कॉलेजियम से बेहतर सिस्टम जेएसी?
अंनत विजय ,
Aug 13, 2014, 17:30 pm IST
Keywords: राष्ट्रपति पद चुनाव आयुक्त मुख्य सतर्कता आयुक्त सीबीआई या आईबी निदेशक राष्ट्रपति का चुनाव सांसद और विधायक राजनीतिक दल कार्यपालिका उच्च न्यायपालिका Presidential Election Commissioner Chief Vigilance Commissioner CBI or IB Director President MPs and MLAs Political parties Executive Higher judiciary
नई दिल्ली: हमारे देश में तकरीबन सभी पदों पर प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से नियुक्ति का अधिकार कार्यपालिका के पास है । अदने से पद से लेकर राष्ट्रपति के पद तक का, चाहे वो चुनाव आयुक्त हों, मुख्य सतर्कता आयुक्त हों, सीबीआई या आईबी के निदेशक हों या फिर अन्य दूसरे अहम पद।
राष्ट्रपति का चुनाव भले ही सांसद और विधायक करते हों लेकिन उनकी उम्मीदवारी पर मुहर तो राजनीतिक दल का मुखिया ही करता है । प्रतिभा पाटिल को तो सोनिया गांधी ने ही नामित किया था और वो भारत की राष्ट्रपति बनीं भी । परंतु एक महकमा ऐसा है जहां कि कार्यपालिका की नहीं चलती। वह है उच्च न्यायपालिका । हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जजों की नियुक्ति का अधिकार जजों की एक कमेटी के पास है जिसे कोलेजियम कहते हैं । सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश इस समिति के अध्यक्ष होते हैं और सुप्रीम कोर्ट के चार अन्य वरिष्ठ जज इसके सदस्य होते हैं । कोलेजियम की यह व्यवस्था तकरीबन दो दशक से हमारे देश में लागू है । कोलेजियम बनाने के पीछे की भावना और उद्देश्य यह था कि न्यायपालिका को कार्यपालिका और राजनेताओं के दखल से मुक्त रखा जा सके । कमोबेश कोलेजियन सिस्टम जजों की नियुक्ति में नेताओं की दखलअंदाजी रोकने में काफी हद तक कामयाब रहा । दरअसल कोलेजियम सिस्टम देश की सर्वोच्च न्यायालय के एक फैसले के बाद बना था । उन्नीस सौ तिरानवे में सुप्रीम कोर्ट एडवोकेट ऑन रेकॉर्डस बनाम यूनियन ऑफ इंडिया के केस में सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने संविधान के अनुच्छेद 124 (2) और 217(1) की व्याख्या की थी । संविधान की इन धाराओं में हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों की नियुक्ति की प्रक्रिया का उल्लेख है । सुप्रीम कोर्ट के उस वक्त के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस जे एस वर्मा की अगुवाई वाली पीठ के उन्नीस सौ तिरानवे के फैसले की व्याख्या से साफ है कि उच्च न्यायपालिका में जजों की नियुक्त में सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की राय को तरजीह मिल सके । उस वक्त कोलेजियम सिस्टम के समर्थन में एक तर्क यह भी दिया गया था कि सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के जजों को न्यायिक प्रक्रिया की जानकारी रखनेवालों के बारे में बेहतर जानकारी होती है , लिहाजा नियुक्ति में उनकी राय को अहमियत मिलनी चाहिए । सबसे अहम तर्क यह दिया गया था कि इससे न्यायपालिका को राजनीतिक दखलअंदाजी से मुक्त रखा जा सके जो कि संविधान की मूल आत्मा में निहित है । बहुत संभव है कि कोलेजियम सिस्टम की वकालत करनेवालों के जेहन में इंदिरा गांधी का मशहूर कथन- वी वांट अ कमिटेड ज्यूडिशियरी- रहा होगा । अस्सी के दशक में इंदिरा गांधी की इस इच्छा का उनके राजनीतिक चेलों ने जमकर सम्मान किया था । उस वक्त के कानून मंत्री को लगातार इंदिरा गांधी की बात दोहराते रहते थे और जानकारों का कहना है कि उसी हिसाब से काम भी करते थे । पर इससे यह संदेश नहीं जाना चाहिए कि कोलेजियम सिस्टम लागू होने के पहले हमारी न्यायपालिका स्वतंत्र नहीं थी । कई ऐसे उदाहरण हैं जब सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के जजों ने न्याय के उच्च मानदंडों की रक्षा की । सबसे बड़ा उदाहरण तो इलाहाबाद हाईकोर्ट के जज न्यायमूर्ति जगमोहन लाल सिन्हा का है जिन्होंने बारह जून उन्नीस सौ पचहत्तर को अपने ऐतिहासिक फैसले में इंदिरा गांधी के लोकसभा चुनाव को रद्द करते हुए अगले छह वर्षों तक किसी भी संवैधानिक पद के लिए अयोग्य घोषित कर दिया था। बाद में जब मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा तो जस्टिस कृष्णाअय्यर ने जस्टिस जगमोहन लाल के फैसले पर रोक लगा दी लेकिन उन्होंने भी इंदिरा गांधी को संसद में मतदान के अधिकार से वंचित कर दिया था। ये दोनों फैसले देश में इमरजेंसी का आधार बने । उस वक्त इंदिरा गांधी के वकील रहे वी एन खरे बाद में सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश बने थे । अब अगर हम इतिहास से निकलकर वर्तमान में आएं तो यूपीए के दूसरे दौर के शासनकाल में तमाम घोटालों पर सुप्रीम कोर्ट के रवैये से सरकार परेशान रही । यहां भी अदालत का रुख यूपीए सरकार की रुखसती की कई वजहों में से एक वजह बनी । कहना ना होगा कि आजादी के बाद से हमारे देश की न्यायपालिका कमोबेश कार्यपालिका और विधायिका के दबाव से आजाद रही है और न्याय के उच्चतम मानदंडों की स्थापना की है । लेकिन कोलेजियम सिस्टम के बाद भी जजों के चुनाव में गलतियां होती रही हैं । समय समय पर जजों के उपर भ्रष्टाचार के इल्जाम लगते रहे हैं । कलकत्ता हाईकोर्ट के जज सौमित्र मोहन पर आरोपलगे थे, कर्नाटक के चीफ जस्टिस पी डी दिनाकरन पर भी इस तरह के आरोप लगे थे । दोनों के खिलाफ महाभियोग की प्रक्रिया चली थी । आजाद भारत के न्यायिक इतिहास मेंये तीन ही मौके हैं जब किसी भी जज के खिलाफ महाभियोग की प्रक्रिया शुरू की गई थी । पहले जस्टिस वी रामास्वामी के खिलाफ संसद में महाभियोग की प्रक्रिया चली , तब कांग्रेसके सांसदों के सदन से वॉक आउट करने के बाद महाभियोग का प्रस्ताव गिर गया था । इन दिनों सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश मार्कंडेय काटजू लगातार एक के बाद एक खुलासा कर रहे हैं और दावा कर रहे हैं कि उच्च न्यायपालिका में भ्रष्टाचार को देश के मुख्य न्यायाधीश रोक नहीं पाए, हलांकि काटजू जिन हालातों का बयान कर रहे हैं उनमें नाटकीयता का भी पुट भी है और उनके खुलासे की टाइमिंग को लेकर भी वो सवालों के घेरे में हैं । पूर्व कानून मंत्री हंसराज भारद्वाज अपने कई टीवी इंटरव्यू में जस्टिस काटजू की सुप्रीम कोर्ट में नियुक्ति की बावत उस वक्त के चीफ जस्टिस रहे वाई के सब्बरवाल से बात करने को कहकर कुछ इशारा करते रहे हैं । दरअसल देश के माननीय न्यायाधीशों पर इस तरह के आरोपों से देशकी जनता का न्यायपालिका पर से विश्वास दरकने लगा है । भारत के लोगों की अपने देशकी न्यायपालिका की ईमानदारी और साख पर जबरदस्त आस्था है । यह आस्था भारतीयलोकतंत्र को मजबूती भी प्रदान करती है । जजों पर भ्रष्टाचार के आरोपों के खुलासे से जन की इस आस्था पर चोट पहुंचती हैजो अंतत: जनतंत्र पर ही चोट पहुंचाती है । इसलिएन्यायाधीशों पर किसी भी तरह के आरोप लगाने से पहले हर वर्ग के लोगों को ठोक बजाकरतथ्यों को पुख्ता कर लेना चाहिए। इसी पृष्ठभूमि में देश के कई विद्वान वकील और पूर्व न्यायाधीशों ने कोलेजियम सिस्टम को फेल करार दे दिया है । लिहाजा सरकार को एक बार फिर से न्यायिक सुधार बिल की याद आई और इस दिशा में प्रयत्न शुरू हो गया है । एनडीए सरकार ने जो फॉर्मूला निकाला है उसके हिसाब से अब हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में जजों की नियुक्ति छह सदस्यीय न्यायिक नियुक्ति कमीशन करेगी । सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश, सुप्रीम कोर्टके ही दो वरिष्ठ जज, कानून मंत्री और दो मशहूर न्यायविद इस कमीशन के सदस्य होंगे । नए बिल के मुताबिक कमीशन में दो न्यायविदों की नियुक्ति प्रधानमंत्री, मुख्य न्यायाधीश और नेता विपक्ष की तीन सदस्यीय कमेटी करेगी । बिल के मुताबिक अगर छह सदस्यीय कमीशन के दो सदस्य किसी भी उम्मीदवार के चयन से सहमत नहीं हैं तो उनका नाम राष्ट्रपति के पास नहीं भेजा जाएगा । नियुक्ति के लिए कम से कम पांच सदस्यों की सहमति आवश्यक की गई है । अब पेंच यहीं से शुरू होता है । संविधान कहता है कि हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में न्यायाधीशों की नियुक्ति में सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश की राय को वरीयता (प्राइमेसी) होगी । कल्पना कीजिए कि किसी भी जज की नियुक्ति के वक्त पांच सदस्य सहमत हैं और सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश उससे असहमत हैं तो क्या होगा । क्या सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश की राय को दर किनार करते हुए पांच सदस्यों की राय पर जज की नियुक्ति के लिए राष्ट्रपति को संस्तुति कर दी जाएगी । अगर ऐसा होता है तो राष्ट्रपति के सामने बड़ा संकट खड़ा हो जाएगा । राष्ट्रपति इस मसले को प्रेसिडेंशियल रेफरेंस के तहत फिर से सुप्रीम कोर्ट की राय मांग सकते हैं । वहां जाकर एकबार फिर से मामला फंस सकता है । अब इसका दूसरा पहलू देखिए । भले ही जजों की नियुक्ति के लिए सरकार कमीशन बनाने जा रही है लेकिन उसके नियमों के मुताबिक न्यायाधीशों की मर्जी के मुताबिक कुछ हो नहीं सकता । कमीशन में तीन सुप्रीम कोर्ट के जज होंगे और नियम कहता है कि अगर दो सदस्य किसी की उम्मीदवारी पर असहमत हैं तो उसके नाम की संस्तुति नहीं होगी । ऐसे में समिति में कानून मंत्री और दो अन्य न्यायविदों की राय का कोई अर्थ नहीं रह जाएगा । दूसरी सबसे बड़ी खामी जो इस बिल में है वो यह है कि इस कमीशन को हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जजों की संस्तुति का अधिकार है, लेकिन अगर राष्ट्रपति किसी नाम को पुनर्विचार के लिए भेजते हैं तो उस नाम को फिर से राष्ट्रपति के पास भेजने के लिए सभी छह सदस्यों को एकमत होना चाहिए । किसी भी एक सदस्य की राय अगर अलहदा है तो उस नाम को दोबारा राष्ट्रपति के पास नहीं भेजा जा सकता है । इसका मतलब यह हुआ कि अगर सरकार, जिसका कमीशन में प्रतिनिधित्व कानून मंत्री करेंगे, को किसी के नाम पर आपत्ति है तो उसकी नियुक्ति सुप्रीम कोर्ट या हाईकोर्ट के जज के तौर पर नहीं हो सकती । क्योंकि तब सरकार राष्ट्रपति को किसी नाम पर पुनर्विचार की सलाह दे सकती है और फिर कानून मंत्री कमीशन की बैठक में उस व्यक्ति के खिलाफ अपनी राय रख सकते हैं । इसका मतलब साफ है कि सरकार जजों की नियुक्ति का अधिकार प्रकरांतर से अपने पास रखना चाहती है । मतलब कि कानून मंत्री की मर्जी के बगैर कोई भी जज नियुक्त नहीं हो सकता । इस तरह से अगर देखें तो संविधान के तहत सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश को प्राइमेसी का जो अधिकार है उसका भी अतिक्रमण होगा । कोलेजियम सिस्टम पर उठ रहे सवालों और न्यायविदों के इसके बदलने की मांग के बीच इन बिंदुओं पर गंभीरता से विचार करने की आवश्कता है । इस बात का भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि न्यायपालिका को संविधान में प्रदत्त अधिकारों का हनन ना हो । किसी भी सिस्टम को उससे बेहतर व्यवस्था से ही बदला जाना चाहिए ।
अनंत विजय
लेखक अनंत विजय वरिष्ठ समालोचक, स्तंभकार व पत्रकार हैं, और देश भर की तमाम पत्र-पत्रिकाओं में अनवरत छपते रहते हैं। फिलहाल समाचार चैनल आई बी एन 7 से जुड़े हैं।
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