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खेमेबाजी से हिंदी जगत को नुकसान पहुँचा- प्रभाकर श्रोत्रिय
सुजाता शिवेन ,
May 24, 2012, 12:17 pm IST
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![]() 1. आलोचक से निष्पक्ष होकर आलोचना कर्म करने की उम्मीद की जाती है, पर आज उन पर खेमेबंदी का आरोप लगता रहा है। आपके अपने विचार क्या है ? निष्पक्षता आलोचना की धुरी है जिस पर टिकी होती है - विश्वसनीयता, जो आलोचना की आचार-संहिता का केन्द्रीय तत्त्व है। खेमेबंदी का आरोप आलोचना मात्र पर नहीं लगाया जा सकता। अधिकांश श्रेष्ठ आलोचनाएँ खेमेबंदी से मुक्त होती हैं और अपना कर्म ईमानदारी से करती हैं। परंतु ऐसी आलोचना पर अक्सर यह अंधा आरोप जड़ दिया जाता है कि उसका कोई वैचारिक आधार और दृष्टि नहीं है। जबकि यह बात सिरे से ग़लत है। बिना दृष्टि और विचार-संपन्न हुए कोई आलोचना संभव नहीं है। यही तो उसकी परख का आधार है, और इसी के माध्यम से आलोचक के सरोकारों का पता चलता है। परंतु विचारों को रचना पर लागू करते समय रचना की प्रकृति और वस्तु पर भी ध्यान देना ज़रूरी होता है जो खेमेबंद आलोचना के लिए संभव नहीं होता। वह निष्करूण होकर अपने विचार या ज़्यादा सही कहें तो विचारधारा थोपती है। जबकि आलोचना एक स्वतंत्र बौद्धिक कर्म ही नहीं, संवेदना-कर्म भी है। एक निष्पक्ष आलोचना के केन्द्र में ‘रचना’ होती है। यदि उसमें व्यक्त विचार आलोचक के प्रतिकूल हो तो भी वह अपने विवेक से पूछता है कि लेखक की रचना सार्थक, विश्वसनीय, तार्किक और मानवीय है या नहीं ? ऐसे में वह स्वयं अपनी वैचारिकी को भी परखता है। क्योंकि आलोचक को आत्म-साक्षात्कार भी निरंतर करना होता है। कई बार रचना भी उसे दृष्टि देती है या उसकी दृष्टि में हस्तक्षेप करती है। रचना का मात्र वही अभिप्राय नहीं होता जो आलोचक समझता है। उसके कई पहलू होते हैं और उसमें अनेक अर्थ छिपे रहते हैं। तभी तो रचना युग-युग तक तरह-तरह से आलोचित होती है। इसलिए अपने मत या मति पर अडिग रहना आलोचक को दुराग्रही बना देता है। उत्तर आधुनिकता के विचार से हर पाठक की अपनी विवेचना या अर्थग्रहण, रचना का एक अलग पाठ होता है। इस दृष्टि से भी खेमेबंद आलोचना आज सर्वथा अप्रासंगिक हो चुकी है। आधे दशक से अधिक से जारी खेमेबाजी ने हिंदी जगत को बहुत नुकसान पहुँचाया है। अनेक श्रेष्ठ लेखकों और रचनाओं को इसी कारण उपेक्षा भोगनी पड़ी है और उससे साहित्य अकारण दरिद्रता का शिकार हुआ है। निजी तौर पर मैं पिछले तीस वर्षों से लेखक की स्वायत्तता के लिए संघर्ष कर रहा हूँ। उसके मूल में खेमेबंदी से उसकी मुक्ति की मांग है। मेरा कहना यह है कि कोई विचारधारा अपने में पूर्ण या अंतिम नहीं होती। लेखक को यह स्वतंत्रता होनी चाहिए कि वह अपनी वैचारिकी स्वयं बना सके, उसका संवर्द्धन, संशोधन और विकास कर सके और ज़रूरत पड़ने पर उसको अस्वीकार भी कर सके। राजनैतिक दलों जैसी हाथ उठाने की पाबंदी सर्जना और आलोचना के आत्म-निर्णय की चेतना के विरुद्ध है, नारे लगाना उसका काम नहीं है, निरंतर अन्वेषण या खनन करना उसका स्वभाव है। 2. आज के दौर में लेखक वर्ग को स्त्री लेखन, दलित लेखन में बांटा जा रहा है। एक आलोचक के नाते इससे आप कितने सहमत हैं ? लेखक की प्रतिभा और संवेदना इतनी चमत्कारिक होती है कि वह अनुभवेतर, अदृश्य जगत को अनुभव और दृश्य में बदल देती है। मनुश्य के मस्तिष्क में जो अपार संसार अनायास और अजाने इकट्ठा होता रहता है, रचना उसी का निचोड़ होती है। अवचेतन में कई शब्द और शब्द के कई अर्थ एकत्र होते हैं। प्रत्येक लेखक के विशिष्ट जीवनानुभव ऐसा ब्लेकहोल है जो एकांत गम्य है, जो दृश्य-जगत के दबाव से चेतन मन से भी ओझल हो जाता है। यह दबाव समय, समाज, आचार आदि से निर्मित होता है। कुछ अनुभव अभिव्यक्ति के अवसर के अभाव में अव्यक्त रह जाते हैं। जैसे नारी और दलित जीवन के आत्मानुभव इसी कारण सहस्त्रों वर्षों से अव्यक्त पड़े दुःख भोगते रहे हैं, जिनका अवसर आते ही वे विस्फोटक रूप ले लेते हैं। इन लेखकों के ऐसे अनुभव उनके बिना अव्यक्त रह जाते या उस गहराई, तीव्रता और सचाईं के साथ व्यक्त नहीं हो पाते। मैं आपको कुछ उदाहरण देता परंतु फिलहाल मैं आपके प्रश्न के दूसरे भाग पर आता हूँ। आपने पूछा है कि इन लेखनों को स्त्री-लेखन या दलित-लेखन में बाँटना क्या मेरी दृष्टि में उचित है ? इस बारे में यही कहूँगा कि यह हमारे समय में उभरी नई चेतना है। इसे रेखांकित करने के लिए ऐसे वर्गीकरण अप्रासंगिक नहीं हैं। परंतु इनमें जो अतिवादी सीमाएँ उभरी हैं उनसे इन आंदोलनों को हानि होगी। उनमें मुख्य यह है कि स्त्री के अलावा स्त्री के बारे में या दलित के अलावा दलित के बारे में किए लेखन को इससे निष्काशित करना। इससे ये आंदोलन शेष संसार से प्राप्त संवेदन और प्रतिभा के एक बड़े अवदान से वंचित हो जाएँगे और उस समाज से भी, जिनके बीच इन्हें प्रतिष्ठित होना है। जिन्होंने इन्हें स्वीकृति, समर्थन और संबल दिया है और ऐसे युगों में इनके लिए संघर्श किया है जब ऐसे कोई अवसर नहीं थे। उदाहरण के लिए दलित जीवन पर दलित लेखकों द्वारा लिखी कृतियाँ भले प्रेमचंद की कहानी ‘सद्गति’ और अमृतलाल नागर के उपन्यास ‘नाच्यो बहुत गोपाल’ के समकक्ष नहीं उतर पा रही हों, परंतु मैं समझता हूँ कि वह महागाथा या महाकाव्य अगर आने वाला हो जिसमें दलित की पीड़ा और उसका अभ्यंतर व्यथा की सिंफनी के सप्तम में अपने चरम को छुए, तो वह आएगा दलित के भीतर से ही। इसी तरह स्त्री की वेदना, यातना की विविधता कई महिला लेखिकाओं द्वारा बहुत और बहुत अच्छा लिखे जाने पर भी शरद चंद्र की संवेदित सर्जना से उन्नीस ही ठहरती हों, पर चरम को छूने वाली रचना भी स्त्री लेखन से ही आएगी। संक्षेप में मैं इन दोनों आंदोलनों की उपादेयता स्वीकार करता हूँ उनमें अनुभव की अद्वितीयता और सत्य का उद्घाटन है। हमारे सामने हजारों वर्षों के शोषण का वीभत्स चित्र इनके जरिए आया है जो संभवतः इनके बिना संभव नहीं था। मैं इन आंदोलनों को गहरा और परिवर्तनकामी मानते हुए भी उनमें अनेक अतिवाद देखता हूँ, जो इन वर्गों से बाहर के लेखन, सारे क्लैसिक साहित्य, गहरी चिंतन-परंपरा और अर्जित ज्ञान को नकारात्मक अर्थ में ही लेते हैं। अनाज में से कंकर बीने जाते हैं, पूरा अनाज नहीं फेंका जाता। यह भी उल्लेखनीय है कि स्त्री और दलित के पक्ष में पुरुषों और सवर्णों का बहुत बड़ा समुदाय, लेखकों की सुदीर्घ परंपरा और अद्यतन रचना-संसार है। उससे इंकार उन तमाम उपलब्धियों से लाभ न उठाने की ऐसी मानसिकता है, जो स्वयं ही इन आंदोलनों को उन सरोकारों से वंचित करती है जो उनके पक्ष में हैं। प्रेमचंद के उपन्यास ‘रंग भूमि’ की होली जलाना या गाँधी का तिरस्कार करना कौन-सी मानसिकता और दृश्टि को सूचित करता है जबकि इन दोनों ने दलितों और स्त्रियों के लिए अपने समय में जो संघर्ष किया है वह धारा के विरुद्ध था। इतनी संकीर्णता इन आंदोलनों को कोई बल नहीं पहुँचाती बल्कि एक नई घृणा का वातावरण बनाती है। क्योंकि दलितों या स्त्रियों की अंतर्बाधा ही नहीं उस समाज की अंतर्बाधा भी दूर होनी है जिनके बीच उन्हें सही प्रतिष्ठा पानी है और सहस्त्राब्दियों के बंधन, तिरस्कार, उपेक्षा का ध्वंस करना है। यह देख कर भी इन आंदोलनों की व्यापकता और विकास के प्रति शंका पैदा होती है कि बजाए उत्कृष्ट साहित्य सृजन के ये अपनी वकालत और घृणा में केन्द्रित हो रहे हैं। अपने को प्रतिष्ठत करने का एक बड़ा माध्यम विभिन्न दिशाओं में अपने उत्कर्ष को पाना भी है। 3. स्त्री विमर्ष को आप अपने शब्दों में कैसे विश्लेषण करेंगे ? स्त्री विमर्ष हमारे समय का एक ज़रूरी विमर्ष है। पूरी दुनिया में यह आधुनिकता और मनुष्यता का प्रतीक हो गया है। स्त्री का शोषण सर्वत्र सामान्य होते हुए भी उसके प्रकार और परिमाण में अंतर है। इसलिए जब भारतीय लेखक विश्व में हो रहे विमर्ष का अनुकरण करते हैं, तब मुझे कुछ अचरज होता है। प्रभावित होना कुछ और बात है; अनुकरण करना कुछ और। इसका नतीजा यह हुआ है कि इस विमर्ष द्वारा जिस स्त्री को शक्ति, स्वतंत्रता और समान अधिकारों की ज़रूरत है, वह इससे लगभग वंचित है। न सिर्फ यह विमर्ष और आंदोलन उस स्त्री समाज तक नहीं पहुँचा है, बल्कि उसका विचार भी इसके अंतर्गत प्रायः नहीं हुआ है - वह है ग्रामीण और दलित स्त्री - समाज। 40-45 साल पहले प्रकाशित अपनी एक पुस्तक में मैंने कहा था कि स्त्री भारत में पाँचवा वर्ण है, प्रगतिशील आंदोलन में उसकी स्थितियों और उन्नयन को लेकर भारतीय लेखक का चिंतित न होना मुझे अजीब लगता है। यह भी उल्लेखनीय है कि स्त्री विमर्ष के सीमित पहलुओं पर ही बात होती है जबकि उसके राजनीतिक, आर्थिक, नृशास्त्रीय, मनोवैज्ञानिक आदि ढेरों मामलों में विमर्ष को व्यापक और विविध होता है। यहाँ विस्तार से कहने का अवसर नहीं है, केवल इतना ही कि भारत में स्त्री विमर्ष की ज़रूरत जिस स्त्री समाज को सबसे ज़्यादा है, उसे केन्द्र में रखा जाना चाहिए। उदाहरण के लिए शहरी स्त्री, विशेषतः मध्यम और उच्च वर्ग की स्त्री अपनी स्वाधीनता की माँग और उस पर बहस करती है, जबकि वह पहले से ही स्वाधीन है, स्वाधीनता की असली ज़रूरत उस स्त्री को है जो गाँवों में आज भी पर्दा प्रथा, बाल-विवाह, विधवा उत्पीड़न जैसे कई त्रासों और बंधनों में जकड़ी है। स्त्री - जीवन के कितने प्रकार हैं उन जीवनों में उतने ही प्रकारों से वह शोषित, बंधित, उत्पीडि़त और उपेक्षित है। स्त्री विमर्ष के दौर से अधिक तो भारत की सामान्य स्त्रियों और समाज-सुधारकों ने अपने सच्चे प्रयत्नों से स्त्री को व्यावहारिक लाभ पहुँचाया है। स्त्री-विमर्ष स्त्री लेखकों तक सीमित रहने की हानियों के बारे में मैं आपके पिछले प्रश्न के उत्तर में कह चुका हूँ। यह विमर्ष प्रायः पुरुष से विभाजन और संघर्ष की नींव पर खड़ा है, यह भी पश्चिम का ही प्रभाव है। इससे सहजीवन की बजाए स्पद्र्धा की जैसी उग्रता या स्वच्छंदता के लक्षण स्त्री लेखन में प्रकट हुए हैं उसमें विद्रूप की अधिकता ही मुख्य हो उठी है। इस दौर में कृष्णा सोबती के उपन्यास ‘समय सरगम’ से सुंदर कृति सहजीवन पर देखने में नहीं आई। विभाजन या द्वन्द्व के इस दौर की विडंबना देखिए कि लड़की के प्रति पारिवारिक चिंता, स्नेह और रक्षा की अत्यंत कोमल भावना के कारण रात-रात भर घूमने को वर्जित करना स्त्री को स्वाधीनता के विरोध में पुरुष वर्ग के अत्याचार के रूप में ही देखना क्या इस विकट समय में लड़की को असुरक्षित और अकेले छोड़ देने की वकालत करना नहीं है, जिसे लड़के की तुलना में अपनी ‘मुक्ति’ का दंड हज़ार गुना चुकाना होता है। इस दृष्टि से मुझे कहना है कि स्त्री-विमर्ष को सैद्धांतिक स्वरूप में बाँधने की बजाए उसका देश-काल, वर्गीय स्थिति आदि सैकड़ों प्रकारों के संदर्भ में युक्तियुक्तकरण किया जाना चाहिए। स्त्री को जिस समाज के बीच प्रतिष्ठत होना या सम्मान पाना है, उसे अपने सोच और सृजन से बहिष्कृत करके कुछ अहम्वादी स्त्रियों को संतोष या नेतृत्व तो मिल सकता है पर इस तरह उसने कितने बड़े समाज की अनुकूलता और सहानुभूति खो दी है इसका अनुमान लगाना आसान नहीं है। इसलिए भी इस विमर्ष को स्त्री के कटघरे से मुक्त करना मुझे ज़रूरी लगता है। वैसे मैं पहले कह चुका हूँ कि स्त्री की कुछ ऐसी अद्वितीय अनुभूति और व्यथा है जिसे केवल वही व्यक्त कर सकती है। स्त्रियों की आत्म-कथाओं में उनका लेखक होना ही नहीं उनका स्त्री होना भी एक बड़े स्त्री समाज को व्यक्त करता है। इसलिए उनका स्वागत होना चाहिए और हुआ। एक लेखक और बुद्धिजीवी की अपने वर्ग के बारे में बहुआयामी चिंता प्रकट करना बहुत स्वाभाविक भी है और आवश्यक भी। इसलिए स्त्री विमर्ष पर स्त्रियों की दिलचस्पी, संवेदना और एक्टिविजम बहुत उचित है। नई और कुछ प्रौढ़ स्त्रियों के लेखन में मुख्य माँग देह और योनि की मुक्ति की उठी है और भाँति-भाँति के संदर्भ में वे इसे व्यक्त करती हैं, ठीक वैसे ही जैसे फिल्म में स्त्री कर रही है। यह नारा भी भारतीय स्त्री-विमर्ष ने पश्चिम से लिया है पर पश्चिम में यह कोई मामला ही नहीं है, इसलिए पश्चिमी लेखिका इस मामले में एक अनुत्तेजक सहजता में बात करती है जबकि भारतीय लेखिका इस प्रकरण पर बेहद उग्र हो जाती है, जैसे यह किला उसे फतह करना ही है। इसके बावजूद कि कुछ फैशनेवुल संपन्न घरानों की लड़कियों को छोड़कर शेष स्त्री-समाज को इस मुक्ति के व्यावहारिक अवसर नहीं है। पश्चिम ने इसके लिए एक पूरा सामाजिक ढाँचा बनाया है। बिना उसके यह मांग नहीं, कुंठा की अभिव्यक्ति होगी - एक अप्राप्य संभावना की प्राप्ति के लिए ललक। नारी लेखन या स्त्री विमर्ष को अभी पूरे स्त्री समाज के लिए बड़ा काम करना है, उसके पहले ही उसका बिखर जाना या अन्यथा आक्रोश, चंचलता, उद्वेग में छीज जाना उसी के लिए लाभदायक नहीं होगा। 4. वैश्वीकरण के इस वर्तमान युग में भारतीय भाषाएँ खतरे में हैं। ऐसे में आप हिंदी भाषा को लेकर कितने आश्वस्त हैं ? मैं इस पर बहुत लिख चुका हूँ। भारतीय भाषाओं की तरह ही मैं हिंदी को भी खतरे में मानता हूँ। सभी भाषाएँ बोलियों में बदल रही हैं। सभी भाषाओं के ज़रिए बाज़ार और वैश्वीकरण अपना लक्ष्य साध रहा है। हिंदी ही नहीं, सभी भारतीय भाषाओं में फैलाव का भ्रम फैलाया जा रहा है जबकि भाषओं को बाज़ार फैलाने का औजार बनाया जा रहा है और उनका पठन-पाठन अवरुद्ध कर उसकी वैचारिकी, ज्ञान-विज्ञान और सृजन का लगातर लोप किया जा रहा है। समूची भाषओं के विलोपीकरण का एक चालाक उद्यम चल रहा है। मेरे विचार में सभी भारतीय भाषाओं को एकजुट होकर सूझ-बूझ से इस विपदा का सामना करना चाहिए और एक कथित विश्वभाषा के लिए अपने कंधे का इस्तेमाल नहीं करने देना चाहिए। गाँधी ने ठीक कहा था कि अंग्रेज भारत में शासन करने नहीं आए थे, बल्कि हमने उनको बुलाया और शासक का रुतबा दिया। ‘विश्वभाषा’ के संदर्भ में भी हमें इस बात का ध्यान रखना चाहिए। ... contd.
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