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नित्य मानस चर्चाः उत्तर कांड, 14 साल बाद प्रभु राम का राज्य तिलक

नित्य मानस चर्चाः उत्तर कांड, 14 साल बाद प्रभु राम का राज्य तिलक नई दिल्लीः नित्य मानस चर्चा का क्रम जारी है. पुलिस सेवा से जुड़े रहे प्रख्यात मानस मर्मज्ञ श्री राम वीर सिंह उत्तर कांड की सप्रसंग व्याख्या कर रहे हैं. राम वीर जी अपने नाम के ही अनुरुप राम कथा के मानद विद्वान हैं.

यह चर्चा भाई भरत और श्री राम जी के मिलाप से जुड़ी हुई है. लेकिन इसमें वह समूचा काल खंड जुड़ा है. भ्रातृ प्रेम, गुरू वंदन, सास- बहू का मान और अयोध्या का ऐश्वर्य...

सच तो यह है कि उत्तर कांड की 'भरत मिलाप' की कथा न केवल भ्रातृत्व प्रेम की अमर कथा है, बल्कि इसके आध्यात्मिक पहलू भी हैं.  

इस प्रसंग के सभी पहलुओं की व्याख्या के साथ गोस्वामी तुलसीदास रचित राम चरित मानस के उत्तरकांड से संकलित कथाक्रम, उसकी व्याख्या के साथ जारी है.

उन्हीं के शब्दों में:

*ॐ*    
*नित्य मानस चर्चा*
*उत्तरकांड*

अगली पंक्तियाँ:-
 "प्रभु बिलोकि मुनि मन अनुरागा।
तुरत दिव्य सिंहासन मागा।।
रवि सम तेज़ सो बरनि न जाई।
बैठे राम द्विजन्ह सिरु नाई।।
जनकसुता समेत रघुराई।
 पेखि प्रहरषे मुनि समुदाई।।
वेद मंत्र तब द्विजन्ह उचारे।
नभ सुर मुनि जय जयति पुकारे।।
प्रथम तिलक बसिष्ट मुनि कीन्हा।
पुनि सब बिप्रन्ह आयसु दीन्हा।।
सुत बिलोकि हरषीं महतारी।
बार बार आरती उतारी।।
विप्रन्ह दान बिबिध बिधि दीन्हे।
जाचक सकल अजाचक कीन्हे।।
सिंहासन पर त्रिभुअन साईं।
देखि सुरन्ह दुंदुभी बजाई।।
छन्द:-
नभ दुन्दुभी बाजहिं बिपुल गंधर्व किन्नर गावहीं। नाचहिं अपछरा बृंद परमानंद सुर मुनि पावहीं।। भरतादि अनुज विभीषनांगद हनुमनादि समेत ते।
 गहें छत्र चामर व्यजन धनु असि चर्म सक्ति विराजते।।
श्री सहित दिनकर बंस भूषन काम बहु छवि सोहई। नव अंबुधर बर गात अंबर पीत सुर मन मोहई।। मुकुटांगदादि बिचित्र भूषन अंग अंगन्हि प्रति सजे। अंभोज नयन बिसाल उर भुज धन्य नर निरखन्ति जे।।
दोहा:--
यह सोभा समाज सुख कहत न बनइ खगेस।
बरनहिं सारद सेष श्रुति सो रस जानि महेस।।
भिन्न भिन्न अस्तुति करि गए सुर निज निज धाम। बंदी वेष बेद तब आए जहँ श्रीराम।।
प्रभु सर्वज्ञ्य कीन्ह अति आदर कृपानिधान।
लखेउ न काहूँ मरम कछु लगे करन गुन गान।।"
******
         
---सिद्धांत है कि "मिलिहिं न रघुपति बिनु अनुरागा"। बिना अनुराग के राम नहीं मिलते। भरद्वाज जी को मिलने पहुँचे थे क्यों कि "तिनहिं राम पद अति अनुरागा"। गुरु बशिष्ठ राम के अवतार रहस्य को जानते हैं तभी चित्रकूट में अकेले में राम से ही सीधा कहते हैं"प्रान प्रान के जीव के जिव सुख के सुख राम"। आज उलटा राम को देखकर अनुराग पैदा हो रहा है। क्यों कि मुनि देख नहीं रहे,राम को बिलोक रहे हैं(अपनी निजी चीज़ जान कर देखना बिलोकना है)।

    इसका अर्थ है कि राम अनुराग का साथ रहता है। जहॉं अनुराग वहॉं राम और जहॉं राम वहॉं अनुराग।

      वशिष्ठ जी ने तुरंत ही दिव्य मणियों से जुड़ा हुआ स्वर्ण सिंहासन मँगा लिया जिसका तेज सूर्य के समान था।

 (बाल्मीकिरामायण के अनुसार यह देवताओं का निर्माण कराया हुआ अप्राकृत दिव्य सिंहासन था,जो ब्रह्माजी ने मनुजी को दिया था तथा इसी पर रघुवंशी राजाओं का राजतिलक होता आया था। )

       यदि अयोध्या हमारा विशुद्ध अंत:करण है तो हमारी विशुद्ध प्रज्ञा(वुद्धि) वह दिव्य सिंहासन है जहॉं भगवान बिराजते हैं।

      सीता राम जी को सिंहासन पर देख कर समस्त मुनि लोग प्रसन्नता से भर गए। विप्र गण पवित्र वेदमंत्रों का उच्चारण कर रहे हैं आकाश से देवताओं की जय जयकार सुनाई दे रही है।

       ब्रह्मापुत्र वशिष्ठ ही भगवान को पहले तिलक करते हैं। इस समय अयोध्या में वही सबसे ज्येष्ठ और सर्वमान्य व्यक्तित्व हैं। उसके बाद उन्ही की आज्ञा से, उपस्थित अन्य सभी मुनि और विप्र भी भगवान का राजतिलक करते हैं। भगवान सबको प्रणाम करते हैं।

         यहॉं संकेत मिलता है कि शास्त्रों के अनुसार राज्य व्यवस्था, धर्म का ज्ञान रखने वाले मननशील विद्वान (विप्र) और सिद्धान्तों को कार्यान्वित करने वाले क्षत्रियों, दोनों पर ही आधारित रही है। जहॉं राजाओं का शासन दण्ड पर आधारित है, वहीं विप्रों का शासन उपदेशों पर आधारित है। दोनों वर्ग एक दूसरे के पूरक हैं।

              माताएँ सीता राम जी को सिंहासन पर बिराजमान देख कर हर्षित हो रही हैं। बार बार आरती उतार रही हैं। उपस्थित विप्रों को दान दे रही हैं। भिक्षुओं को इतना दान दिया गया कि अब जीवन में किसी से भी मॉंगने की आवश्यकता नहीं है।

      देवतागण आकाश में बाजे बजा रहे हैं। गंधर्व किंनर आदि गीत गाकर उत्सव का आनंद बढा रहे हैं। सभी देवता, मुनि और (छद्मवेश में उपस्थित )भोलेनाथ शिव आनन्द ले रहे हैं।

अब गोस्वामीजी राम दरबार की उस छवि का वर्णन कर रहे हैं,जिनके चित्र आजकल बाज़ार में कम मिलते हैं। क्यों कि समझने और पहचानने बाले ही कम हो गए। सिंहासन पर भगवान के साथ वायीं ओर सीता जी विराजमान हैं। सिंहासन के पीछे भरतजी छत्र लेकर खड़े हैं। (मानस रत्न तिवारीजी ने कथा में कहा था कि रामराज्य भी भरत की छत्रछाया में स्थापित हुआ )। लक्षमण जी चँवर लेकर दाहिनी ओर ,शत्रुघ्नजी पंखा ढलते हुए वायीं ओर, विभीषणजी धनुष वाण लेकर पीछे खड़े हैं, अंगदजी तलवार और चर्म लेकर दाहिनी ओर, हनुमानजी शक्ति लेकर वायीं ओर नीचे चरणों के पास बैठे हैं।

 (भगवान के १६ पार्षद हैं। यहॉं ६ के दर्शन कराए हैं। किंतु भरतादि और हनुमदादि कहने से सब का ग्रहण हो जाता है। मानसकार सार में बात कहते हैं विस्तार में नहीं। )

         तुलसी सिंहासनारूढ भगवान का शब्द चित्र खींच कर बताते हैं कि प्रभु की इस छवि को हृदय में उतार कर उसका ध्यान करना चाहिए।

     भगवान का सुन्दर शरीर श्यामवर्ण बादलों के जैसा है। उनके पीले वस्त्र ऐसे हैं जैसे कि मेघ में बिजली चमक कर स्थिर हो गई हो। भगवान सिर पर मुकुट धारण किए हैं। उनके कानों में मकराकृत कुण्डल, बाजूबंद आदि बडे सुन्दर आभूषण शोभायमान हैं। गले में बैजयंतीमाला शोभित है। कमल के समान नेत्र और लम्बी भुजाओं वाले श्रीराम की इस छवि का जो कोई भी अपने हृदय में दर्शन करते हैं, वे धन्य हैं।

        यहॉं भुशुण्डिजी भी गरुडजी से कह रहे हैं कि जो भगवान की छवि को इस प्रकार देखता है उसके भौतिक जीवन से दुख क्लेश दूर हो जाते हैं और आनंद की प्राप्ति होती है।

         अब पहले अपना नम्बर बनाने वाले देवतागण आए और अपनी अपनी स्तुति करके स्वर्ग का भोग भोगने चले गए।

       उसी समय चारौ वेद चारण ,सूत,मागध और भाट के वेश में छुप कर आए और भगवान की स्तुति करने लगे। कोई और तो नहीं पहचान पाया,भगवान पहचान गए। आशय भी समझ गए कि अब राज्य का कार्य करना है सो इन्ही के सुझाए मार्ग से संचालन करना उचित होगा।

    वेद अपनी स्तुति में गम्भीर बात कहेंगे। हम भी मति अनुरूप समझने की कोशिश करेंगे। जहॉं भूलेंगे,समूह के विद्वान सँभाल लेंगे।
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