जब फकीर को मिला अल्लाह का घर

यशपाल जैन , Feb 15, 2013, 17:37 pm IST
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फ़ॉन्ट साइज :
जब फकीर को मिला अल्लाह का घर नई दिल्ली: एक फकीर था। वह भीख मांगर अपनी गुजर-बसर किया करता था। भीख मांगते-मांगते वह बूढ़ा हो गया। उसे आंखों से कम दीखने लगा।

एक दिन भीख मांगते हुए वह एक जगह पहुंचा और आवाज लगाई। किसी ने कहा, "आगे बढ़ो! यह ऐसे आदमी का घर नहीं है, जो तुम्हें कुछ दे सके।"

फकीर ने पूछा, "भैया! आखिर इस घर का मालिक कौन है, जो किसी को कुछ नहीं देता?"

उस आदमी ने कहा, "अरे पागल! तू इतना भी नहीं जानता कि वह मस्जिद है? इस घर का मालिक खुद अल्लाह है।"

फकीर के भीतर से तभी कोई बोल उठा, "यह लो, आखिरी दरवाजा आ गया। इससे आगे अब और कोई दरवाजा कहां है?"

इतना सुनकर फकीर ने कहा, "अब मैं यहां से खाली हाथ नहीं लौटूंगा। जो यहां से खाली हाथ लौट गए, उनके भरे हाथों की भी क्या कीमत है!"

फकीर वहीं रुक गया और फिर कभी कहीं नहीं गया। कुछ समय बाद जब उस बूढ़े फकीर का अंतिम क्षण आया तो लोगों ने देखा, वह उस समय भी मस्ती से नाच रहा था।

नशे का तमाशा :

एक आदमी बड़ा शराबी था। शाम होते ही वह शराबघर में पहुंच जाता और खूब शराब पीता। एक दिन उसने इतनी चढ़ा ली कि चलते समय उसे पूरा होश न रहा। वह साथ में लालटेन लाया था। उठाकर घर की ओर चल दिया। रास्ते में गहरा अंधेरा था। उसने लालटेन को इधर घुमाया, उधर घुमाया और जब उससे रोशनी न मिली तो उसने जी भरकर उसे गालियां दीं।

घर आकर उसने लालटेन को बाहर पटक दिया और घर के अंदर जाकर सो गया।

सवेरे जैसे ही उठा तो देखा कि शराबघर का आदमी उसकी लालटेन लिए चला आ रहा है। उसे बड़ा अचरज हुआ कि वह लालटेन उसके हाथ में कैसे है!

पास आकर वह बोला, "महाशयजी, रात को आपने अच्छा तमाशा किया! अपनी लालटेन छोड़ आए और हमारा पिंजड़ा उठा लाए। लीजिये, अपनी यह लालटेन और हमारा पिंजड़ा हमें दीजिए।"

यह सुनकर उस आदमी को अपनी भूल मालूम हुई। नशे में रात को सचमुच वह लालटेन नहीं, पिंजड़ा उठा लाया था।

दान का आनंद :

एक राजा था। वह बड़ा ही उदार था। दानी तो इतना कि खाने-पीने की जो भी चीज होती, अक्सर भूखों को बांट देता और स्वयं पानी पीकर रह जाता।

एक बार ऐसा संयोग हुआ कि उसे कई दिनों तक भोजन न मिला। उसके बाद मिला तो थाल भरकर मिला। उसमें से भूखों को बांटकर जो बचा, उसे खाने बैठा ही था कि एक ब्रह्माण आ गया। वह बोला, "महाराज! मुझे कुछ दीजिए।"

राजा ने थाल में से थोड़ी-थोड़ी चीजें उठाकर उसे दे दीं। फिर जैसे ही खाने को हुआ कि एक शूद्र आ गया। राजा ने खुशी-खुशी उसे भी कुछ दे दिया। उसके जाते ही एक चांडाल आ गया। राजा ने बचा-बचाया सब उसे दे दिया। मन ही मन सोचा, कितना अच्छा हुआ, जो इतनों का काम चला! मेरा क्या, पानी पीकर मजे से अपना गुजर कर लूंगा।

इतना कहकर वह जैसे ही पानी पीने लगे कि हांफता हुआ एक कुत्ता वहां आ गया। गर्मी से वह बेहाल हो रहा था और प्यासा था। राजा ने झट पानी का बर्तन उठा कर उसके सामने रख दिया। कुत्ता सारा पानी पी गया।

राजा को न खाना मिला, न पानी, पर उसे जो मिला उसका मूल्य कौन आंक सकता है!

(सस्ता साहित्य मंडल, नई दिल्ली से प्रकाशित पुस्तक 'हमारी बोध कथाएं' से साभार)
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