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विश्व हिन्दी सम्मेलन : सरकारी भाषा नहीं बन पाती जनसाधारण की जुबां

विश्व हिन्दी सम्मेलन : सरकारी भाषा नहीं बन पाती जनसाधारण की जुबां जोहान्सबर्ग: दक्षिण अफ्रीका के जोहान्सबर्ग में आयोजित नौवें विश्व हिन्दी सम्मेलन के पहले दिन प्रख्यात कथाकार और महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय के कुलपति विभूति नारायण राय ने इस सच्चाई को उजागर किया कि सरकार की फाइलों पर चलने वाली भाषा कभी जनसाधारण की भाषा नहीं बन पाती।

राय ने यह बात सम्मेलन स्थल के शांति कक्ष में आयोजित 'महात्मा गांधी की भाषा दृष्टि और वर्तमान का संदर्भ' विषयक परिसंवाद सत्र में अध्यक्षीय टिप्पणी के दौरान कही।

उन्होंने कहा कि भाषा से ही राजा का जनता के साथ रिश्ता कायम होता है। जब हम गांधीजी की भाषा दृष्टि पर सोचते हैं तो हमें दूसरी भाषाएं सीखने के लिए उदार होना होगा।

आलोचक कृष्णदत्त पालीवाल ने कहा कि गांधी का चिंतन परम्परागत होते हुए भी क्रांतिकारी चिंतन है। गांधीजी की मुख्य चिंता थी कि अंग्रेजी कहीं देश की राष्ट्रभाषा न बन जाए। गांधीजी मानते थे कि हिन्दी कई बोलियों की संगम है और भारतीय भाषाओं को जोड़ने वाली भाषा है।

वरिष्ठ पत्रकार मधुकर उपाध्याय ने अपनी बात की शुरुआत महात्मा गांधी द्वारा भरूच में हिन्दी भाषा को लेकर उठाए गए पांच सवालों से की। उपाध्याय ने हिन्दी समाज की खामियों को रेखांकित करते हुए कहा, "हमने अपनी बोलियों और उर्दू से एक तरह से कन्नी काट ली है।"

वहीं, प्रख्यात आलोचक विजय बहादुर सिंह ने कहा कि गांधीजी आज की पीढ़ी के लिए बीते दिनों की चीज हैं, जबकि आज भी हम विचार के लिए गांधी के पास जाते हैं। गांधी की चेतना की डोर समाज से जुड़ी हुई थी। गांधी इस देश की आत्मा के पर्याय थे। गांधी सत्ता की राजनीति में भरोसा नहीं करते थे।
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