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पितृपक्ष विशेष: पिंडदान से पितरों की मुक्ति

पितृपक्ष विशेष: पिंडदान से पितरों की मुक्ति नई दिल्ली: हमारी संस्कृति में पितरों का स्थान देवताओं से भी उच्च है। पितरों की प्रसन्नता के बिना देवता भी प्रसन्न नहीं होते। श्राद्ध का अर्थ अपने देवों, परिवार, संस्कृति और ईष्ट के प्रति श्रद्धा अभिव्यक्त कर उन्हें तृप्त करना है।भारतीय संस्कृति में मृत्यु को महोत्सव माना है। जहां जन्म निश्चित है तो मृत्य भी अटल है और इसी सत्य को हमारे पूर्वजों ने स्वीकार किया है। मृत्यु के बाद अपने पुरखों की स्मृति को संजोने या उनकी तृप्ति के जतन करने का अवसर ही पितृ पक्ष के रूप में उपस्थित होता है।

हमारे शास्त्रों में तीन ऋण बताए हैं देव ऋण, ऋषि ऋण और पितृ ऋण। जैसे देव ऋण से पूजा-अर्चना और हवन-यज्ञ द्वारा, ऋषि ऋण से ब्राह्मणों और गुरु को दक्षिणा देकर उऋण होना संभव है, ऐसे ही पितृ ऋण से मुक्ति के लिए पितृपक्ष है। वैसे पितृ ऋण से आजीवन उऋण नहीं हुआ जा सकता है लेकिन दान, यजन और श्रद्धा के साथ पितरों को याद किया जाए तो वे प्रसन्न होते हैं, कष्टों और व्याधियों से मुक्ति मिलती है। तीनों ऋणों में पितृ ऋण को सर्वाधिक महत्ता दी गई है।

...तो देवता भी नहीं ग्रहण करते जल
शास्त्रों में कहा गया है कि अगर अपने पितृ की मृत्यु की उपरांत आप उन्हें जल नहीं देते हैं तो कोई भी देवता आपसे जल ग्रहण नहीं करते। हमारे शास्त्र और स्मृतियों में पितृ देवताओं से भी बढ़कर माने गए हैं और पितृ पक्ष उनके प्रति अपनी भावाभिव्यक्ति का प्रसंग है। हमारी संस्कृति में माता-पिता को ही नारायण रूप में देखा गया है। रामायण में चौपाई है 'प्रात:काल उठके रघुनाथा/ मात पिता गुरु नावहिं माथा।।"

माता-पिता के प्रति आदर और श्रद्धा से ही श्रीराम ने अयोध्या का राजपाट छोड़कर वन गमन स्वीकार कर लिया था। आशय यही है कि माता-पिता का स्थान सर्वोच्च है। जब वन में हनुमानजी ने श्रीराम से पूछा था कि आपका वन क्यों आना हुआ? इस पर प्रभु राम ने उत्तर दिया था-'कोसलेस दसरथ के जाए/ हम पितु बचन मानि बन आए।।" अर्थात हम कोसलराज दशरथजी के पुत्र हैं और पिता का वचन मानकर वन आए हैं। माता-पिता के प्रति यह आदर ही संस्कृति का आधार रहा है और उसी श्रद्धा के दर्शन हम पितृ पक्ष में करते हैं।

मान्यता है कि पितरों का निवास चंद्रमा के पृष्ठ भाग में होता है और पितृ पक्ष में वे धरती पर आकर हमारे द्वारा अर्पित अन्न जल ग्रहण करते हैं। जब पितर यह सुनते हैं कि श्राद्धकाल उपस्थित हो गया है, तो वे श्राद्धस्थल पर उपस्थित हो जाते हैं और ब्राह्मणों के साथ वायु रूप में भोजन करते हैं। यह भी कहा गया है कि जब सूर्य कन्या राशि में आते हैं तब पितर अपने पुत्र-पौत्रों के यहां आते हैं। ऐसे समय अगर आदर से उनका सत्कार किया जाता है। उन्हें अन्न-जल अर्पित किया जाता है, तो वे संतुष्ट होकर अपना आशीष प्रदान करके लौटते हैं।

पितरों को समर्पित 15 तिथियां
15 तिथियां पितरों को समर्पित पितृपक्ष की सभी पंद्रह तिथियां श्राद्ध को समर्पित हैं अत: पितरों की मृत्यु तिथि के अनुसार उनका श्राद्धकर्म किया जाता है। श्राद्ध हम उन्हीं संबंधियों का करते हैं, जिनकी मृत्यु को दो वर्ष पूर्ण हो गए हैं। तीसरे वर्ष में ही उनका पितरों में मिलान होता है। किसी भी परिजन की मृत्यु के पश्चात तीसरे वर्ष पितृ पक्ष में जो पहली पूर्णिमा आती है उस दिन उस परिजन को पितृ पंक्ति में शामिल कर लिया जाता है।

इसके पहले तक हम परिजन की पुण्यतिथि पर उसे स्मरण कर सकते हैं, उसके नाम से दान-दक्षिणा कर सकते हैं, लेकिन उसका तर्पण नहीं कर सकते हैं। बच्चों और संन्यासियों के लिए पिंडदान नहीं किया जाता है। पिंडदान उन्हीं का होता है जिनको 'मैं-मेरे" की आसक्ति होती है। जिनकी 'मैं-मेरे" की स्मृति या आसक्ति विकसित नहीं होती उनका पिंडदान नहीं किया जाता है।

जब हम पितरों का तर्पण करते हैं तो हम तीन कुलों के पूर्वजों की आत्मा को संतोष प्रदान करते हैं। इससे स्वयं, मातृपक्ष और ससुराल पक्ष के पूर्वजों की आत्मा को शांति मिलती है। तर्पण इस जन्म और उस जन्म से उबारने की प्रक्रिया है। तर्पण से तीन लोक और 84 योनियों में हमारे पूर्वज जहां कहीं भी हैं वहां वे संतुष्टि पाते हैं। यह स्मरण रखना चाहिए कि पितरों का तर्पण करने के बाद सूर्य को अर्घ्‍य देना बहुत जरूरी है क्योंकि तभी तर्पण पूर्ण होता है।

कर्मानुसार मिलता है तर्पण
माता-पिता आदि के निमित्त उनके नाम और गोत्र का उच्चारण कर मंत्रों द्वारा जो अन्नादि अर्पित किया जाता है, वह उनको प्राप्त होता है। यदि अपने कर्मों के अनुसार उनको देव योनि प्राप्त होती है तो वह अमृत रूप में उनको प्राप्त होता है, गंधर्व लोक प्राप्त होने पर भोग्य रूप में, पशु योनि में तृण रूप में, सर्प योनि में वायु रूप में, यक्ष रूप में पेय रूप में, दानव योनि में मांस रूप में, प्रेत योनि में रुधिर रूप में और मनुष्य योनि में अन्न आदि के रूप में उपलब्ध होता है।

श्राद्ध में हम पूरे पक्ष में कौओं, कुत्तों और गायों के लिए अन्न का अंश इसलिए निकालते हैं क्योंकि ये सभी जीव यम के काफी नजदीक हैं। कौए और पीपल को पितृ प्रतीक माना जाता है और इसलिए जब कौए हमारे द्वारा रखा गया अन्न स्वीकार करते हैं, तो हम मानते हैं कि पितरों ने हमारी श्रद्धा को स्वीकार कर लिया है।

श्राद्धपक्ष में खरीदारी करें या नहीं?
श्राद्धपक्ष में खरीदारी को लेकर जनमानस में दुविधा रहती है। संभवत: श्राद्ध पक्ष में खरीदारी की मनाही के पीछे यही भाव था कि कुछ समय मनुष्य भौतिक वस्तुओं के आकर्षण से बचा रह सके। शास्त्रों में श्राद्ध पक्ष के दौरान नए कार्यों के शुभारंभ या वस्तुओं की खरीदी के निषेध का कहीं भी स्पष्ट उल्लेख नहीं है, लेकिन श्राद्धपक्ष को पितरों के यजन का समय माना गया है तो इस समय अपने सुखों की बजाय श्रद्धा पक्ष पर ध्यान केंद्रित करने के लिए नई वस्तुओं की खरीद नहीं की जाती।

समय के साथ यह धारणा बलवती हो गई। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि श्राद्ध पक्ष में महत्वपूर्ण काम न किए जाएं। अगर आपके पितृ आपसे संतुष्ट हैं तो आपके किसी भी काम में कोई विघ्न उपस्थित नहीं होगा। यह स्मरण रहे कि पितृ पक्ष अपनी भौतिक इच्छाओं पर नियंत्रण का समय है इसलिए सामान्य धारणा के अनुरूप इस समय बाजारों में चहल पहल कम रहती है।

श्राद्ध की तिथि
पितृगणों का श्राद्ध उनकी मृत्यु तिथि के अनुसार किया जाता है। यदि आपको अपने पूर्वजों की तिथि याद नहीं है तो किशोरों का श्राद्ध पंचमी को, बुजुर्गों का श्राद्ध नवमी को करना चाहिए। शस्त्रघात, दुर्घटना, विष, जलने-डूबने, गिरने आदि कारणों से अकाल मृत्यु होने पर चतुर्दशी के दिन श्राद्ध किया जाए। जिन परिजनों की मृत्यु तिथि ज्ञात नहीं होती है ऐसे पितरों का श्राद्ध सर्वपितृ अमावस के दिन किया जाना उपयुक्त है।

गया और अवंतिका पुण्य भूमि
ऐसी मान्‍यता है कि 'गया" में श्राद्ध करने से पितरों को बैकुंठ की प्राप्ति होती है। इस संबंध में कथा है कि गयासुर नामक दैत्य के वध के लिए भगवान विष्णु ने सुदर्शन चक्र छोड़ा और गयासुर का सिर धड़ से अलग हो गया। चक्र से गयासुर पवित्र हो गया और तब उससे भगवान विष्णु ने कहा, जो भी 'गया" आकर पितरों का तर्पण करेगा उसके पितरों को बैकुंठ की प्राप्ति होगी। अयोध्या, मथुरा, माया, काशी, कांची, अवंतिका, और द्वारिका इन सात जगहों पर तर्पण करने की महत्ता है।

श्राद्ध में भूमि स्वयं की हो
श्राद्ध के लिए उपयुक्त स्थान के विषय में उल्लेख है कि समुद्र तथा समुद्र में गिरने वाली नदियों के तट पर, गौशाला में जहां बैल न हों, नदी संगम पर, पर्वत शिखर पर, वनों में, स्वच्छ और मनोहर भूमि पर, गोबर से लीपे हुए घर में विधिपूर्वक श्राद्ध करने से मनोरथ पूर्ण होते हैं और अंत:करण की शुद्धि होती है। श्राद्ध कभी भी दूसरे की भूमि पर नहीं करना चाहिए, जो भूमि सार्वजनिक हो, वहां श्राद्ध कर्म किया जा सकता है। अगर दूसरे के गृह या भूमि पर श्राद्ध करना पड़े तो किराया भूस्वामी को दे देना चाहिए।

श्रीमद् भागवत की महत्ता
श्राद्धपक्ष में 7 दिनों तक श्रीमद् भागवत पुराण का स्मरण विशेष फलदायी है। इस संबंध में कथा है कि सृष्टि की उत्पत्ति के समय ब्रह्मा जी ने श्रीमद् भागवत के केवल चार ही श्लोक कहे थे और बाद में गोकर्ण महाराज ने अपने भाई धुंधकारी की मुक्ति के लिए श्रीमद् भागवत का आयोजन किया था। तभी से मान्यता है कि पितरों के निमित्त भागवत कथा श्रवण उन्हें बैकुंठ का भागी बनाता है।
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