूपलम व दर्शन कुमार ने मुख्य भूमिकायें निभाई हैं। शानदार फिल्म की स्क्रिप्ट सुदीप शर्मा ने लिखी है। सेंसर बोर्ड से ए सर्टिफिकेट दिया गया है एवं 1 घंटे 55 मिनट और 9 सेकंड की फिल्म है। फिल्म का विषय या मुददा नया नहीं है। फिल्म के केंद्र में ऑनर किलिंग ही मुददा है, लेकिन इस फिल्म में कानून के रक्षकों की बड़ी ही सहजता से धज्जियां उड़ा दी गई हैं। उत्तर प्रदेश, हरियाणा या पंजाब ही नहीं, बल्कि समूचे देश में कानून की क्या दशा है, इसको फिल्म में बेहतरीन ढंग से दिखाया गया है। दूर ग्रामीण क्षेत्रों के हालात तो और भी दयनीय हैं, लेकिन इस फिल्म में हाइवे के किनारे के हालातों पर विशेष ध्यान दिया गया है। कहानी यह है कि वीकेंड के लिए न्यू कपल मीरा (अनुष्का शर्मा) और अर्जुन (नील भूपलम) गुड़गांव से दूर एनएच- 10 से बसंत नगर जा रहे हैं। एक ढाबे पर दोनों चाय पीने रूक जाते हैं, तभी एक लड़की और एक लड़के को कुछ लोग पीट रहे होते हैं।अर्जुन उन लोगों से कारण पूछता है, तो हमलावर कहता है कि मेरी बहन है, मतलब बहन के साथ वो जो करे, उसमें किसी को बोलने का अधिकार नहीं हैं, इसी पर हमलावर उसे एक थप्पड़ जड़ कर निकल जाते हैं। थप्पड़ खाया अर्जुन उनकी गाड़ी की दिशा में ही इस उददेश्य से चल देता है कि उन्हें डरा-धमका कर सॉरी बुलवायेगा, लेकिन जंगल में पहुंच कर देखता है कि हमलावर उस लड़की और लड़के को मार रहे होते हैं, यह दृश्य देख कर वह भयभीत हो जाता है और भागता है, पर तब तक हमलावरों ने उसे देख लिया और उन दोनों को भी पकड़ लिया। फिर भागने-पकड़ने का भयावह खेल रात भर चलता है। अंत में अर्जुन मारा जाता है और हमलावरों को सहज अंदाज़ में अनुष्का भी मार देती है। कहानी के बीच में पुलिस भी आती है, लेकिन बड़े ही शर्मनाक अंदाज़ में। एक ओर वो इंडिया है, जिसे विदेशी पर्यटक देखते हैं और प्रशंसा भी करते हैं, लेकिन इस फिल्म में ऐसे भारत का दृश्य बड़े ही सहज तरीके से दिखाया गया है, जिसमें संविधान का कोई मूल्य नहीं है। शॉपिंग मॉल्स की चकाचौंध में रहने वाली लड़की ढाबे पर वॉशरूम में जाती है, तो उसे किवाड़ पर रंडी शब्द लिखा नजर आता है, जो महिलाओं की स्थिति बयाँ करने के लिए काफी है। कुल मिला कर फिल्म यह सिद्ध करने में सफल रही है कि मेट्रो सिटी के बाहर कानून और महिलाओं की दशा बेहद दयनीय है, लेकिन बड़ा सवाल यह भी है कि जिस देश के गाँवों में बिजली, पानी, दवा, केरोसिन और शिक्षा का अभाव है, उन गाँवों में कानून के राज की कल्पना भी कैसे की जा सकती है। उत्तर प्रदेश, बिहार, उड़ीसा, झारखंड, छत्तीसगढ़, और हरियाणा वगैरह के गाँवों की तो बात ही छोड़िये, मेट्रो शहर में भी आधी रात के समय किसी के साथ कोई आपराधिक वारदात घटित होती है और पीड़ित पुलिस के पास मदद के लिए जाता है, तो पुलिस का पहला सवाल यह होता है कि वे इस वक्त सड़क पर क्यूं थे? पीड़ित अगर महिला है, तो पुलिस भी यह मान कर चलती है कि घटना तो होनी ही थी। मेट्रो शहर हो, तो मीडिया आदि के दबाव में मुकदमा दर्ज कर लिया जाता है और ग्रामीण क्षेत्र हो, तो पुलिस मुकदमा तक नहीं लिखती। पुलिस-प्रशासन की ही नहीं, बल्कि सरकार की भी यह जवाबदेही है, वो बताये कि नागरिक रात-दिन, अथवा किसी भी समय सड़क पर क्यूं नहीं निकल सकते? रात के दस बजे के बाद क्या संविधान का राज नहीं रहता? और अगर नहीं रहता, तो यह गलती नागरिकों की है? सरकार को यह स्पष्ट करना चाहिए कि वो अब तक भयमुक्त वातावरण क्यूं नहीं बना पाये? इस फिल्म में पुलिस वाला मीरा से कहता है कि जहां आखिरी मॉल खत्म होता है, वहीं संविधान का राज खत्म हो जाता है, यह सिर्फ फिल्मी डायलॉग नहीं है, किसी हद तक सच भी है और इस सच के साथ लोग जी रहे हैं, लेकिन दुःख की बात यह है कि लोगों के इस नरक समान जीवन को लेकर सरकार चिंतित तक नजर नहीं आ रही। |
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