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आप का प्रयोग और बुद्धि बलिहारियों की कसौटी
आशुतोष ,
Dec 27, 2013, 11:10 am IST
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![]() यह इसलिए भी जरूरी है कि आप को इस बीच कई तरह की आलोचनाओं से गुजरना पड़ा। पिछले दिनों जब दिल्ली में सरकार बनाने के लिए आप के नेता अरविंद केजरीवाल को बुलावा आया और जब अरविंद ने दिल्ली की जनता से जनमत संग्रह का ऐलान किया, तो कई लोगों के मुंह फिर पिचक गए। कहने लगे ये नौटंकी बंद होनी चाहिए। लोकतंत्र में तमाशा ज्यादा नहीं चलता। चुनाव और सरकार बनाना एक गंभीर काम है और उसे इस तरह से ड्रामे से अगंभीर नहीं बनाना चाहिए। मगर लोकतंत्र और जनता के नाम पर पिछले कुछ साल से जो कुछ चलता रहा है, क्या वह सब लोकतंत्र के नाम पर मजाक नहीं है? जिसमें न जन बचा है और न ही तंत्र, रह गया है, तो भीड़ पर सवार कुछ लोग। अन्ना का आंदोलन जब हो रहा था, तो सत्ता तंत्र ने कहा था कि चंद लोग और कुछ हजार की भीड़ देश का भविष्य तय नहीं कर सकती। और न ही यह बता सकती है कि देश को क्या करना चाहिए। लेकिन आज राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी, जो तब मनमोहन सरकार में वित्त मंत्री थे, कह रहे हैं कि देश बदल रहा है और सिविल सोसायटी को हलके में नहीं लिया जाना चाहिए। याद कीजिए, उस समय अन्ना हजारे को न केवल गिरफ्तार किया गया, बल्कि कांग्रेस के प्रवक्ता मनीष तिवारी ने अन्ना के बारे कहा था कि वह सिर से पांव तक भ्रष्टाचार में डूबे हैं। बेनी प्रसाद वर्मा की जुबान बोली थी कि अन्ना सेना के भगोड़ा हैं। केजरीवाल पर तब नाना प्रकार के आरोप लगे थे। उन्हें अहंकार में डूबा इंसान बताया गया। ठग कहा गया, जो अति महत्वाकांक्षी हैं, और अन्ना को गुमराह कर रहे हैं। यह भी कहा गया था कि आंदोलन करना अलग बात है, और चुनाव लड़ना अलग। उसी अरविंद की अगुआई में बनी राजनीतिक पार्टी 'आप' ने जब दिल्ली के चुनाव में भारी उलटफेर कर 28 सीटें जीत लीं, तो राहुल गांधी कहते पाए गए कि हमारा जनता से संपर्क कट गया है और हमें 'आप' से सीखने की जरूरत है। आनन-फानन में संसद से लोकपाल बिल पास हो गया, जिसके बारे में कहा गया था कि यह सरकार के बराबर एक नया तंत्र बनाने का षड्यंत्र है। और इससे लोकतंत्र कमजोर होगा। दो साल पहले जन-आंदोलन एक घटिया विचार था, जिसका तिरस्कार करना चाहिए। वहीं 2013 दिसंबर में एक सराहनीय विचार हो गया। उसी तरह से 'आप' ने जब बहुमत न होने पर जनता की रायशुमारी की बात कही, तो फिर बुद्धि बलिहारियों ने नाक-भौं सिकोड़ी। 'आप' की दिक्कत यह है कि एक तो उसके पास पूर्ण बहुमत नहीं है और दूसरे वह विधानसभा में पहले नंबर की पार्टी नहीं है। इसके बाद भी उसके सामने सरकार बनाने की चुनौती आई, तो उसे फूंक-फूंककर कदम रखने ही थे। अगर वह सरकार बनाने की जल्दबाजी दिखाती, तो इसका गलत संदेश जाता। यह नहीं हो सकता था कि आप स्थापित तिकड़मबाज राजनीति की भर्त्सना भी करें और फिर उसी तिकड़म का सहारा लेकर सरकार भी बना लें। यह परंपरागत राजनीति में तो चल सकता है, लेकिन नई राजनीति की जमीन खोजने वाले ऐसा करते दिखने का जोखिम नहीं उठा सकते। यह जरूर है कि अगर पूर्ण बहुमत मिलने के बाद भी 'आप' ऐसा ही करती, तब उसे न केवल ड्रामा माना जाता, बल्कि संविधान का उपहास उड़ाना भी। यह बताने की आवश्यकता नहीं कि आज की राजनीति जमीन से कट गई है। नेता ऊपर से थोपे जाते हैं। जनता के मुद्दों पर बहस के लिए बनी संसद में बहस की जगह सब कुछ होता है। संसद चलती ही नहीं। राज्यों में विधानसभा के सत्र महज औपचारिकता रह गए हैं। न राज्य में और न ही केंद्र में बड़े नीतिगत फैसलों में जनता की राय ली जाती। सांसद-विधायक एक बार चुनने के बाद पांच साल बाद ही क्षेत्र में नजर आते हैं। जनता के बीच से प्रतिनिधि चुनने के नाम पर करोड़ों रुपये लेकर पैराशूट से उम्मीदवार उतारे जाते हैं। यानी लोकतंत्र में जनता की भागीदारी लगभग खत्म हो गई है। ऐसे में, 'आप' ने अगर यह तय किया कि वह सरकार बनाने के लिए दिल्ली के 25 लाख परिवारों की राय लेगी, तो क्या गलत किया? अगर वह लोगों का मन जानने के लिए एसएमएस और मोबाइल का सहारा ले रही है, तो कौन-सा गुनाह कर रही है? अगर वह दिल्ली के सभी 272 वार्डों में जाकर जनसभा करके रायशुमारी कर रही है, तो इससे लोकतंत्र का मजाक कैसे उड़ता है? दरअसल जमीन से कटे हुए जन-प्रतिनिधि और हवाई जहाज से राजनीति को नापने वाले नेताओं को यह सोचकर दहशत होती है कि अगर राजनीति वाकई में जमीन पर आकर करनी पड़ी, तो उनकी मालामाल दुकानों का क्या होगा? जून की गरमी में गांव गली की खाक छाननी पड़ी, तो उनके पसीने का हिसाब कौन करेगा? कड़कड़ाती सर्दी में खुले आसमान के नीचे लोगों के मुद्दों का जवाब देना पड़ा, तो उनके जमते खून को परनाला कहां मिलेगा? और झमझमाती बारिश में किसी गरीब की टाट उड़ गई, तो झाड़ पर सवार उनका अहंकार क्या करेगा? लोकतंत्र में संसद और विधानसभाएं इसलिए बनाई गई हैं कि जनसंख्या की वजह से हर जन को सरकार और सरकारी काम में जोड़ना संभव नहीं होता। वरना यूनान के सिटी स्टेट में लोगों की आमसभा में ही फैसले होते थे और सबको मान्य भी होते थे और उन पर अमल भी होता था। यह सही है कि यूनान की तुलना में आज की लोकतांत्रिक सरकार का स्वरूप काफी बदल गया है। उसमें इतने झोल हैं कि हर बार जनता से सीधे-सीधे रूबरू नहीं हुआ जा सकता। लेकिन जनता से जुड़े सीधे सवालों पर जनता की राय बीच-बीच में क्यों नहीं लेनी चाहिए? मुझे लगता है कि बुद्धि बलिहारियों को इस प्रयोग पर गंभीरता से सोचना चाहिए, क्योंकि जनता को इस खेल में मजा आने लगा है। इतिहास की गति फिर नए सिरे से बदलने लगी है।
आशुतोष
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