जब ऋषि को हुआ पाप का बोध
कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर ,
Jan 11, 2013, 12:26 pm IST
Keywords: Wiseman's compassion sin sacrifice humiliation Jaswant Singh Ram Dulari asafetida ऋषि की करुणा पाप आहुति अपमान जसवंत सिंह राम दुलारी हींग
नई दिल्ली: अंगार ने ऋषि की आहुतियों का घी पिया और हव्य के रस चाटे। कुछ देर बाद वह ठंडा होकर राख हो गया और कूड़े की ढेरी पर फेंक दिया गया।
ऋषि ने जब दूसरे दिन नए अंगार पर आहुति अर्पित की तो राख ने पुकारा, "क्या आज मुझसे रुष्ट हो, महाराज?" ऋषि की करुणा जाग उठी और उन्होंने पात्र को पोंछकर एक आहुति उसे भी अर्पित कर दी। तीसरे दिन ऋषि जब नए अंगार पर आहुति देने लगे तो राख ने गुर्राकर कहा, "अरे! तू वहां क्या कर रहा है? अपनी आहुतियां यहां क्यों नहीं लाता?" ऋषि ने शांत स्वर में उत्तर दिया, "ठीक है राख! आज मैं तेरे अपमान का पात्र हूं, क्योंकि कल मैंने मूर्खतावश तुझ अपात्र में आहुति अर्पित करने का पाप किया था। " जैसी करनी वैसी भरनी : एक हवेली के तीन हिस्सों में तीन परिवार रहते थे। एक तरफ कुंदनलाल, बीच में रहमानी, दूसरी तरफ जसवंत सिंह। उस दिन रात में कोई बारह बजे रहमानी के मुन्ने पप्पू के पेट में जाने क्या हुआ कि वह दोहरा हो गया और जोर-जोर से रोने लगा। मां ने बहलाया, बाप ने कंधों पर लिया, आपा ने सहलाया, पर वह चुप न हुआ। उसके रोने से कुंदनलाल की नींद खुल गई। करवट बदलते हुए उसने सोचा, "कम्बख्त ने नींद ही खराब कर दी। अरे, तकलीफ है, तो उसे सहो, दूसरों को तो तकलीफ में मत डाल।" और कुंदनलाल फिर खर्राटे भरने लगा। नींद जसवंत सिंह की भी उचट गई। उसने करवट बदलते हुए सोचा- बच्चा कष्ट में है। हे भगवान, तू उसकी आंखों में मीठी नींद दे कि मैं भी सो सकूं। हवेली के सामने बुढ़िया राम दुलारी अपनी कोठरी में रहती थी। उसकी भी नींद उखड़ गई। उसने लाठी उठाई और खिड़की के नीचे आवाज देकर कहा, "ओ बहू! यह हींग ले लो और इसे जरा से पानी में घोलकर मुन्ने की टूंडी पर लेप कर दे। बच्चा है। कच्चा-पक्का हो ही जाता है, फिकर की कोई बात नहीं, अभी सो जाएगा।" बुढ़िया संतुष्ट थी, कुंदन लाल बुरे सपने देख रहा था। जसवंत सिंह थका-थका-सा था और रहमानी मु. की टूंडी पर हींग का लेप कर रहा था। बुराई और भलाई : उभरती बुराई ने दबती-सी अच्छाई से कहा, "कुछ भी हो, लाख मतभेद हों, है तो तू मेरी सहेली ही। मुझे अपने सामने देरा दबना अच्छा नहीं लगता। आ, अलग खड़ी न हो, मुझमें मिल जा, में तुझे भी अपने साथ बढ़ा लूंगी, समाज में फैला लूंगी।" अच्छाई ने शांति से उत्तर दिया, "तुम्हारी हमदर्दी के लिए धन्यवाद, पर रहना मुझे तुमसे अलग ही है।" बुराई ने आश्चर्यभरी अप्रसन्नता से पूछा, "क्यों?" "बात यह है कि मैं तुमस मिल जाऊं तो फिर मैं कहां रहूंगी, तब तो तुम-ही-तुम होगी सब जगह।" अच्छाई ने और भी शांत होकर उत्तर दिया। गुस्से से उफन कर बुराई ने अपनी झाड़ी अच्छाई के चारों ओर फैला दी और फुंकार कर कहा, "ले, भोग मेरे निमंत्रण को ठुकराने की सजा! अब पड़ी रह मिट्टी में मुंह दुबकाए!" दुनिया में तेरे फैलने की अब कोई राह नहीं।" अच्छाई ने अपने अंकुर की आंख से जिधर झांका, उसे बुराई की झाड़ी का तेज कांटा, तने हुए भाले की तरह, सामने दिखाई दिया। सचमुच आगे कदम सरकाने को भी कहीं जगह न थी। बुराई का अट्टहास चारों ओर गूंज गया। परिस्थितियां निश्चय ही प्रतिकूल थीं। फिर भी पूरे आत्मविश्वास से अच्छाई ने कहा, "तुम्हारा फैलाव आजकल बहुत व्यापक है, बहन! जानती हूं, इस फैलाव से अपने अस्तित्व को बचाकर मुझे व्यक्तित्व की ओर बढ़ने में पूरा संघर्ष करना पड़ेगा, पर तुम यह न भूलना कि कांटे-कांटे के बीच से गुजर कर जब मैं तुम्हारी झाड़ी के ऊपर पहुंचूंगी तो मेरे फूलों की महक चारों ओर फैल जाएगी और यह जानना भी कठिन होगा कि तुम हो कहां।" व्यंग्य की शेखी से इठलाकर बुराई ने कहा, "दिल के बहलाने को यह ख्याल अच्छा है।" गहरे संतुलन में अपने को समेटकर अच्छाई ने कहा, "तुम हंसना चाहो, तो जरूर हंसो, मुझे आपत्ति नहीं, पर जीवन के इस सत्य को हंसी के मुलम्मे से झुठलाया नहीं जा सकता कि तुम्हारे फैलाव की भी एक सीमा है, क्योंकि उस सीमा तक तुम्हारे पहुंचते-न-पहुंचते तुम्हारे सहायकों और अंगरक्षकों का ही दम घुटने लगता है। इसके विरुद्ध मेरे फैलाव की कोई सीमा ही प्रकृति ने नहीं बांधी, बुराई बहन।" बुराई गंभीर हो गई और उसे लगा कि उसके कांटों की शक्ति आप-ही-आप पहले से कम होती जा रही है और अच्छाई का अंकुर तेजी से बढ़ रहा है। (यशपाल जैन द्वारा संपादित एवं सस्ता साहित्य मंडल, नई दिल्ली से प्रकाशित पुस्तक 'हमारी बोध कथाएं' से साभार) |
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