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कहानी: मर्ज
डॉ. आशा पाण्डेय ,
Sep 09, 2012, 16:53 pm IST
Keywords: Hindi Story Marj Asha Pandey's Story Dr. Asha Pandey Bharat Hindi Library Amravati Dr. Asha Pandey's story collection Dhoop ka Gulab हिन्दी कहानी मर्ज डॉ. आशा पाण्डेय भारत हिन्दी पुस्तकालय अमरावती डॉ. आशा पाण्डेय का कहानी संग्रह धूप का गुलाब
![]() मेरे गाँव की इसी सुन्दरता से मुग्ध होकर दो किलोमीटर दूर स्थित कोट (किला) के शहजादे जब दिल्ली से कोट में पधारते थे तो शाम की सैर में कभी-कभी दो चार लट्ठधारी सेवकों के साथ खंडहर पर खेलने आ जाते थे। मेरे गाँव के बच्चे, जिनमें मैं भी शामिल होता था, निहाल हो जाते थे और उनके पीछे-पीछे भागते हुए उनकी इच्छा से उनके खेल में शामिल हो जाते थे । शहजादे हमारी पीठ पर लपक कर चढ लेते और बरगद की डाल को छूने का प्रयास करते। हम उन्हें अपनी पीठ पर अच्छे से सम्भाले रहने में पूरी ताकत लगा देते। वे बरगद की लटकती जटाओं को पकड लेते और पेंग बढाने के लिए लात से हमारी छाती पर धक्का देकर झूलने लगते। दौडकर खंडहर पर चढ जाते, उछलते-कूदते और अन्त में उसकी गन्दी मिट्टी से निजात पाने के लिए पास की नदी में छलाँग लगा देते। जब धुल पुँछ कर नदी से बाहर निकलते तो लट्ठधारी सेवकों के साथ कोट में चले जाते। जब कोट के शहजादे नदी में नहा रहे होते तो हम गाँव के बच्चों को नदी में उतरने की मनाही थी। लट्ठधारी सेवक घूर कर हमें भगा देते थे। हमारे गाँव के बडे-बुजुर्ग भी बच्चों को बरज देते थे। शहजादे राजा-महाराजा थे। राजा-महाराजा और प्रजा एक ही नदी में, एक ही घाट पर, एक साथ कैसे नहा सकते हैं। उनके जाने के बाद इतनी देर से ललचाये हम बच्चे भी नदी में छलाँग लगा देते। जी-भरकर पानी में डूबते, उतराते, तैरते। खूब मजा आता। लेकिन दिक्कत तब हो जाती जब नहाने के बाद मैं लगातार छींकने लगता। माँ कहती-इतनी देर तक खंडहर की धूल में खेला, फिर नदी में नहाया इसलिए सर्दी हो गई। पर दो बाते थीं जो मुझे कभी समझ में न आईं। एक तो यह कि-खंडहर में खेलना तथा नदी में नहाना तो हम बच्चों का नित्य का खेल था पर सर्दी कोट के शहजादे के साथ खेलने से ही क्यों होती थी ? दूसरी बात यह कि गाँव के अन्य बच्चे भी तो शहजादे के साथ खंडहर की धूल में खेलते थे, नदी में नहाते थे, उन्हें क्यों नहीं होती थी सर्दी ? माँ कहतीं- तेरा शरीर नाजुक है। इस वर्षों पुराने खंडहर की जमीं हुई धूल-मिट्टी तुझे नुकसान करती है। धूल में खेल कर जब तू घंटो नहा लेता है तो छींकना शुरू कर देता है। मेरी माँ वैद्य की बेटी थी इसलिए मेरी सर्दी का यह कारण ही उसे सही लगता था। मेरे मन में एक सवाल और भी उठता था कि, कोट के शहजादे को भी तो सर्दी हो जाती होगी। वे तो और भी नाजुक रहे होंगे। दिल्ली में रहते थे। आजादी के तुरन्त बाद उनके पिता बाबूसाहब को दिल्ली से बुलावा आया था। जब वे दिल्ली से कोट में आते तो उनकी गाडी के आगे-पीछे कई-कई गाडियाँ होती। अगल-बगल के गाँवों के तमाम लोग उम$ड प$डते थे बाबू साहब के दर्शन के लिए। तो ऐसे में मेरा यह सोचना कि शहजादे मुझसे अधिक नाजुक होंगे और नदी में नहाकर बीमार पड जाते होंगे। कतई गलत नहीं था। दिन बीतते गये पर दिमाग में प्रश्न कुलबुलाता ही रहा। मेरे पास इस प्रश्न के हल का कोई जरिया भी न था। खंडहर की धूल साल भर मेरे नथुनों में समाती रहती पर छींक शुरू होती शहजादे के आने के बाद ही। लो, मैं तब से खंडहर का ही जिक्र किये जा रहा हूँ। अरे भाई, जब तक मैं आपको ये न बता दूँ कि आखिर इसका रहस्य क्या है, आप समझेंगे कैसे ?... नही जी, डरें नहीं, किसी भूत-प्रेत का निवास नही है यहाँ। बारह बजे रात में यहाँ भूतों की सभा नहीं लगती है और न ही घुँघुरुओं की रुन-झुन सुनाई पडती है। मुझे रात में सुनाई जाने वाली आजी की कहानियों ने टुकडों-टुकडों में इस खंडहर के रहस्य को तो$डा था। आजी इस गाँव में तथा आस-पास के कई गाँवों में ऐसे कई खंडहर होने की बात करती थीं जो खुली आँखों से तो नहीं दिखते लेकिन मौजूद हैं आज भी। खैर...तो आजी बताती थीं कि, यह खंडहर हमारे गाँव के मातादीनउर्फ तूफानी का घर था। दादा, बाबा के जमाने की दो खण्ड की बखरी थी उसकी। निरबसिया था मातादीन। उसके मरने के बाद घर की देख-भाल करने वाला कोई न बचा। कुछ दिन तक तो घर आँधी-तूफान से अकेले लडता रहा फिर भहरा के खंडहर बन गया। यह उन दिनों की बात थी जब राजे-रजवाडों का राज था। गाँवों में जमींदारों की तूती बोलती थी। मेरे गाँव से सिर्फ दो कि.मी. की दूरी पर स्थित इस कोट में जमींदार बाबू रायबहादुर साहब का राज था। बडा रुतबा था रायबहादुर साहब का। हाथी पर बैठ कर जब वे अपने इलाके में निकलते तो इलाके के लोग अपना सिर नीचे झुका कर उनके वहाँ से आगे चले जाने तक खडे रहते थे । गाँव की बहू-बेटियाँ अपना-अपना काम बीच में रोक कर घर के भीतर चली जातीं थीं। बाबू रायबहादुर की न$जर जिधर घूम जाती थी वहाँ कहीं दया बरस पडती थी तो कहीं क्रोध उबल पडता था। मातादीन गाँव का गरीब किसान था। गरीब यूँ कि दादा-बाबा के जमाने से ही जमीन बँटते-बँटते उसके हिस्से में सिर्फ चार बिस्वा जमीन ही आई थी। बरसात के महीने में वह उसी जमीन में धान बो लेता था, ठण्डी में गेहूँ। कभी फसल अच्छी हो जाती थी, कभी खराब। जमींदार का लगान चुकाने के बाद उसके पास इतना अनाज नहीं बच पाता था कि वह साल भर अपना और अपनी पत्नी का पेट भर सके। चार बिस्वा जमीन होती ही कितनी है ! वैसे गाँव वालों का मत था कि मातादीन के घर में दरिद्दर समा गया है। बिना बाल बच्चों का, सिर्फ दो जन का परिवार, फिर भी आये दिन फाँका ही पडा रहता है। एक दिन मातादीन ‘कोट’ के बगल से निकल रहा था। ‘कोट’ के मुख्य दरवाजे पर दो हट्टे-कट्टे दरबान तेल पिलाई लाठी लिए खडे थे। मातादीन कोट के नजदीक पहुँचने के कुछ पहले से ही अपना सिर नीचे झुकाकर चला आ रहा था। मुख्य दरवाजे तक आते-आते एक बार उसका सिर ऊपर उठ गया। लगान उगाही का समय था। मजदूर लगान में मिले अनाज को बोरों में भर कर अहाता की दीवाल से सटा कर रख रहे थे। बोरों को, एक के ऊपर एक लादते हुए अहाता की दीवाल की ऊँचाई के बराबर तक रखा गया था। मातादीन ने क्षण भर के लिए सिर ऊपर उठाया था, पर भूख की तीव्रता सीधे अनाज के बोरों से जा टकराई। क्षण-भर में ही उसने बोरों के रख-रखाव की स्थिति का अन्दाज लगा लिया। अब उसके दिमाग में हलचल मची*। तमाम तरह की योजनाएँ बनने बिग$डने लगीं। अपने रास्ते पर चलते हुए वह कोट के पिछवाडे तक आ पहुँचा। एक बार फिर उसने अपनी नजरें अहाते के दीवार की ओर ग$डा दी। क्षण भर ठिठक कर कोट की ओर देखा और अपने रास्ते पर आगे बढ़ गया। आधी रात बीत जाने के बाद एक धम्म-सी आवाज ने कोट के पहरेदारों को सचेत कर दिया। जिस ओर से आवाज आई थी पहरेदार उस ओर दौ़ड पडे़। जब तक पहरेदार पिछवाडे पहुँचते, मातादीन पीठ पर गेहूँ का बोरा लादकर भागने लगा था। पहरेदार मातादीन के पीछे दौडें जरूर पर उसे पकड न पाये। अँधेरी रात का फायदा उठाकर मातादीन आम के घने बगीचे में घुस गया। वहाँ से वह किस ओर भागा, पहरेदार समझ न पाये । कुछ देर खोज-बीन करके वापस लौट आये। सुबह होने पर डरते-डरते पहरेदारों ने बाबू साहब से रात की सम्पूर्ण घटना का बयान किया। चोर का साहस सुनकर, बाबू साहब अचम्भित हुए तथा अपने पहरेदारों की नाकामी पर क्रोध भी आया उन्हें। उन्होंने पहरेदारों को डपटा - ‘‘तुम दोनों के हाथ में सिर्फ लाठी थी और चोर के पीठ पर पचास किलो वजन का बोरा, फिर भी वह भाग निकला ! तुम लोग उसे पकड न पाये ! बस मुसडण्डों की तरह खा-खाकर फैल रहे हो... आज से तुम दोनों पहरेदारी नहीं करोगे... जाकर खेत में काम करो और हाँ, रसोइयें को कह दो कि इन दोनों को एक वक्त का भोजन बन्द कर दे... ससुरे भैंसे जैसे मोटाये जा रहे हैं ’’ बाबू साहब को क्रोध में देख कर कोट में सन्नाटा छा गया था। दोनों पहरेदार सिर झुकाये खडे थे। यह पहला अवसर था जब पहरेदारों को इतनी बडी गलती की सजा में सिर्फ एक वक्त का भोजन बन्द किया गया था, को$डे नहीं बरसाये गये थे उन पर। बाबूसाहब का मन बिचलित था। वे उस व्यक्ति को देखना चाहते थे जो पीठ पर बोरा लाद कर भी इतनी तेज भागा कि उनके पहरेदारों की पकड में न आया। बाबू साहब ने हुक्म दिया कि आस-पास सभी गाँवों में डुग्गी पिटवा दी जाये कि कोट से गेहूँ का बोरा लेकर भागने वाले व्यक्ति के साहस से बाबूसाहब खुश हैं.... उसे वे अपने हाथों से इनाम देना चाहते हैं... आज दोपहर तक उस व्यक्ति को कोट में हाजिर होने का हुक्म दिया जाता है।... यह फरमान सुन कर भी यदि वह व्यक्ति कोट में हाजिर न हुआ तो बाबूसाहब के जासूस उसे खोज निकालेंगे और उसकी चमडी उधेड ली जायेगी। डुग्गी की आवाज ने मातादीन की घरवाली को डरा दिया। काँपती आवाज में वह मातादीन पर बिफर पडी- लो और करो राजे-रजवाडों के यहाँ चोरी ... जल में रहे मगर से बैर। अब खाओ पेट भरकर। मति मारी गई थी तुम्हारी... तुम तो मरोगे ही मुझे भी मरवाओगे....। चुप कर, ध्यान से सुन तो। सुन, वो लोग क्या बोल रहे हैं... इनाम मिलेगा इनाम। पीठ पर पचास किलो अनाज का बोरा लादकर कोट के पहरेदारों से अधिक तेज भागने वाले पर बाबू साहब खुश हुए हैं। तब से बडबडाए ही जा रही है। मातादीन तुनक कर घर से बाहर निकल गया। डुग्गी की आवाज पूरे गाँव में गूँज रही थी। गाँव के लोग गहरे आश्चर्य में थे। कोट से अनाज चुराने का साहस ! किसने किया होगा ! मातादीन तन कर डुग्गीवालों के पास चला गया। गाँव वाले चौंक गये। आँखें मल-मल कर सब मातादीन को देख रहे थे। जैसे, विश्वास करना चाह रहे हों कि हाँ, यही हकीकत है.. वो नींद में नहीं हैं। मातादीन गर्व से झूमते हुए डुग्गीवालों से कह रहा था-‘‘बन्द करो ये डुगडुगी... मैं ही हूँ तूफान मेल, कोट से बोरा लेकर भागने वाला... चलो, चलकर मेरे घर में बोरा देख कर विश्वास कर लो, फिर ले चलो मुझे बाबूसाहब के दरबार में.... बडे दिन बाद किस्मत बदली है।’’ मातादीन की मुरझाई आँखें चपल हो गई थीं। बस उस दिन से मातादीन गाँव में तूफान मेल के नाम से जाना जाने लगा। धीरे-धीरे तूफान मेल से कब तूफानी में बदल गया, पता ही न चला। अब गाँव वाले उसे तूफानी ही कहने लगे थे। नही जी, कहानी अभी खत्म नहीं हुई है। मैं भी तो देखो, कितना पागल हूँ ! उसके नाम पर अटक गया... अरे गाँववाले उसे किसी भी नाम से बुलाये जी, क्या फर्क पडता है ? तो चलिए मैं आगे की कहानी सुनाता हूँ। डुग्गी पीटने वालों को गेहूँ का बोरा दिखा कर मातादीन ने अलगनी से अँगोछा उठाया और कन्धे पर डाल कर कोट जाने के लिए तैयार हो गया। उसकी घरवाली डर के मारे काँप रही थी। हाथ जोड कर डुग्गी पीटनेवालों से ही विनती कर डाली, ‘‘दया करें हुजूर, भूख ने ये गलती करवाई है।’’ मातादीन अपनी घरवाली की बेवकूफी पर हँस पडा, "औरत की जात... अकल तो एडी में रहती है। खुशी के मौके को भी रो-धोकर खराब कर रही है।.... बाबू साहब इनाम देने के लिए बुलाए हैं.... फाँसी चढाने के लिए नहीं।’’ ‘’राजे-रजवाडे की बात ! कब गुस्सा भडक जाए, भगवान भी न समझ पायें... मैं तुमको वहाँ अकेले न जाने दूँगी...साथ चलूँगी तुम्हारे।’’ मातादीन की घरवाली अड गई थी। मातादीन इनाम मिलने की खुशी में डूबा था। घरवाली को कोट में साथ ले चलने की बात मान गया। किसी विजेता की भाँति सबसे आगे मातादीन उसके पीछे डरी-सहमी उसकी घरवाली, तथा सबसे पीछे डुग्गीवाले कोट की ओर बढे जा रहे थे। मातादीन की घरवाली का एक मन उखडता, डरता, काँपता तो दूसरा मन उसे थपथपा भी देता, क्या पता, मातादीन सच कह रहा हो... दिन फिरने वाले हों, खुशी का क्षण आने वाला हो। कोट पहुँच कर मातादीन को बाबू रायबहादुर के सामने पेश किया गया। मातादीन की घरवाली भी उसके पीछे-पीछे बाबू साहब के सामने आ गई। बाबू साहब कुछ पूछते उसके पहले ही डुग्गीवालों ने बता दिया-इसकी घरवाली है हुजूर , मानी नही, जबरन इसके साथ यहाँ तक आ गई। "हूँ" बाबू साहब ने ऊपर से नीचे तक एक न$जर उस पर डाली फिर मातादीन की ओर मुखातिब हुए- "तो तुम हो हमारे कोट से अनाज चुराकर भागने वाले।" इनाम मिलने की खुशी में सराबोर तूफानी बाबू साहब की हुंकारती हुई रौबदार आवाज को सुन कर काँप गया। गर्दन नीची हो गई उसकी। "देखने में तो मरकट जैसे पिलपिले दिख रहे हो लेकिन, ताकत इतनी है तुममें ! वाह भाई वाह... कमाल है तुम्हारा। इनाम तो तुम्हें जरूर मिलेगा लेकिन, चोरी की सजा पहले मिलेगी... और सजा भी ऐसी मिलेगी कि फिर कोई दुबारा ऐसा दु:साहस न कर सके।" ".....अरे भाई ! सजा जरूरी है। कोट में चोरी की हिम्मत !" अपने एक-एक शब्द पर जोर देते हुए बडी धीर-गम्भीर आवाज में, किसी रहस्य का उद्घाटन करने जैसी मुद्रा में बाबू साहब बोले जा रहे थे। परिणाम की गम्भीरता का अन्दाज लगा कर मातादीन काँपे जा रहा था। अब तक सिकुड कर एक ओर खडी उसकी घरवाली आगे बढ कर बाबूसाहब के पैरों पर गिर पडी। "दुहाई हो सरकार की, दया करें माई-बाप, रहम करें... पेट की आग ने ढिठाई करवाई हुजूर ! इसे बख्श दें... आगे से ऐसा नहीं होगा सरकार, ये कोट की तरफ आँख उठा कर देखेगा भी नहीं। एक बार सरकार, बस एक बार माफ कर दें। घबराहट में उसे ध्यान ही न रहा कि कब उसके चेहरे का घूँघट हटा और कब उसका आँचल सिर से भी फिसल गया। वह तो बस धार-धार रोये जा रही थी और माफ करने की विनती किये जा रही थी। बाबू साहब ने अनावृत्त हुए उसके चेहरे को नजर भर कर देखा, इतनी सुन्दर! इस मरकट की झोली में ! "कुछ क्षण उसे देख लेने के बाद उन्होंने एक लम्बी साँस ली फिर मातादीन की ओर देख कर अपनी आवाज को भरसक मधुर बनाते हुए बोले "चलो, तुम्हारी सजा माफ की.. और इनाम तुम्हारा यह है कि हर महीने एक दिन तुम कोट में आ जाया करो... अपनी पीठ पर गेहूँ का जितने किलो वजन का बोरा लाद सको, लाद कर चले जाया करो।" यह सुन कर मातादीन खुशी और कृतज्ञता से बाबू साहब के कदमों पर लोट गया। बाबू साहब की बात अभी पूरी नहीं हुई थी उन्होंने आगे कहना शुरू किया- "हाँ भई , मेरी एक शर्त है, जब मैं तुम्हारे घर खबर भिजवाऊँ तब अपनी घरवाली को अनाज की साफ-सफाई के लिए कोट में भेज दिया करो। इसकी मजदूरी तुम्हें अलग से मिल जायेगी।... देख तो रहे हो यहाँ मजूरिनों की कितनी कमी है। अब अनाज को चालना, पछोरना महिलाएँ ही कर पाती हैं न। अब तुम अपना इनाम लेकर घर जाओ और इसे यहीं छोड जाओ। अनाज का जो ढेर लगा है ये उसे साफ कर देगी तो हमारे सेवक इसे तुम्हारे घर पहुँचा आयेंगे।" मातादीन जड हो गया। खुशी टूट कर धराशायी हो गई। सूखते गले और तालू से चिपकती जबान से शब्दों को ठेल कर इतना ही कह पाया कि "हुजूर, घर में भी बहुत काम रहता है.. इसका आना... पर मातादीन के लाख प्रयत्न के बाद भी उसके शब्द बाबूसाहब तक न पहुँच सके। उसका बोलना पूरा होता उससे पहले ही बाबूसाहब वहाँ से उठ कर चले गये। मातादीन अनाज चालने-पछोरने का मतलब समझता था। समझती उसकी घरवाली भी थी। किन्तु विरोध का साहस किसी में नहीं था। ये बाबू साहब का हुक्म था। हुक्म का विरोध नहीं होता। क्या करे मातादीन ! किससे कहे। दोनों धम्म से वहीं जमीन पर बैठ गये। चुपचाप बैठे रहे। नि:शब्द, भीतर सुलगते हुए, ऊपर से मौन। मौन का धुँआ उठता रहा जिससे दालान भर गया। धुँए से दोनों की साँस घुटने लगी पर कुछ अनहोनी नहीं हुई जैसे दोनों ने ही समझ लिया हो कि यही हमारी नियति है। धुएँ में जीना, जीवित दिखना। मातादीन के चेहरे पर शर्मिन्दिगी थी तो उसकी घरवाली के चेहरे पर अफ सोस क्यों आई थी कोट में। "कब तक यहाँ बैठा रहेगा तू, बाबू साहब का हुक्म हुआ है कि अनाज लेकर तू गाँव जा, इसे यहीं छोड जा। इसको काम समझा दिया जायेगा।" किसी सेवक की कर्कश आवाज ने दोनों को चौंका दिया। मातादीन ने साहस किया, ‘‘मुझे अनाज नहीं चाहिए। कल रात में ही तो बोरा भर अनाज ले गया था।’’ धत्त ससुर, ले गया था कि चुराया था.... चल उठ यहाँ से, उठा बोरा और निकल जा*। मातादीन की घरवाली पति के हाथ को पकड कर उसकी ओर आशा भरी निगाहों से देखने लगी फिर न जाने क्या सोच कर धीरे से अपना हाथ खीच ली तथा सेवकों के साथ मातादीन को जाता हुआ देखती रही। मातादीन जा नहीं रहा था। जमींदार के सेवक उसे धक्के देकर निकाल रहे थे। अब बाकी जिन्दगी उसे ऐसे ही धक्के खाने थे। पहले गरीबी थी। गरीबी के साथ मधुर गीत थे। इन्द्र धनुषी रंग थे। जिसमें दोनों डूबते उतराते और गरीबी को सोख जाते। पेट पिचकता पर होठों से हँसी झरती। पर अब गीत विस्मृत हो गये, इन्द्रधनुषी रंग पुछ गया । अब, जब-तब कोट से उसकी घरवाली के लिए बुलावा आने लगा। तूफानी ने विरोध किया भी किन्तु जमींदार बाबू साहब ने उसके आस-पास आतंक का ऐसा साम्राज्य फैलाया कि तूफानी उसमें घिरकर फँस गया। बोल ही न फूटे उसके। बाबूसाहब के हुक्म से तूफानी गेहूँ के बोरों को अपने घर लाता रहा पर उन्हें खोलता कभी न। फाँके पर फाँके पडते रहे, पर कोट का एक दाना भी दोनों न छूते। ऐसा करके उन्हें अपने स्वाभिमान को बचा ले जाने अथवा जमींदार से लड जाने का सन्तोष होता। जमींदार को क्या फर्क पडता है, न खुले बोरा। बोरा खोलना, न खोलना तूफानी की इच्छा है। जमींदार अपनी इच्छा का सोचता है। उसकी इच्छा पूरी हो रही है। यूँ तो अब विष निगलना सीख लिया था तूफानी ने पर क्या करे उस शरीर का जहाँ भीतर ही भीतर घुमड-घुमड कर विष अपना प्रभाव दिखाने लगा था। यह विष उसकी घरवाली पर भी चढ रहा था। दिनों-दिन सूख रही थी वह। सुन्दरता जाती रही उसकी। कुछ सालों बाद कोट से उसका बुलावा बन्द हो गया पर दोनों के चेहरे पर खुशी न लौटी। दोनों के पेट और दिल में आग धधकती जिसमें वे झुलसते जा रहे थे। इस दाह को सहना उनके वश का नहीं रह गया था अब। कहते हैं गेहूँ के बोरों से अटा था उनका घर पर प्राण निकले उनके भूख से। कुछ दिनों के अन्तराल में बारी-बारी से बिदा हो गये दोनों। फिर कुछ दिनों बाद घर भी गिर भहरा गया। तो ये था उस खंडहर का इतिहास। आजी ने टुकडों-टुकडों में यही बताया था। अब आप भी सोच रहे होंगे कि इसमें ऐसा क्या था कि मुझे उबकाई-सी आती है इसको जोडते वक्त ! आजी ने और भी कई बातें बताई थी बाबू साहब की बहादुरी (!) की। हाँ जी, किसना, ननकू, सद्दीक... कई नाम थे, जो बाबू साहब के अलग-अलग खेल के अलग-अलग विदूषक थे। पर न जाने क्यों मेरा छींकना शुरू हुआ इसी खण्डहर की धूल से ! सुबह दरवाजा खुलते ही ताजी हवा के झोंको के साथ खंडहर की धूल मिट्टी भी समा जाती है मेरे नथुनों में। बस छींकना शुरु हो जाता है मेरा। ... contd.
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