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एक पत्थर तो तबीयत से उछला है...
आशुतोष ,
Dec 10, 2013, 10:39 am IST
Keywords: अरविंद केजरीवाल सत्ता झाड़ू की डंडी अन्ना का आंदोलन सामाजिक आंदोलनों 2011 में जंतर-मंतर राजनीति Arvind Kejriwal Power broom stick Anna's movement Social movements in 2011 Observatory Politics
![]() कहा गया कि ये एनजीओ की बारात है जिसका कोई भविष्य नहीं है। मैंने तब भी कहा था कि इस आंदोलन की जड़ें गहरी हैं क्योंकि समाज में काफी कुछ बदल रहा है। समाज की सोच बदल रही है। लोगों का मानस बदल रहा है। और इस मानस को नए तरह के सामाजिक राजनीतिक विमर्श की तलाश है, वो ऊबा हुआ है। राजनीति के छिछोरेपन को अब बर्दाश्त करने को तैयार नहीं है। उस वक्त तीन तरह के बदलावों को मैंने महसूस किया था। एक, स्थापित राजनीति के प्रति घोर निराशा। वो राजनीति जो अपने आप में पैसा, ताकत, रौब कमाने का साधन बन गई। वो राजनीति जो फार्म हाउस, बीएमडब्ल्यू और पांचसितारा होटलों से परिभाषित होती है। दो, लोगों में नई आकांक्षाएं अंगड़ाई लेने लगी हैं। वो आकांक्षाएं जो आसमान को अपनी मुट्ठी में कैद कर लेना चाहती हैं। तीन, समानता की संवेदना समाज में नया सत्ता समीकरण गढ़ रही है। इन तीनों के मिश्रित रसायन ने नए इंसान का निर्माण किया है। ये इंसान आजादी की कहानियों को सुनता है तो उसे गर्व होता है। लेकिन जब अपने इर्दगिर्द देखता है तो उसे निराशा होती है, उसे घिन आती है। वो सोचता है कि क्या ये वही भारत है जिसकी कहानियां उसने अपने बचपन में अपने दादा-दादी और नाना-नानी से सुनी थीं। वो कहानियां जो इंसान को आदर्शवादी बनाती हैं। वो महत्वाकांक्षी भी है। पर जब अपने चारों तरफ देखता है तो प्यासा के गुरुदत्त की तरह कह उठता है ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है। फिर वो पूछता है जिन्हें हिंद पर नाज है वो कहां हैं। गुरुदत्त के जमाने में वो अपने को बेबस पाता था लेकिन आज संविधान प्रदत्त अधिकारों के एहसास ने उसे हथियार दे दिया है। वो खुद को भारतीय लोकतंत्र में साझीदार समझता है। इसलिए पिछले दिनों जब जब दिल्ली से आवाज उठी, उसने उस आवाज में अपनी आवाज मिला दी। अरविंद केजरीवाल ने इसी आवाज को बुलंद करने का काम किया है। वो कहते हैं न कि एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो। अरविंद ने पत्थर उछाला। आसमान में सुराख हो गया। ये अकेले की पुकार नहीं थी। लोगों को बस इंतजार था कि कोई तो पत्थर उछाले। सामाजिक-राजनीतिक और ऐतिहासिक परिस्थितियां तैयार थीं। मैंने अपनी किताब अन्ना क्रांति में लिखा था कि आर्थिक सुधारों के दौर में जिस कदर भ्रष्टाचार ऊपर से नीचे तक फैला है उससे लोगों में गुस्सा भभक रहा है। इस गुस्से को एक चेहरे की तलाश है। जिस दिन इस गुस्से को चेहरा मिल गया उस दिन ये गुस्सा दावानल बनकर फूट जाएगा। अन्ना का चेहरा एक इत्तेफाक था। अन्ना नहीं होते तो कोई और होता। अन्ना की नैतिक आभा ने इस गुस्से को नई आभा, नई प्रतिष्ठा दी। लेकिन जब अन्ना इस गुस्से को और आगे ले जाने से पीछे हट गए तो आंदोलन रुका नहीं, वो आगे बढ़ा। अन्ना की जगह अरविंद ने ली। सामाजिक आंदोलन ने राजनैतिक पार्टी का रूप धर लिया। आंदोलन की शक्ल बदली लेकिन आंदोलन की आत्मा वही रही। वो आत्मा जो राजनीति और समाज के भद्देपन को उखाड़ फेंकना चाहती है। वर्ना ये कैसे संभव है कि एक पार्टी जो एक साल पहले बनी थी, जिसके पास न करोड़ों रुपये थे और न ही बाहुबल, न संगठन और न ही कार्यकर्ताओं की फौज, न चुनाव लड़ने का कोई अनुभव और न उम्मीदवार, न अपना कोई बड़ा नेता, फिर भी वो दिल्ली में 28 सीटें जीत गई। कांग्रेस की हवा गुम हो गई। वो पंद्रह साल से शासन कर रही थी, वो तीसरे नंबर पर पहुंच गई। शीला दीक्षित अपना चुनाव हार गई। अरविंद जीत गया। कैसे हुआ ये सब? आम आदमी की वजह से हुआ। वो आम आदमी जो गुस्से से धधक रहा है। जो छिछोरे राजनेताओं और राजनीतिक छिछोरेपन को आईना दिखाना चाहता है। जिसमें उनको अपना कुरूप चेहरा दिखे और शर्म आए। लेकिन ये जीत अभी अधूरी है। इस जीत को महज सांसदों और विधायकों की संख्या से अगर नापेंगे तो फिर एक ऐतिहासिक गलती करेंगे। क्योंकि आज जेपी का जमाना नहीं है। न ही वी पी सिंह का। तब का हिंदुस्तान कुंठाग्रस्त था। वो औपनिवेशिक मानसिकता से जकड़ा हुआ था। उसका खुद का आत्मविश्वास और आत्मबल इतना नहीं था कि वो स्थापित राजनेताओं के बगैर जिंदगी का ख्वाब देखे। तभी तो दोनों ही भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन राजनैतिक पार्टी की बैशाखी पर टिके थे। लेकिन अन्ना आंदोलन में ये बैशाखियां गायब थीं। इस बार आंदोलन ने किसी भी राजनीतिकि पार्टी और राजनेता में फर्क नहीं किया। क्योंकि इसकी बुनियादी समझ थी सारी राजनीतिक सत्ता ही भ्रष्ट है और इस भ्रष्टतंत्र को ही पूरी तरह से बदलने की जरूरत है। ऐसे में आप की जीत सारी राजनीतिक पार्टियों को पूरी तरह से बदलने को मजबूर करेगी। इस बदलाव की शुरुआत हो गई है। एक पत्थर ने आसमान में सुराख कर दिया है।
आशुतोष
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